गलत बात को भी बार-बार सुनने से कैसे भ्रम उत्पन्न होते हैं, इस पर यह रोचक कथा मननीय है।
एक सरल स्वभाव के ग्रामीण ने बाजार से एक बकरी खरीदी। उसने सोचा था कि इस पर खर्च तो कुछ होगा नहीं; पर मेरे छोटे बच्चों को पीने के लिए दूध मिलने लगेगा। इसी सोच में खुशी-खुशी वह बकरी को कंधे पर लिये घर जा रहा था। रास्ते में उसे तीन ठग मिल गये। उन्होंने उसे मूर्ख बनाकर बकरी हड़पने की योजना बनायी और उसके गाँव के रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े हो गये। जब पहले ठग को वह ग्रामीण मिला, तो ठग बोला - "भैया, इस कुतिया को क्यों पीठ पर उठाये ले जा रहे हो ?" ग्रामीण ने उसकी ओर उपेक्षा से देखकर कहा - "अपनी ऑंखों का इलाज करा लो। यह कुतिया नहीं, बकरी है। इसे मैंने आज ही बाजार से खरीदा है।" ठग हँसा और बोला - "मेरी ऑंखें तो ठीक हैं, पर गड़बड़ तुम्हारी ऑंखों में लगती है। खैर, मुझे क्या फर्क पड़ता है। तुम जानो और तुम्हारी कुतिया।"
ग्रामीण थोड़ी दूर और चला कि दूसरा ठग मिल गया। उसने भी यही बात कही - "क्यों भाई, कुतिया को कंधो पर लादकर क्यों अपनी हँसी करा रहे हो। इसे फेंक क्यों नहीं देते ?" अब ग्रामीण के मन में संदेह पैदा हो गया। उसने बकरी को कंधो से उतारा और उलट-पलटकर देखा। पर वह थी तो बकरी ही। इसलिए वह फिर अपने रास्ते पर चल पड़ा।
थोड़ी दूरी पर तीसरा ठग भी मिल गया। उसने बड़ी नम्रता से कहा - "भाई, आप शक्ल-सूरत और कपड़ों से तो भले आदमी लगते हैं; फिर कंधो पर कुतिया क्यों लिये जा रहे हैं ?" ग्रामीण को गुस्सा आ गया। वह बोला - "तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, जो इस बकरी को कुतिया बता रहे हो ?" ठग बोला - "तुम मुझे चाहे जो कहो; पर गाँव में जाने पर लोग जब हँसेंगे और तुम्हारा दिमाग खराब बतायेंगे, तो मुझे दोष मत देना।"
जब एक के बाद एक तीन लोगों ने लगातार एक जैसी ही बात कही, तो ग्रामीण को भरोसा हो गया कि उसे किसी ने मूर्ख बनाकर यह कुतिया दे दी है। उसने बकरी को वहीं फेंक दिया। ठग तो इसी प्रतीक्षा में थे। उन्होंने बकरी को उठाया और चलते बने।
यह कथा बताती है कि गलत तथ्यों को बार-बार व बढ़ा चढ़ाकर सुनने में आने से भल-भले विद्वान भी भ्रम में पड़ जाते है।
निसंदेह अपनी कमियों का अवलोकन करना और उन्हें दूर करने के प्रयास करना विकास में सहायक है। किन्तु बार बार उन्ही कमियों की स्मृति में ही डूबे रहना, उन्हें विकराल स्वरूप में पेश करना,समझना और उसी में शोक संतप्त रहना, आशाविहिन अवसाद में जांना है। शोक कितना भी हृदय विदारक हो, आखिर उससे उबरने में ही जीवन की भलाई है। समस्याएं चिंताए कितनी भी दूभर हो, गांठ बांधने, बार बार याद करने से कुछ भी हासिल नहीं होना है। उलट कमियों का निरंतर चिंतन हमें नकारात्मकता के गर्त में गिराता है, सुधार व समाधान तो सकारात्मकता भरी सोच में है, बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेहि!!
