एक संन्यासी एक राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। संन्यासी कुछ दिन वहीं रूक गया। राजा ने उससे कई विषयों पर चर्चा की और अपनी जिज्ञासा सामने रखी। संन्यासी ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा। राजा ने एक पल सोचा और कहा, "जो कुछ भी खजाने में है, आप ले सकते हैं।" संन्यासी ने उत्तर दिया, "लेकिन खजाना तुम्हारी संपत्ति नहीं है, वह तो राज्य का है और तुम मात्र उसके संरक्षक हो।" राजा बोले, "महल ले लीजिए।" इस पर संन्यासी ने कहा, "यह भी तो प्रजा का है।"
राजा ने हथियार डालते हुए कहा, "तो महाराज आप ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा हो और आपको देने लायक हो?" संन्यासी ने उत्तर दिया, "हे राजा, यदि तुम सच में मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहं दे दो। अहंकार पराजय का द्वार है। यह यश का नाश करता है। अहंकार का फल क्रोध है। अहंकार में व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-संपन्न देखता है, ईर्ष्या कर बैठता है। हम अपनी कल्पना में पूरे संसार से अलग हो जाते हैं।
"ॠजुता, मृदुता और सहिष्णुता हमें यह विचार देती है कि हम पूर्ण स्वतंत्र एक द्वीप की भांति हैं। हम न किसी से अलग हैं और न स्वतंत्र। यहां सभी एक-दूसरे पर निर्भर रहते हुए, सह-अस्तित्व और सहभागिता में जीते हैं।"
राजा संन्यासी का आशय समझ गए और उसने वचन दिया कि वह अपने भीतर से अहंकार को निकाल कर रहेगा।
अभिमान वश मनुष्य स्वयं को बडा व दूसरे को तुच्छ समझता है। अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों के गुणों को सहन नहीं करता और उनकी अवहेलना करता है। किंतु दुर्भाग्य से अभिमान कभी भी स्वाभिमान को टिकने नहीं देता, जहां कहीं भी उसका अहंकार सहलाया जाता है, गिरकर उसी व्यक्ति की गुलामी में आसक्त हो जाता है। अहंकार वृति से यश पाने की चाह, मृगतृष्णा ही साबित होती है। अभिमान के प्रयोग से मनुष्य ऊँचा बनने का प्रयास तो करता है किंतु परिणाम सदैव नीचा बनने का ही आता है। निज बुद्धि का अभिमान ही, अन्यत्र ज्ञान की बातों को मस्तिष्क में प्रवेश करने नहीं देता।
अभिमानी व्यक्ति उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर, निरर्थक श्रम से अन्तत: कलह ही उत्पन्न करता हैं। ऐसे व्यक्ति को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचाने में आता है और तीव्र क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है।
समृद्धि का घमण्ड, ऐश्वर्य का घमण्ड, ज्ञान का घमण्ड उसी क्षेत्र के यश को नष्ट कर देता है.
अन्य सूत्र :-
दर्पोदय
ज्ञान का अभिमान
अहमकाना ज्ञान प्रदर्शन
दंभ व्यक्ति को मूढ़ बना देता है।
मानकषाय
राजा ने हथियार डालते हुए कहा, "तो महाराज आप ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा हो और आपको देने लायक हो?" संन्यासी ने उत्तर दिया, "हे राजा, यदि तुम सच में मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहं दे दो। अहंकार पराजय का द्वार है। यह यश का नाश करता है। अहंकार का फल क्रोध है। अहंकार में व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-संपन्न देखता है, ईर्ष्या कर बैठता है। हम अपनी कल्पना में पूरे संसार से अलग हो जाते हैं।
"ॠजुता, मृदुता और सहिष्णुता हमें यह विचार देती है कि हम पूर्ण स्वतंत्र एक द्वीप की भांति हैं। हम न किसी से अलग हैं और न स्वतंत्र। यहां सभी एक-दूसरे पर निर्भर रहते हुए, सह-अस्तित्व और सहभागिता में जीते हैं।"
राजा संन्यासी का आशय समझ गए और उसने वचन दिया कि वह अपने भीतर से अहंकार को निकाल कर रहेगा।
"जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है।" -क्षेमेन्द्र
अभिमान वश मनुष्य स्वयं को बडा व दूसरे को तुच्छ समझता है। अहंकार के कारण व्यक्ति दूसरों के गुणों को सहन नहीं करता और उनकी अवहेलना करता है। किंतु दुर्भाग्य से अभिमान कभी भी स्वाभिमान को टिकने नहीं देता, जहां कहीं भी उसका अहंकार सहलाया जाता है, गिरकर उसी व्यक्ति की गुलामी में आसक्त हो जाता है। अहंकार वृति से यश पाने की चाह, मृगतृष्णा ही साबित होती है। अभिमान के प्रयोग से मनुष्य ऊँचा बनने का प्रयास तो करता है किंतु परिणाम सदैव नीचा बनने का ही आता है। निज बुद्धि का अभिमान ही, अन्यत्र ज्ञान की बातों को मस्तिष्क में प्रवेश करने नहीं देता।
अभिमानी व्यक्ति उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर, निरर्थक श्रम से अन्तत: कलह ही उत्पन्न करता हैं। ऐसे व्यक्ति को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचाने में आता है और तीव्र क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है।
समृद्धि का घमण्ड, ऐश्वर्य का घमण्ड, ज्ञान का घमण्ड उसी क्षेत्र के यश को नष्ट कर देता है.
