मृत्यु के बाद जीवन है या नहीँ, स्वर्ग नरक है या नहीं, कर्मफल है या नहीं, पूर्वजन्म पुनर्जन्म है या नहीं और अगर है तो जन्म-मरण से मुक्ति है या नहीँ. ये प्रश्न उन्हें अधिक सालते है जो दिखावा तो सद्कर्म का करते है किंतु उनकी अंतरआत्मा में संशय बना रहता है कि इस तरह के छद्म सद्कर्मों से कर्मफल प्रभावित होते भी होंगे या नहीं. खुदा ना करे ऐसा कोई न्यायाधीश न्यायालय या न्याय व्यवस्था हो जो झूठ मुठ के स्वार्थी छद्म सदाचारों का दूध का दूध और पानी का पानी कर दे?
आस्तिक हो या नास्तिक, जिन्हें अपने विचारों पर संदेह रहित निष्ठा है, किंतु कर्म उनका निष्काम व यथार्थ सदाचरण है, स्वार्थवश शिष्टाचारों का पखण्ड नहीं है, भरमाने की धूर्तता नहीं है तो उसके दोनो हाथ में लड्डू है. यदि यही मात्र जीवन है तो वह सदाचार व त्यागमय व्यक्तित्व के कारण इस भव में प्रशंसित और पूर्ण संतुष्ट जीवन जी लेते है. और अगर जीवन के बाद भी जीवन है तो उन्ही त्यागमय सदाचारों के प्रतिफल में सुफल सुनिश्चित कर लेते है. जिसे कर्मफल ( बुरे का नतीजा बुरा, भले का नतीजा भला) में विश्वास है, चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में, किसी भी दशा में चिंतित होने की क्या आवश्यकता हो सकती है?
जो यह मानते है कि खाओ पीओ और मौज करो, यही जीवन है, उनके लिए अवश्य समस्या है. जिनका ‘मिलेगा नहीं दुबारा’ मानकर मनमौज और जलसे करना ही लक्ष्य है तो दोनो ही स्थिति में उनका ठगे जाना पक्का है. क्योंकि सद्कर्म पूर्णरूप से त्याग और आत्मसंयम में बसा हुआ है, और उसी स्थिति मेँ यथार्थ सदाचरण हो पाता है. जैसे अर्थ शास्त्र का नियम है कि यदि लाभ के रूप में हमारी जेब में एक रूपया आता है तो कहीं ना कहीं किसी की जेब से एक रूपया जाता ही है, कोई तो हानि उठाता ही है. भौतिक आनंद का भी बिलकुल वैसा ही है, जब हम अपने जीवन के लिए भौतिक आनंद उठाते है तो उसकी प्रतिक्रिया में कहीं न कहीं, कोई न कोई भौतिक कष्ट उठा ही रहा होता है. चाहे हमारी जानकारी में आए या न आए. लेकिन आत्मिक आनंद के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकि आत्मिक आनंद, त्याग-संयम व संतोष से उपार्जित किया गया होता है.
यह यथोचित ही है कि इस जीवन को ऐसे जीना है, जैसे दुबारा नहीं मिलने वाला. वह इसलिए कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार बार नहीं मिलता. किंतु इस जीवन की समाप्ति भी निश्चित है. मृत्यु अटल सत्य है. इसलिए जीते हुए भी इस सत्य की सतत स्मृति जरूरी है क्योंकि यह स्मृति ही सार्थक, निस्वार्थ, त्यागमय, संयमित सदाचरण का मार्ग प्रशस्त करती है. जिसका लाभ दोनो ही कंडिशन में सुखद रूप से सुरक्षित है.
आस्तिक हो या नास्तिक, जिन्हें अपने विचारों पर संदेह रहित निष्ठा है, किंतु कर्म उनका निष्काम व यथार्थ सदाचरण है, स्वार्थवश शिष्टाचारों का पखण्ड नहीं है, भरमाने की धूर्तता नहीं है तो उसके दोनो हाथ में लड्डू है. यदि यही मात्र जीवन है तो वह सदाचार व त्यागमय व्यक्तित्व के कारण इस भव में प्रशंसित और पूर्ण संतुष्ट जीवन जी लेते है. और अगर जीवन के बाद भी जीवन है तो उन्ही त्यागमय सदाचारों के प्रतिफल में सुफल सुनिश्चित कर लेते है. जिसे कर्मफल ( बुरे का नतीजा बुरा, भले का नतीजा भला) में विश्वास है, चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में, किसी भी दशा में चिंतित होने की क्या आवश्यकता हो सकती है?