भारतीय संस्कृति को आईना बहुत दिखाया जाता है। कुछ तो सूरत सीरत पहले से ही सुदर्शन नहीं थी, उपर से जो भी आया आईना दिखा गया। पहले पहल पाश्चात्य विद्वानों ने वो आईना दिखाया, हमें अपना ही प्रतिबिंब विकृत नजर आया। बाद में पता चला कि वह आईना ही बेडोल था, अच्छा खासा चहरा भी उसमें विकृत नजर आता था, उपर से बिंब के नाक-नक्स की व्याख्या! कोढ़ में खाज की भाषा!! अब उन्ही की शिक्षा के प्रमाण-पत्र में उपहार स्वरूप वही 'बेडोल आईना' हमारे अपनों ने पाया है। अब हमारे स्वजन ही उसे लिए घुमते है, सच बताने को अधीर !! परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है कुतिया उठाए घुमने की हीनता ग्रंथी, बेईमान व्याख्या का ग्लानीबोध!! इस प्रकार सकारात्मक सम्भावनाएं क्षीण होती चली जाती है।
यह कथाएँ भी देखें :
सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव
अस्थिर आस्थाओं के ठग
बुराई और भलाई
सीख के उपहार
एक सरल स्वभाव के ग्रामीण ने बाजार से एक बकरी खरीदी। उसने सोचा था कि इस पर खर्च तो कुछ होगा नहीं; पर मेरे छोटे बच्चों को पीने के लिए दूध मिलने लगेगा। इसी सोच में खुशी-खुशी वह बकरी को कंधे पर लिये घर जा रहा था। रास्ते में उसे तीन ठग मिल गये। उन्होंने उसे मूर्ख बनाकर बकरी हड़पने की योजना बनायी और उसके गाँव के रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े हो गये। जब पहले ठग को वह ग्रामीण मिला, तो ठग बोला - "भैया, इस कुतिया को क्यों पीठ पर उठाये ले जा रहे हो ?" ग्रामीण ने उसकी ओर उपेक्षा से देखकर कहा - "अपनी ऑंखों का इलाज करा लो। यह कुतिया नहीं, बकरी है। इसे मैंने आज ही बाजार से खरीदा है।" ठग हँसा और बोला - "मेरी ऑंखें तो ठीक हैं, पर गड़बड़ तुम्हारी ऑंखों में लगती है। खैर, मुझे क्या फर्क पड़ता है। तुम जानो और तुम्हारी कुतिया।"
ग्रामीण थोड़ी दूर और चला कि दूसरा ठग मिल गया। उसने भी यही बात कही - "क्यों भाई, कुतिया को कंधो पर लादकर क्यों अपनी हँसी करा रहे हो। इसे फेंक क्यों नहीं देते ?" अब ग्रामीण के मन में संदेह पैदा हो गया। उसने बकरी को कंधो से उतारा और उलट-पलटकर देखा। पर वह थी तो बकरी ही। इसलिए वह फिर अपने रास्ते पर चल पड़ा।
थोड़ी दूरी पर तीसरा ठग भी मिल गया। उसने बड़ी नम्रता से कहा - "भाई, आप शक्ल-सूरत और कपड़ों से तो भले आदमी लगते हैं; फिर कंधो पर कुतिया क्यों लिये जा रहे हैं ?" ग्रामीण को गुस्सा आ गया। वह बोला - "तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, जो इस बकरी को कुतिया बता रहे हो ?" ठग बोला - "तुम मुझे चाहे जो कहो; पर गाँव में जाने पर लोग जब हँसेंगे और तुम्हारा दिमाग खराब बतायेंगे, तो मुझे दोष मत देना।"
जब एक के बाद एक तीन लोगों ने लगातार एक जैसी ही बात कही, तो ग्रामीण को भरोसा हो गया कि उसे किसी ने मूर्ख बनाकर यह कुतिया दे दी है। उसने बकरी को वहीं फेंक दिया। ठग तो इसी प्रतीक्षा में थे। उन्होंने बकरी को उठाया और चलते बने।
यह कथा बताती है कि गलत तथ्यों को बार-बार व बढ़ा चढ़ाकर सुनने में आने से भल-भले विद्वान भी भ्रम में पड़ जाते है।
निसंदेह अपनी कमियों का अवलोकन करना और उन्हें दूर करने के प्रयास करना विकास में सहायक है। किन्तु बार बार उन्ही कमियों की स्मृति में ही डूबे रहना, उन्हें विकराल स्वरूप में पेश करना,समझना और उसी में शोक संतप्त रहना, आशाविहिन अवसाद में जांना है। शोक कितना भी हृदय विदारक हो, आखिर उससे उबरने में ही जीवन की भलाई है। समस्याएं चिंताए कितनी भी दूभर हो, गांठ बांधने, बार बार याद करने से कुछ भी हासिल नहीं होना है। उलट कमियों का निरंतर चिंतन हमें नकारात्मकता के गर्त में गिराता है, सुधार व समाधान तो सकारात्मकता भरी सोच में है, बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेहि!!