अन्य सूत्र :-
दर्पोदय
ज्ञान का अभिमान
अहमकाना ज्ञान प्रदर्शन
दंभ व्यक्ति को मूढ़ बना देता है।
मानकषाय
अच्छी कहानी !!
जवाब देंहटाएंपूरण जी, आभार!!
हटाएंसहमत हूँ आपसे ..
जवाब देंहटाएंअहंकारी विद्वानों का यश बहुत तेजी से क्षीण होता है , और इसमें चाटुकारों की भारी भूमिका भी होती है !
अहमक विद्वान को हमेंशा लगता है कि अहंकार से ही यश मिलता है, चाटुकार ही उसके निकट टिक पाते है. अहमक चाटुकारोँ से परे देख समझ ही नहीं पाता....
हटाएंआपने यथार्थ कहा, बहुत बहुत आभार
अहम् अहंकार में ना बदले !
जवाब देंहटाएंगहरी बात!
हटाएंसही कहा आपने, अहंकार ही अंधियारे गर्त में धकेलता है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बोध कथा के द्वारा अच्छे से समझाया है कि अहंकार मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है
जवाब देंहटाएंदिक्कत यह भी है कि यह अहंकार दबे पाँव आता है, और स्वाभिमान का इतना सुन्दर मुखौटा लगाए आता है, कि व्यक्ति स्वयं भी नहीं जान पाता कि "मुझमें अहंकार आ गया है"। इतने इतने विद्वान् लोगों को इस अहंकार की लपेट में आते देखती हूँ तो दुःख होता है।
जवाब देंहटाएंयदि कोई मित्र (सच्चा मित्र) इशारा करने का प्रयास करे कि यह अहंकार के आगमन की आहटें हैं - तो व्यक्ति उस मित्र को ही अपना "शत्रु" मान बैठता है - और उस शुभाकांक्षी से दूरी बना लेता है। इससे होता यह है कि सच्चा मित्र चाहते हुए भी अपने मित्र को इस जाल से निकाल नहीं पाता ।
यह ज्ञान को ढँक देता है और व्यक्ति का स्वयं अपने ऊपर से अधिकार, अपने आचार विचार और बोल चाल का भी बोध छीन लेता है।
क्या किया जाय ?
:(
अहं विकारों को और स्थायी कर देता है...सार्थक आलेख...
जवाब देंहटाएंआपकी यह रचना कल गुरुवार (04-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र जी, आभार!!
हटाएंprenaspad------bahut sundar ------dhanyabad
जवाब देंहटाएंज्ञान देती बहुत सुंदर बोध कथा,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें.
वाकई अंहकार जीवन को नरक बना देता है
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक कहानी
जीवन बचा हुआ है अभी---------
सबसे बड़ी बात तो यह है कि अहंकार इतनी मृदुता लेकर भी आता है कि केवल ज्ञानीजन ही पहचान पाते हैं.. जैसे इस राजा ने धन, महल, शस्त्र देने की बात की जो अहंकार का प्रतीक है कि मैं इनका स्वामी हूँ...
जवाब देंहटाएंसाधारणतः लोग अपनी प्रशंसा पर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि "मैं इस प्रशंसा के योग्य नहीं".. यह वक्तव्य भी एक सूक्ष्मतम अहंकार है, न कि विनम्रता... आप पलट कर उसी व्यक्ति से कहें कि "ऐसा मैंने शिष्टाचारवश कहा था जबकि मुझे पता है कि आप इस प्रशंसा के योग्य नहीं"... तब देखिये उस व्यक्ति की नम्रता...
बहुत दिनों बाद इस आलेख से पुनरागमना की चेष्टा कर रहा हूँ.. कठिनाइयों ने बाँध रखा है!!
वाह .. कितना आसां और सहज ही समझा दिया इस कहानी ने .... सच मिएँ इन्सान के पास कुछ नहीं होता अपना कहने को .. मोह, इच्छा, अहंकार ये ही असल चीजें हैं जिनको समझदारी से त्याग या ग्रहण करना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंयह वह भंवर है जो केवल दूसरों को दिखाता है शायद इसीलिए सत्संग का महत्व हे।
जवाब देंहटाएंसमृद्धि का घमण्ड, ऐश्वर्य का घमण्ड, ज्ञान का घमण्ड उसी क्षेत्र के यश को नष्ट कर देता है. विचारणीय !सुन्दर आभार "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 21 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!