मिथिला नरेश नमि दाह-ज्वर से पीड़ित थे। उन्हें भारी कष्ट था। भांति-भांति के उपचार किये जा रहे थे। रानियॉँ अपने हाथों से बावना चंदन घिस-घिस कर लेप तैयार कर रही थीं।
जब मन किसी पीड़ा से संतप्त होता है तो व्यक्ति को कुछ भी नहीं सुहाता। एक दिन रानियां चंदन घिस रही थीं। इससे उनके हाथों के कंगन झंकृत हो रहे थे। उनकी ध्वनि बड़ी मधुर थी, किंतु राजा का कष्ट इतना बढ़ा हुआ था कि वह मधुर ध्वनि भी उन्हें अखर रही थी। उन्होंने पूछा, "यह कर्कश ध्वनि कहां से आ रही है?"
मंत्री ने जवाब दिया, "राजन, रानियॉँ चंदन विलेपन कर रही हैं। हाथों के हिलने से कंगन आपस में टकरा रहे हैं।"
रानियों ने राजा की भावना समझकर कंगन उतार दिये। मात्र, एक-एक रहने दिया।
जब आवाज बंद हो गई तो थोड़ी देर बाद राजा ने शंकित होकर पूछा, "क्या चंदन विलेपन बंद कर दिया गया है?"
मंत्री ने कहा, "नहीं महाराज, आपकी इच्छानुसार रानियों ने अपने हाथों से कंगनों को उतार दिया है। सौभाग्य के चिन्ह के रुप में एक-एक कंगन रहने दिया है। राजन, आप चिन्ता मत कीजिये, लेपन बराबर किया जा रहा है।"
इतना सुनकर अचानक राजा को बोध हुआ, "ओह, मैं कितने अज्ञान में जी रहा हूं। जहॉँ दो हैं, वहीं संघर्ष है, वहीं पीड़ा है। मैं इस द्वन्द्व में क्यों जीता रहा हूं? जीवन में यह अशांति और मन की यह भ्रांति, आत्मा के एकत्व की साधना से हटकर, पर में, दूसरे से लगाव-जुडाव के कारण ही है।"
राजा का ज्ञान-सूर्य उदित हो गया। उसने सोचा-दाह-ज्वर के उपशांत होते ही चेतना की एकत्व साधना के लिए मैं प्रयाण कर जाऊंगा।
इसके बाद अपनी भोग-शक्ति को योग-साधना में रुपान्तरित करने के लिए राजा, नये मार्ग पर चल पड़ा।
जब मन किसी पीड़ा से संतप्त होता है तो व्यक्ति को कुछ भी नहीं सुहाता। एक दिन रानियां चंदन घिस रही थीं। इससे उनके हाथों के कंगन झंकृत हो रहे थे। उनकी ध्वनि बड़ी मधुर थी, किंतु राजा का कष्ट इतना बढ़ा हुआ था कि वह मधुर ध्वनि भी उन्हें अखर रही थी। उन्होंने पूछा, "यह कर्कश ध्वनि कहां से आ रही है?"
मंत्री ने जवाब दिया, "राजन, रानियॉँ चंदन विलेपन कर रही हैं। हाथों के हिलने से कंगन आपस में टकरा रहे हैं।"
रानियों ने राजा की भावना समझकर कंगन उतार दिये। मात्र, एक-एक रहने दिया।
जब आवाज बंद हो गई तो थोड़ी देर बाद राजा ने शंकित होकर पूछा, "क्या चंदन विलेपन बंद कर दिया गया है?"
मंत्री ने कहा, "नहीं महाराज, आपकी इच्छानुसार रानियों ने अपने हाथों से कंगनों को उतार दिया है। सौभाग्य के चिन्ह के रुप में एक-एक कंगन रहने दिया है। राजन, आप चिन्ता मत कीजिये, लेपन बराबर किया जा रहा है।"
इतना सुनकर अचानक राजा को बोध हुआ, "ओह, मैं कितने अज्ञान में जी रहा हूं। जहॉँ दो हैं, वहीं संघर्ष है, वहीं पीड़ा है। मैं इस द्वन्द्व में क्यों जीता रहा हूं? जीवन में यह अशांति और मन की यह भ्रांति, आत्मा के एकत्व की साधना से हटकर, पर में, दूसरे से लगाव-जुडाव के कारण ही है।"
राजा का ज्ञान-सूर्य उदित हो गया। उसने सोचा-दाह-ज्वर के उपशांत होते ही चेतना की एकत्व साधना के लिए मैं प्रयाण कर जाऊंगा।
इसके बाद अपनी भोग-शक्ति को योग-साधना में रुपान्तरित करने के लिए राजा, नये मार्ग पर चल पड़ा।
सही बोध ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
बहुत सुंदर कथा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अच्छी कहानी .शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंlatest post हमारे नेताजी
latest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं ...
जवाब देंहटाएंसुंदर बोधकथा ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कथा ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कथा .
जवाब देंहटाएंएक से अनेक होने की प्रक्रिया में यह संघर्ष तो होता ही है।
जवाब देंहटाएंशिवम मिश्रा जी, आभार संयोजित करने के लिए…
जवाब देंहटाएंसुंदर कथा।
जवाब देंहटाएंसुन्दर बोध कथा। आभार।।
जवाब देंहटाएंनये लेख : ब्लॉग से कमाई का एक बढ़िया साधन : AdsOpedia
ग्राहम बेल की आवाज़ और कुदरत के कानून से इंसाफ।
मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते
जवाब देंहटाएंतन धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते..
सुंदर प्रस्तुति।।।
सच्चे ज्ञान का बोध सही समय पर हो जाये तो कितना बेहतर हो.
जवाब देंहटाएंराजा का जीवन धन्य हुआ.
अच्छी कथा.
आपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर "ब्लॉग - चिठ्ठा" में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंवाह। सुन्दर बात कही।
जवाब देंहटाएंएक और बात पर ध्यान जाता है मेरा।
दो के घर्षण से उठती ध्वनि थी तो मधुर किन्तु राजा की अपनी अस्वस्थता के चलते कर्कश प्रतीत हो रही थी।
द्वैत में भी मिठास है। भक्ति का सुख तभी है जब द्वैत है। अपनी भक्ति तो नही ही होगी न?
:)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 21 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!