भारतीय संस्कृति को आईना बहुत दिखाया जाता है। कुछ तो सूरत सीरत पहले से ही सुदर्शन नहीं थी, उपर से जो भी आया आईना दिखा गया। पहले पहल पाश्चात्य विद्वानों ने वो आईना दिखाया, हमें अपना ही प्रतिबिंब विकृत नजर आया। बाद में पता चला कि वह आईना ही बेडोल था, अच्छा खासा चहरा भी उसमें विकृत नजर आता था, उपर से बिंब के नाक-नक्स की व्याख्या! कोढ़ में खाज की भाषा!! अब उन्ही की शिक्षा के प्रमाण-पत्र में उपहार स्वरूप वही 'बेडोल आईना' हमारे अपनों ने पाया है। अब हमारे स्वजन ही उसे लिए घुमते है, सच बताने को अधीर !! परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है कुतिया उठाए घुमने की हीनता ग्रंथी, बेईमान व्याख्या का ग्लानीबोध!! इस प्रकार सकारात्मक सम्भावनाएं क्षीण होती चली जाती है।
यह कथाएँ भी देखें :
सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव
अस्थिर आस्थाओं के ठग
बुराई और भलाई
सीख के उपहार
सुधार व समाधान तो सकारात्मकता भरी सोच में है, बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेहि!!
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच कहा आपने ...
अनुपम प्रस्तुति
सार सार को गेहि रहे,थोथा देय उडाय....सूप का यह सुलक्षण है लेकिन सूप धारक जब थोथा का ही प्रदर्शन करता है और सार को व्यर्थ फैक देता है तो वही सुलक्षण, कुलक्षण में रूपांतरित हो जाता है.
हटाएंआभार आपका!!!
बात तो सही है ।
जवाब देंहटाएं:)
भेड़ की खाल में भेडिये तो सब ने सुना हुआ है - यह कहानी नहीं । यही दुसरे वेर्शन में सुनी ब्राह्मन को यज्ञ कराने पर बकरी मिली थी और तीन ठगों ने उसे बारी बारी अलग अलग बताया तो उसे लगा कोई भूत आदि है और फेंक गया ।यह वेर्शन आज पहली बार सुना ।
आइना देखने को तो हम देख लें, शक्ल खराब हो तो भी मान लें ।लेकिन सिर्फ शक्ल खराब कहने के आगे के उपाय भी तो करें न शक्ल दिखने वाले ?
कोई कुरूप हो , चेचक के दाग हों, तो भी क्या उसे यह कहते रहना ही समस्या का समाधान है ? किसी का पैर न हो - तो लंगड़ा कहते रहना समाधान है ? इलाज के प्रयास क्यों नही करते हैं ये खामियां दिखाने को उत्सुक लोग ?
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और एक बात जिस से मैं तनिक भी सहमत नहीं हूँ - मैं घूस न दूं तो घूस प्रथा ख़त्म हो जायेगी ।
तब तो न दहेज़ के लिए कानूनों की आवश्यकता है, न बलात्कार के लिए स्ट्रगल करने की ????
दामिनी के केस में स्ट्रगल करने वाले, अन्न के साथ आन्दोलन करने वाले मूर्ख थे ? दामिन के लिए खड़े भाई न खड़े ?होते कह देते न - मैं तो बलात्कार अनहि करता - यह मेरा योगदान है इस समस्या को ख़त्म करने के लिए ?
समस्या दिखाना ही वे अपना पेशा अपना कर्तव्य समझते है ठीक उस तरह जैसे कोई पत्रकार दुर्घटना मेँ घायल के तडपने की फिल्म बनाने में ही लगा रहता है, उसको तत्काल स्वास्थ्य सुविधा पहूँचाना उसके कर्तव्य में नहीँ आता.
हटाएंतथ्यों को बार-बार गलत कहने से सच भी झूठ लगने लगता है,जैसे कि भ्रम में पड़कर बकरी कुतिया नजर आने लगी !!!
जवाब देंहटाएंRECENT POST: जुल्म
'सोच का अपहरण' ही कह सकते है.
हटाएंआभार!!
