1- जब भी ऐसी कोई घटना प्रकाश में आती है, संस्कार व संस्कृति को सप्रयोजन भांडना शुरू हो जाता है. लेकिन संस्कार व संस्कृति को बार बार दुत्कारने के फलस्वरूप, लोगों में दुनिया व समाज की परवाह न करने का भाव जड जमाता है. अनुशासन विहिन भाव को स्वछंदता का खुला मैदान मिल जाता है. ऐसे में मनोविकारी अपनी कामकुंठा को बेहिचक अभिव्यक्त करने का दुस्साहस करता है. मनोविकारी को अवसर देने के लिए जिम्मेदार कौन है? हम ही न?
2- फिल्म, टीवी आदि मीडिया, ऐसी क्रूर काम-घटनाओं के समाचार द्वारा 'काम' और 'दुख' दोनो को बेचता है. साथ ही बिकने के लिए प्रस्तुति को और भी वीभत्स रूप देता है. मीडिया व विज्ञापन प्रतिदिन, निसंकोच और बेपरवाह होकर, कामविकारों को सहजता से प्रस्तुत करते है. परिणाम स्वरूप कामतृष्णा और कामविकारों को सहज सामान्य मनवा लिया जाता है. संयम को दमित कुंठा और उछ्रंखलता को प्राकृतिक चित्रित किया जाता है. इस प्रकार मनोविकार आम चलन में आते है उपर से तुर्रा यह कि यौनाचारों को उपेक्षित रखे, बच कर रहे तो हौवा, टैबू आदि न जाने क्या क्या कहकर, समाज को अविकसित करार दिया जाता है. कहिए कौन है जिम्मेदार?
3- नैतिक शिक्षा तो जैसे बाबाओ के प्रवचन समान परिहास का ही विषय बन गया है. और हम सुधरे हुए लोगों ने नैतिक शिक्षा और आदर्श चरित्र पालन को मजाक बनाने में अपना भरपूर योगदान किया है. आज नैतिक समतावान, सरल और चरित्र प्रतिबद्ध लोग तो किसी फिल्म के कॉमेडी करेक्टर बन कर रह गए है.
4- घर के संस्कार कितने भी दुरस्त रखें जाय, बाहरी रहन सहन , वातावरण के संयोग से विकारों का आना अवश्यंभावी है. शिक्षितों का उछ्रंखल व्यवहार, अशिक्षितों को भी छद्म आधुनिक दिखने को प्रेरित करता है.
5- इंटरनेट पर पसरी वीभत्स अश्लीलता ने विक्षिप्तता की सीमा पार कर ली है. उन पर आते वीभत्स कामाचार के प्रयोग, रोज रोज पुराने पडते जाते है. खून में उबाल और आवेगों को बढाने के लिए विकार के तीव्र से तीव्रतम प्रयोग होते जाते है, और क्रूर और दुर्दांत. यह पोर्न साईटें, निरंतर और भी हिंसक, दर्दनाक, पीडाकारक दृश्य परोसते है. पीडन से आनंद पाने की विकृत अदम्य तृष्णा. ऐसी पिपासा का किसी भी बिंदु पर शमन नहीं होता, किंतु नशे की खुराक की तरह कामेच्छा और भी क्रूरतम होती चली जाती है.
प्रत्येक कारण को टालने के बजाय सभी के समुच्य पर विचार करना होगा. प्रलोभन से अलिप्त रहकर. पुरूषार्थ में पर्याप्त सम्भावनाएँ है. बस प्रयास ईमानदार होने चाहिए. आप क्या कहते है इन निष्कर्षों पर ?
2- फिल्म, टीवी आदि मीडिया, ऐसी क्रूर काम-घटनाओं के समाचार द्वारा 'काम' और 'दुख' दोनो को बेचता है. साथ ही बिकने के लिए प्रस्तुति को और भी वीभत्स रूप देता है. मीडिया व विज्ञापन प्रतिदिन, निसंकोच और बेपरवाह होकर, कामविकारों को सहजता से प्रस्तुत करते है. परिणाम स्वरूप कामतृष्णा और कामविकारों को सहज सामान्य मनवा लिया जाता है. संयम को दमित कुंठा और उछ्रंखलता को प्राकृतिक चित्रित किया जाता है. इस प्रकार मनोविकार आम चलन में आते है उपर से तुर्रा यह कि यौनाचारों को उपेक्षित रखे, बच कर रहे तो हौवा, टैबू आदि न जाने क्या क्या कहकर, समाज को अविकसित करार दिया जाता है. कहिए कौन है जिम्मेदार?
3- नैतिक शिक्षा तो जैसे बाबाओ के प्रवचन समान परिहास का ही विषय बन गया है. और हम सुधरे हुए लोगों ने नैतिक शिक्षा और आदर्श चरित्र पालन को मजाक बनाने में अपना भरपूर योगदान किया है. आज नैतिक समतावान, सरल और चरित्र प्रतिबद्ध लोग तो किसी फिल्म के कॉमेडी करेक्टर बन कर रह गए है.