जो यह मानते है कि खाओ पीओ और मौज करो, यही जीवन है, उनके लिए अवश्य समस्या है. जिनका ‘मिलेगा नहीं दुबारा’ मानकर मनमौज और जलसे करना ही लक्ष्य है तो दोनो ही स्थिति में उनका ठगे जाना पक्का है. क्योंकि सद्कर्म पूर्णरूप से त्याग और आत्मसंयम में बसा हुआ है, और उसी स्थिति मेँ यथार्थ सदाचरण हो पाता है. जैसे अर्थ शास्त्र का नियम है कि यदि लाभ के रूप में हमारी जेब में एक रूपया आता है तो कहीं ना कहीं किसी की जेब से एक रूपया जाता ही है, कोई तो हानि उठाता ही है. भौतिक आनंद का भी बिलकुल वैसा ही है, जब हम अपने जीवन के लिए भौतिक आनंद उठाते है तो उसकी प्रतिक्रिया में कहीं न कहीं, कोई न कोई भौतिक कष्ट उठा ही रहा होता है. चाहे हमारी जानकारी में आए या न आए. लेकिन आत्मिक आनंद के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकि आत्मिक आनंद, त्याग-संयम व संतोष से उपार्जित किया गया होता है.
यह यथोचित ही है कि इस जीवन को ऐसे जीना है, जैसे दुबारा नहीं मिलने वाला. वह इसलिए कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार बार नहीं मिलता. किंतु इस जीवन की समाप्ति भी निश्चित है. मृत्यु अटल सत्य है. इसलिए जीते हुए भी इस सत्य की सतत स्मृति जरूरी है क्योंकि यह स्मृति ही सार्थक, निस्वार्थ, त्यागमय, संयमित सदाचरण का मार्ग प्रशस्त करती है. जिसका लाभ दोनो ही कंडिशन में सुखद रूप से सुरक्षित है.
जीवन का लक्ष्य
मृत्यु स्मृति
सुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंआजकल मैं उन पोस्ट पर प्रतिक्रिया देने से किनारा कर लेती हूँ, जहाँ बहुत ज्यादा बहस या विमर्श की गुंजाइश होती है. क्यूंकि बहुत सारा समय व्यर्थ चला जाता है.
पर आपकी इस पोस्ट का विषय कुछ ऐसा लगा मानो 'अदा' की पोस्ट से सम्बंधित है. वहाँ मैंने भी टिपण्णी की है और यह कहा है ."इसलिए बेहतर तो यही है कि सोच कर चला जाए, अपना किया-धिया इसी जन्म में सामने आएगा ,अच्छे कर्म का अच्छा फल बुरे कर्म का बुरा.
ज़िन्दगी बस ऐसे जी जाए जैसे न मिलेगी दोबारा क्यूंकि पता नहीं कल हो न हो :)
आपने अपनी पोस्ट में लिखा है, जो यह मानते है कि खाओ पीओ और मौज करो, यही जीवन है, उनके लिए अवश्य समस्या है. जिनका ‘मिलेगा नहीं दुबारा’ मानकर मनमौज और जलसे करना ही लक्ष्य है तो दोनो ही स्थिति में उनका ठगे जाना पक्का है. " ..खैर मौज मस्ती करने वालों के लिए आपकी चिंता जायज है. आप उनके ठगे जाने को लेकर कितने चिंतित हैं, इसकी सराहना करनी चाहिए.
बस एक बात समझ में नहीं आयी. आपने लिखा है, "भौतिक आनंद का भी बिलकुल कैसा ही है, जब हम अपने जीवन के लिए भौतिक आनंद उठाते है तो उसकी प्रतिक्रिया में कहीं न कहीं, कोई न कोई भौतिक कष्ट उठा ही रहा होता है. "
ये 'भौतिक आनंद' से आपका क्या तात्पर्य है..कुछ समझ में नहीं आया.
आपने यह भी लिखा है,"लेकिन आत्मिक आनंद के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकि आत्मिक आनंद, त्याग-संयम व संतोष से उपार्जित किया गया होता है."
हटाएंकृपया मेरी जिज्ञासा का समाधान करें कि 'आत्मिक आनंद ' क्या है ?और किस तरह के त्याग, संयम, संतोष से उपार्जित किया जा सकता है ?
रश्मि जी,
हटाएंचिंतनशील विषय पर चर्चा, विमर्श व मनन करना मुझे प्रिय है. विमर्श में समय तो जाता है किंतु वैचारिकता को समृद्ध करने का पोषण प्राप्त हो जाता है.