कहानी तो पहले सुन चुके थे पर आपने इस पर अपनी जो राय रखी है वह अत्यंत सराहनीय है। मनुष्य अगर मन में भी कोई भाव बार-बार लेकर आ रहा है तो उसका असर उसकी मानसिकता पर पढता है। अपना ही कोई जब अपने बारे में गलतफहमियां फैलाने लगे तो लोगों को स्पष्टीकरण देते देते मुश्किल होती है। सुंदर लेख।
जवाब देंहटाएंdrvtshinde.blogspot.com
सही कहा आपने...."मनुष्य अगर मन में भी कोई भाव बार-बार लेकर आ रहा है तो उसका असर उसकी मानसिकता पर पढता है।"
हटाएंवस्तुतः मानस इसी तरह हताश होता है, आत्मश्रद्धाएँ बिखर जाती है और पुनः गौरव युक्त कर्म का साहस ही समाप्त हो जाता है.
काश बकरी का मालिक टिप्पणी के स्वरुप के साथ टिप्पणी का उद्देश्य भी देख पाता ...
जवाब देंहटाएंटिप्पणी का उद्देश्य ठगी है यह बकरी का मालिक को पहले ज्ञात हो जाय तो ठग अपने प्रयोजन में सफल ही न हो...
हटाएंभ्रम तो ज़रूर होता है पर अपनी बुद्धि का भी प्रयोग ज़रूरी है ...
जवाब देंहटाएंरसरी आवत जात के सील पर परत निसान!!भ्रम विवेक को सुला देता है और बुद्धि को भ्रमित कर देता है.
हटाएंआपका आभार!!
जवाब देंहटाएंकहानी तो पुरानी है परन्तु जिस परिप्रेक्ष में आपने प्रस्तुत किया, यह सराहनीय है .हमारे आत्म विश्वास कम होते जा रहा है
LATEST POST सुहाने सपने
my post कोल्हू के बैल
आत्म विश्वास कम होते जाना और हीनता बोध का जडेँ जमाना सहज सामान्य होते जाता है.
हटाएंबहुत बहुत आभार!! कालिपद जी
सुन्दर आलेख सुज्ञ जी. पढ़कर बहुत अच्छा लगा. बिलकुल सहमत हूँ कि दुःख कितना भी ज्यादा क्यों ना हूँ, ताउम्र उसपर मातम कर आप खुद को गंवाने से ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकते.
जवाब देंहटाएंदुःख का ताउम्र मातम, रोज रूदालियोँ के रूदन में जीवन व्यतीत करने जैसा ही है.
हटाएंआपका आभार!!
ऐसी स्थिति में हमारी अपनी सोच समझ ही काम दे सकती है |
जवाब देंहटाएंभ्रम स्थितप्रज्ञ बना देता है, सोच कुँद हो जाती है.
हटाएंबुद्धि का भी प्रयोग ज़रूरी है ...
जवाब देंहटाएंjai baba banaras...
सही है लेकिन निरंतर चोटें लोहे का स्वरूप बदलने में भी समर्थ हो जाती है.
हटाएंjai baba....
कमियों का निरंतर चिंतन गर्त में ले जाता है , सच है सकारात्मक बिन्दुओं पर भी ध्यान देना चाहिए!
जवाब देंहटाएंमनन करने योग्य विचार !
भले सारा सकारात्मक न दिखाया जाय, लेकिन जो दिखाया जाय वह नकारात्मक का भँडार ही तो ना हो, सच है इसलिए भी दिखाना चाहते हो तब भी अच्छा बुरा जिस रेश्यो में है उसी रेश्यो में दोनो को दिखाओ. यह भी क्या बात हुई कि छाँट छाँट कर मात्र बुराईयोँ को ही दिखाया जाय, काले पक्ष को इतना बढा चढा दिया जाय कि उसकी प्रगाढता में सफेद लाख प्रयासों के बाद भी कभी नजर ही न आए.
हटाएंसादर आभार!!
विवेकशील सोच ही ठगने से हमे बचा सकती है ।
जवाब देंहटाएंबात आपकी सही है, विवेक के प्रति सजग रहना बहुत कठिन होता है.
हटाएंआपका आभार जी
अपने कमियों के चिंतन छोड़ उसे सुधरने का यत्न करनी चाहिये.बेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंकमियों का सतत चिंतन ना छूटे तो आत्मग्लानी का सवार होना निश्चित है. आत्मगर्व की प्रेरणा ही सकारात्मक ध्येय प्रदान कर सकती है.