4- घर के संस्कार कितने भी दुरस्त रखें जाय, बाहरी रहन सहन , वातावरण के संयोग से विकारों का आना अवश्यंभावी है. शिक्षितों का उछ्रंखल व्यवहार, अशिक्षितों को भी छद्म आधुनिक दिखने को प्रेरित करता है.
5- इंटरनेट पर पसरी वीभत्स अश्लीलता ने विक्षिप्तता की सीमा पार कर ली है. उन पर आते वीभत्स कामाचार के प्रयोग, रोज रोज पुराने पडते जाते है. खून में उबाल और आवेगों को बढाने के लिए विकार के तीव्र से तीव्रतम प्रयोग होते जाते है, और क्रूर और दुर्दांत. यह पोर्न साईटें, निरंतर और भी हिंसक, दर्दनाक, पीडाकारक दृश्य परोसते है. पीडन से आनंद पाने की विकृत अदम्य तृष्णा. ऐसी पिपासा का किसी भी बिंदु पर शमन नहीं होता, किंतु नशे की खुराक की तरह कामेच्छा और भी क्रूरतम होती चली जाती है.
प्रत्येक कारण को टालने के बजाय सभी के समुच्य पर विचार करना होगा. प्रलोभन से अलिप्त रहकर. पुरूषार्थ में पर्याप्त सम्भावनाएँ है. बस प्रयास ईमानदार होने चाहिए. आप क्या कहते है इन निष्कर्षों पर ?
लोग सतही दोषारोपण कर भाग लेते हैं, कोई गहरे उतरना नहीं चाहता है।
जवाब देंहटाएंगहरे उतर परिणाम निकालें तो 'काम-कथा' के आनंद वंचित न रह जाय....
हटाएंजिम्मेदार हम पुरुष
जवाब देंहटाएंबहुत जल्दी जिम्मेदारी ले ली?
हटाएंमानसिकता बदल रहे हैं हम, इसलिये जल्दी से जिम्मेदारी ले ली।
हटाएंबदल लें, भले विचारधारा कहे, होती वह भी 'मेंटल कंडीशनिंग' ही है.
हटाएंजिम्मेदार हम सब, लेकिन सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी प्रशासनिक अव्यवस्था की जहां अपराधियों को पकड़ने के बजाय पीड़ितों को सताया जाता है और यदि मामला सामने आ ही जाए तो रिश्वतें देने के प्रयास होते हैं, जहां लाशें कुत्ते खा लेते हैं और दरोगा थाने की सीमा पर बहस करते हैं, जहां ट्रक का परमिट, लाइसेन्स नहीं, हफ्ते की कितबिया चैक होती है, जहां विधि-विधान का पालन करने वाले दर-बदर भटकते हैं और आतंकवादियों के उत्थान के लिए सरकारी धन से पैकेज बनाते हैं। जिस व्यवस्था मे ईमानदारी से एक ज़िंदगी गुज़ारना कठिन ही नहीं असंभव बनाने पर सारा बल लगा हो वहाँ व्यवस्था से बड़ा जिम्मेदार कौन हो जाता है?
हटाएंअनुराग भैया,
हटाएंसप्ताह भर पहले ही ऐसे ही एक मासूम बच्ची के साथ हुये रेप के बाद उसके पिता का इंटरव्यू आया था जिसमें उसने बताया कि वो रोज खाने कमाने वाला आदमी है और उस त्रासदी के बाद हर तरफ़ से उस पर मुसीबत टूट रही थी। रिपोर्टर ने और कुरेदा तो उसने बताया कि थाने वालों ने अपने पास से पैसे इकट्ठे करके उसकी मदद की है। इस मामले में मामला उलटा हो गया।
मैं किसी को क्लीनचिट नहीं दे रहा लेकिन हरदम पुलिस और सेना को भी टार्गेट करके लोग उनके साथ भी अन्याय करते हैं।
सुधार अपने से शुरू हो और बाहर की तरफ़ जाये तो शायद ज्यादा उचित होगा।
घर के संस्कार कितने भी दुरस्त रखें जाय बाहरी रहन सहन , वातावरण के संयोग से विकारों का आना अवश्यंभावी है.
जवाब देंहटाएंRECENT POST: गर्मी की छुट्टी जब आये,
आभार!! इस गर्मी की छुट्टी हो
हटाएंसधे हुए आवश्यक बिंदु जिनपर आपने बात की ...
जवाब देंहटाएंहमेशा से यही लगता है कि पारिवारिक स्तर पर ही बदलाव की शुरुआत हो सकती है ... नैतिक मूल्य ज़रूरी हैं
समस्या यह है कि नैतिक मूल्यों पर निष्ठा को हतोत्साहित कर नष्ट किया गया और किया जा रहा है.उन आदर्शों से लगाव कैसे हो?
हटाएंअपराधों को पूरी तरह से रोकना तो शायद कभी भी सम्भव न था और न होगा, लेकिन इस तरह के पाशवीय और अमानुषिक अत्याचार-अपराध तो विक्षिप्त ही कर सकता है और निश्चित रूप से इसमें वाह्य घटक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. नैतिकता अब रही कहां हम भारतीयों के अन्दर. फिर भी परिवार के स्तर से एक अच्छे और सुखद परिणाम आने की पूरी सम्भावना है.