हाँ यह 'अदा'जी की पोस्ट से ही प्रेरित है. मैं वस्तुतः यह टिप्पणी ही करता, किंतु वहाँ चर्चा को अवकाश नहीं है, मेरा जो भी दृष्टिकोण बनता रहता है, अभिव्यक्त करना मुझे अच्छा लगता है अतः मैंने अपनी इस पोस्ट द्वारा अभिव्यक्त किया.
‘मिलेगा नहीं दुबारा’ चिंतन का आधार आपकी टिप्पणी नहीं है. आप हर्गिज इस पोस्ट को अपने कमेँट की प्रतिक्रिया न मानें यह सामान्य व बहुधा कथन है, ब्लॉग जगत में कईं बार यह विषय उठता है, एक पोस्ट संजय अनेजा जी की भी थी, अदा जी की अंतिम दोनो पोस्ट का भी कुछ ऐसा ही अभिप्राय है. अतः विषय पर मैने अपने दृष्टिकोण से अभिप्राय मात्र प्रस्तुत किया है.
फिर भी मैं क्षमा चाहता हूँ इसमें व्यक्त मेरे विचारों के कारण, आपको अप्रिय कार्य के लिए आना पडा. यकिन मानिए चर्चा करना मेरा प्रिय शगल है, लेकिन जिन्हें यह अच्छा नहीं लगता, और जब यह बात जान लेता हूँ मैं उन्हें चर्चा में फिर से नहीं उतारता.
अगली टिप्पणी में आपके दोनो प्रश्नो के उत्तर देने का प्रयास करता हूँ.....
@ ये 'भौतिक आनंद' से आपका क्या तात्पर्य है..कुछ समझ में नहीं आया.
हटाएंदुनिया भर के श्रेष्ठ भौतिक संसाधनो को पाना, और उसी की तृष्णापूर्ति में अपने जीवन का सुख महसुस करना, भौतिक आनंद है. रूपगर्व, ऋद्धिगर्व, बल व शक्तिगर्व इस भौतिक आनंद में समाहित है. जैसे संसाधनों के अनियंत्रित उपयोग से अभावी लोगों का शोषण होता है उन्हे कष्ट पहूँचता है.और अधिकांश मामलो में तो गरीब(भौतिक संसाधनो से महरूम)के श्रम पर ही अमीरों की पार्टी(भौतिक आनंद)होती है.एक और उदारण दूँ तो अपने सामारोहों में खाद्य को व्यर्थ करते लोग कहीं दूर किसी के भूखे मरने के लिए जवाबदार है. अपने स्वार्थी सुख, अपने मनोरंजन, अपने रूतबे के लिए, संसाधनो का अतिरिक्त भोग उपभोग से मौज लेना, 'भौतिक आनंद'है.
@ 'आत्मिक आनंद' क्या है ?और किस तरह के त्याग, संयम, संतोष से उपार्जित किया जा सकता है ?
आत्मिक आनंद अंतर की अनुभूति है. किसी को सहयोग सहायता देकर जो प्राप्त होता है, किसी को दान या उसका मार्ग निष्कंटक बनाने से जो प्राप्त होता है, किसी के लिए अपनी खुशियोँ का त्याग करने से जो आनंद प्राप्त होता है. उस आनंद को पाने पर दूसरे किसी का अहित या क्षति नहीं होती. इसलिए यह आनंद प्राप्त करना दोष रहित है. आप अपने उपयोग को नियंत्रित करते है तो वह संयम है. ऐसा करने पर भी आप किसी अन्य को कहीं दूर भी नुकसान नहीं पहूँचा रहे होते, बल्कि आपके नियंत्रित उपयोग से सामग्री किसी तीसरे के लिए सहज उपलब्ध करवा रहे होते है. संतोष आपको तृष्णा पर जीत दिलाता है इस तरह वह आपको परिग्रह से मुक्त रखता है.ऐसा करके मन में जो आनंद उपार्जित होता है वह आत्मिक आनंद कहलाता है.
सुज्ञ जी,
हटाएंआपके कथन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम,आप हमारे आस-पास के लोग , यहाँ तक कि ब्लॉग जगत के भी सभी लोग भौतिक आनंद में लिप्त हैं.
हमारा जीवन रोटी दाल खाकर भी चल सकता है पर हुमलोग मिष्ठान , तरह तरह के पकवान खाते हैं.