हटाएंविवेक का प्रयोग इसीलिये आवश्यक है.
जवाब देंहटाएंजी, सही कहा, और विवेक टिकाए रखने के लिए सात्विक सकारात्मक धरातल होना आवश्यक है.
हटाएंनिसंदेह सुधार के लिए अपने अपने स्तर पर प्रण लेना समाधान का मार्ग बना सकता है.किंतु प्रण भी तभी टिकते है जब प्रण धारण करने वाला पात्र शुभचिंतन के प्रति सुनियोजित और सुदृढ हो. सार्थक चिंतन, सात्विक विचार और अनुकम्पा भाव उस पात्र को धारण करने व निभाने योग्य अनुकूलता और सामर्थ्य प्रदान करता है.
जवाब देंहटाएंऔर ऐसे पुरूषार्थ करने के लिए आत्मबल का मजबूत होना बेहद जरूरी है. हताश निर्बल मनोबल साहस नहीं करता अतः सर्वप्रथम मनोबल को गिरने से बचाना भी जरूरी है.
अपनी गलतियोँ का रोना रोते रहना, कुरेद कुरेद कर अपनी असफलताओँ को याद करना, त्रृटियों की सूची ही अपडेट करते रहना, तिल को ताड का स्वरूप देना और दिलो-दिमाग पर राई का भी पहाड सम भार धरे रहना, मनो-मस्तिक्ष को कमियों कमजोरियोँ के सतत संदेश देना, मनोबल पतन के पर्याप्त कारण है.
सत्य के नाम पर अपवाद व अंधेरे पक्ष को अतिशय उभार कर दर्शाने से,आत्मग्लानी का प्रसार भी सामूहिकता में होता है,और मनोबल भी सामूहिक धराशायी होते है. अच्छाई का मार्ग उँचाई का होता है और चढाई मेँ श्रम व पुरूषार्थ लगता है जबकि बुराई का मार्ग ढलान वाला होता है और फिसलते न श्रम लगता है न समय. जैसे कपडा सहज संयोगो से फट तो सकता है लेकिन सांयोगिक सहज ही सिल नहीं जात,सिलने के लिए विशेष श्रम की आवश्यकता होती है.
नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!
सुंदर और प्रेरक बोधकथा है आदरणीय सुज्ञ जी !
बचपन में पढ़ी-सुनी हुई है...
सही कहा आपने -कमियों की स्मृति में ही डूबे रहना, उन्हें विकराल स्वरूप में पेश करना, समझना और उसी में शोक संतप्त रहना, आशाविहीन अवसाद में जांना है।
शोक कितना भी हृदय विदारक हो, आखिर उससे उबरने में ही जीवन की भलाई है।
श्रेष्ठ पोस्ट के लिए आभार !
आपको सपरिवार नव संवत्सर की बहुत बहुत बधाई !
हार्दिक शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार राजेंद्र जी
हटाएंनव संवत्सर की बधाई ! और मंगलकामनाएं!!!
ऐसी नीति-कथाएं वस्तुतः कालजयी हैं..!! आपने तो इसे और भी सामयिक बना दिया!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही आभार सलिल जी,आप जैसे स्नेहीजन के सत्संग का प्रभाव है.
हटाएंबहुत सुन्दर रोचक प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंमुझे तो ठगों का कहानी पढने में बड़ा मजा आता है .. शुक्रिया ...
बहुत आभार आपका!!
हटाएंतो यह ठग कथा भी देखिए………
अस्थिर आस्थाओं के ठग
सुंदर कथा का सुंदर प्रयोग।
जवाब देंहटाएंकभी-कभी मामला उलट भी होता है। अहंकारी व्यक्ति इसी कथा को सुनाकर अपनी गलत बात को सही और दूसरों की सही बात को भी गलत कह सकता है। समझदारी इसी में है कि सिक्के के दोनो पहलुओं की खूब जांच पड़ताल कर ली जाय।
आभार देवेन्द्र जी,
हटाएंआपने सही कहा, धूर्तता हमेशा ही आभासी सत्य, मनभावन व प्रलोभन के स्वरूप में ही आती है। नीर क्षीर विवेक, तथ्य विश्लेषण बुद्धि और दृष्टिकोण सतर्कता ही यथार्थ पर पहूँचाती है।