तन ढंकने के लिए दो जोड़ी कपड़े काफी हैं पर दो जोड़ी से ज्यादा कपड़े रखते हैं.
पंखा, टी .वी . कंप्यूटर, कार जैसे आधुनिक संसाधन का उपयोग करते हैं. जबकि कितने ही गरीब लोगो को दो जून की रोटी कपड़े, छत भी नसीब नहीं होते.
आपने सही कहा हम सबको अपनी इच्छा पर संयम रख कर तरह तरह के पकवान खाने, तरह तरह के पोशाक पहनने ,मनोरन्जन के लिए टी.वी. देखने, जैसी ख़ुशी का त्याग कर आत्मिक आनंद की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए.
पर आम लोग ऐसा करते नहीं. इसलिए दोषी हम सब ही हैं केवल अमीर लोग, पार्टी करने वाले लोग ही नहीं.
दोषी हम सब भी हैं. या योँ कहें ही है. किंतु जो ज्यादा संसाधनों का दुरपयोग करता है अधिक दोषी है.
हटाएंयहाँ तक कि यह सब कहने वाला मैँ भी अभितक अकिंचन भाव को स्पर्श तक नहीं कर पाया हूँ बस जानता मानता हूँ कि यह सब श्रेष्ठ सदाचरण है. आम लोग कठिन आत्मिक आनंद को अंगीकार नहीं कर पाते,और सहज भी नहीं. किंतु ऐसे विचारों को प्रसारित करने का एक ही उद्देश्य है, लोगों के मन में सदाचरण के प्रति सुक्ष्म ही सही, आदर व अहोभाव बचा रहे.
आपका आभारी हूँ आपने स्पष्टिकरण का अवसर प्रदान किया. आपकी भावनाओं की कदर करते हुए.... आभार!! :)
आपके इस तरह के विचारों को प्रसारित करने का प्रयास स्तुत्य है...आभार .
हटाएं@किंतु जो ज्यादा संसाधनों का दुरपयोग करता है अधिक दोषी है.
पूरी दृढ़ता के साथ कैसे कहा जाए कि अगर आम जनता के पास भी बहुत अधिक संसाधन होते तो वो उनका सिर्फ सदुपयोग ही करती.
आपकी बहस-अरूचि जान मैँ समेटने में लगा था.... :)
हटाएंकिंतु......
:)
एक तो 'आम जनता' उपर से 'अधिक संसाधन'? बात नहीं बनती. वस्तुतः आम जन में बहुसंख्या मध्यम वर्ग की होती है. पहली बात तो उसे 'अधिक' उपलब्ध ही नहीं होता, दूसरे उसके लिए संतोष गुण अपनाना अधिक सरल होता है.तीसरे यह वर्ग अनुपयोगी वस्तुओं के भी पुनः उपयोग में कुशल होता है.
अभावी और संघर्षशील दोनो चाह कर भी संसाधनों का दुरपयोग नहीं कर पाते. यह सामान्य कथन है. बाकि विरले तो कहीं भी निकल आते है.
'अधिक संसाधन'मिल जाने के बाद जनता, अभावी,संघर्षशील कहाँ रह जाती??
हटाएंजिनलोगो पर भी संसाधन के दुरूपयोग का आरोप लगता है.वे भी कभी अभावग्रस्त ही थे. नीचे से ही ऊपर गए हैं . इसलिए बहुत मिल जाने के बाद कोई संयम रख पाए तो वो बड़ी बात है.
और मैं यहाँ कहना चाह रही थी कि अगर कोई अपने जीवन में मौज मस्ती करता है...पार्टी करता है. तो इसका अर्थ ये नहीं कि वह बारहों महीने , चौबीसों घंटे पार्टी ही करता है. क्यूंकि तब तो धन उसके पास भी नहीं बचेगा.
मौज-मस्ती , पार्टी करने के लिए उसे धन कमाना भी पड़ता है. पर अक्सर अमीरों की मेहनत, त्याग, बलिदान हम नहीं देख पाते . उनकी मौज मस्ती की तरफ ही हमारा ध्यान जाता है (यहाँ नेताओं और मंत्रियों की बात नहीं कर रही, वे तो सिर्फ जनता के पैसे का दुरूपयोग ही करते हैं )
@ अधिक संसाधन'मिल जाने के बाद जनता, अभावी,संघर्षशील कहाँ रह जाती??
हटाएंअधिक संसाधन'मिल जाने के बाद वह 'जनता' न आम रह पाती है न गरीब!! फिर वह संघर्षरत कैटेगरी से निकल जाती है. हाँ, अमीर बन जाने के बाद अक्सर संतोष किनारे हो जाता है और तृष्णा तीव्रतम. अन्यथा क्या कारण है कि सभी आवश्यकता और जरूरी इछाएँ पूर्ण हो जाने के उपरांत भी धनी उपर,उससे उपर की तृष्णा में लगा रहता है?
धन कमाना महनत तो हो सकती है पर त्याग या बलिदान नहीं!! और धन कमाया है मात्र इसलिए संसाधनो के दुरपयोग का हक नहीं मिल जाता. यदि कोई आवश्यक धन उपार्जित करने के बाद भी और कमाने के लिए अथाग श्रम करता है तो वह वो श्रम अपने अहंकार व तृष्णाओं के पोषण के लिए करता है,समाज के लिए नहीं. और त्याग? बलिदान? क्या आप उस त्याग की बात कर रही है जो वह भोजन पानी का त्याग कर दौड में लगा रहता है व उस बलिदान की बात कर रही है जो वह अपने पारिवारिक समय का बलिदान करता है? तो इन त्याग बलिदान का समाज के लिए या योगदान?
हाँ,उनकी बात निराली जो अपनी आवश्यकता से अधिक उपार्जित धन को दान सहायता द्वारा समाज कल्याण में लगाते है.लेकिन बात वापस, घुम फिर कर वहीं आती है कि वे अतिरिक्त संसाधनो का दुरपयोग नहीं करते.
सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंआभार
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार2/4/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार जी, आपको.....
हटाएंसंतुलन ज़रूरी है जीवन में चाहे जैसे भी जिया जाय ..... वैसे आत्मिक सुख सबसे बड़ा है ....
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी 'भौतिक आनंद " और "आत्मिक आनंद का जो व्याख्या आपने रश्मि जी के प्रश्न के उत्तर में दिया है , उस से मैं भी सहमत हूँ लेकिन एक बात यह जोड़ना चाहूँगा- आज कल " भौतिक आनंद" के मूल में हैं अहम् की तुस्टी.( चाहे खान पान हो, दिखावा हो ,शक्ति का प्रदर्शन हो या कोई और) इसके बिपरीत आत्मिक आनंद में निर्लिप्त होकर बिना किसी प्रकार के अपेक्षा के औरों की हित किया जाता है.इसमें आत्मा की शांति का ध्यान रखा जाता है
जवाब देंहटाएंlatest post कोल्हू के बैल
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अनुभव सत्य बलात दिखाये,
जवाब देंहटाएंपथ वंचित को पथ बतलाये।
मैंने तो ये देखा है सुज्ञ जी कि यहाँ नास्तिक ज्यादा आस्तिक हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है सुज्ञ जी आपने. पूर्णतः सहमत हूँ. आदमी के लिए सबसे मुश्किल काम त्याग है.
जवाब देंहटाएंआत्मिक आनंद सर्वोपरि होना चाहिए और यह तभी संभव है जब भौतिक सुख सुविधाएँ प्राप्त करने का जरिया छल कपट ना हो वर्ना तो माया मिले न राम !
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट !
सचमुच आत्मिक आनंद संतोष से ही अर्जित किया जा सकता है।
जवाब देंहटाएंसार्थकता को दर्शाती सशक्त प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंमनुष्य (भारत के संदर्भ में) वास्तव में अपनी ही स्वार्थ लिप्सा में इतना मशगूल है कि और किसी चीज की चिंता ही नहीं करता। ज़िंदगी मिले दुबारा या न मिले लेकिन अन्य लोगों का ध्यान तो रखना ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंपते की बात काही है बंधु, ऐसी सोच हो तो कोई समस्या ही न हो!
हटाएंआप सच में बहुत अच्छा लिखते हैं ।
जवाब देंहटाएंअगला जन्म हो या न हो. इश्वर हो या न हो . लेकिन संयमित और संतुलित जीवन जीने में क बुराई क्या है ? दोनों ही स्थितियों में जीवन में रास्ता चुना जाय जो स्व के साथ समाज के लिए भी हितकारी हो तो कितना अच्छा हो न ?
निजी तौर पर मुझे लगता है कि पुनर्जन्म होता है, लेकिन उस तरह नहीं जैसा अक्सर लोग कहते हैं ।लेकिन समझाना बड़ा कठिन है ।और वैसे भी आवश्यकता भी क्या है इसे समझाने की ? :)
आभार इस चिंतन के लिए ।