जवाब देंहटाएंभारतीयों में नैतिकता कुछ तो स्वार्थपरता से समाप्त हुई कुछ ऐसे प्रचार से कि आखिर इसकी उपयोगिता क्या है? सम्पन्नता में ही शक्ति की मानसिकता ने कुँडली मार दी है. अधूरे में पूरा स्वार्थी मानसिकताएँ निरंतर नैतिकता को खण्डित और हतोत्साहित करने में सक्रिय रहती है.परिवार के स्तर पर भी परिवार में प्रोत्साहन होता है लेकिन बाहरी हवा निरूत्साहित करने को तैयार रहती है.
हटाएंप्रभावी और ईमानदार न्याय व्यवस्था स्थिति मे आमूलचूल परिवर्तन ला सकती है
हटाएं...सामयिक विमर्श !
जवाब देंहटाएंविमर्श में योगदान की अपेक्ष,गुरू जी!!:)
हटाएंकारण अनेक हैं। निवारण भी बहुयामी हैं।
जवाब देंहटाएंसमस्या पर अच्छा प्रकाश डाला है। सब को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
कारण वाकई अनेक है, व्यक्तिगत किंतु एक साथ जिम्मेदारी की जरूरत होगी....
हटाएंnaitik moolya ki pahali ikai pariwar hai usake baad samaj hai. naitik aparadh ke liye dand dene ka adhikar samaj ke pas tha jab samaj hi vikhar gaya to dand ka bhay khatm ho gaya hai.vese bhi samaj ka aaj drastikod badal gaya hai aaj samaj me samman ka pemana dhan ho gaya hai naitikata nahi rahi.jab tak bhautikbad ko badawa milega tab tak sanskaro ka hanan hoga. kanoon se kam isaliye nahi ban sakta kyonki kanoon banane se pahale hi use todane ki kamajoriya pata chal jati hai'
हटाएंसही कहा, भारद्वाज जी!!
हटाएंसारे समाज में ही भांग पड़ गयी है, सभी भीड़ एकत्र करना चाहते हैं लेकिन इस भीड़ को सभ्य बनाना नहीं चाहते। क्या ये साधु-संन्यासी इसकी पहल नहीं कर सकते?
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने,देश के सभी जलस्रोतों भांग घुल चुकी है.विडम्बना यह कि भांग घोलने वाले ही देश पर नशेडी का आरोप लगा रहे है. कुछेक पाखण्डियों को दर्शा दर्शा कर सच्चे साधु-सन्यासियों पर विश्वास को तोड दिया गया है. अब वे भी अपने तक पहूँचते लोगों को नैतिक शिक्षा दे पाते है. उनके नैतृत्व पर आस्था को तार तार कर दिया गया है. नैतृत्व में विश्वास पर ही अभियान की सफलता टिकी होती है.
हटाएंसंतजन तो अपनी ओर से प्रयास कर ही रहे होंगे लेकिन पुलिस का काम तो पुलिस को ही करना पड़ेगा। देश को यह समझना चाहिए कि पुलिस का काम निर्दोष नागरिकों पर लाठी भाँजना, अपराधियों से रिश्वतें लेना और आतंकवादियों से गोली खाना मात्र नहीं है। इसी प्रकार प्रशासन की भी बड़ी ज़िम्मेदारी बनती है।
हटाएंहमें सावधान रहना चाहिए ..
जवाब देंहटाएंमानवों की गहन आबादी में कितने नर पशु हैं , कौन अनुमान लगाएगा ??
योन अपराध रोकना असंभव हैं, सावधानी और शिक्षा में ही भलाई है !
सही कहा, शिक्षा और प्रत्येक स्तर पर सावधानी हाल फिलहाल प्राथमिक उपचार है.
हटाएंआपके विचार अच्छे लगे सुज्ञ जी. फिल्मों में स्क्रिप्ट डिमांड के नाम पर जो अनावश्यक सॉफ्ट पोर्न परोसा जा रहा है आजकल वो दुखद है. जिस तरह के पश्चिमी परिधान पहने इन अभिनेत्रियों को दिखाते है वो बहुत बेढंगा और कृत्रिम लगता है. दुःख की बात है कुछ अभिनेत्रियाँ सस्तो लोकप्रियता और पैसे के लिए ये बड़े 'गर्व' से करती है. पश्चिम के अंधाधुंघ नक़ल का दुष्परिणाम आने वाले वर्षों में और आएगा इसमें कोई शक नहीं. मैं न्यूज़ चैनलों को धन्यवाद देता हूँ की कम से कम हल्ला तो करते हैं. प्रशासन और सरकार को सुदृढ़ कने के लिए दबाव बनता है. जरा सोचिये एस पी से पहले के ज़माने की बात. मुझे याद नहीं अपने बचपन में कभी मैंने बलात्कार पर इतना बड़ा देशव्यापी हल्ला सुना हो. ऐसा नहीं की उस जमाने में ऐसे पाशविक कृत्य कभी ना होते थे.
जवाब देंहटाएंबलात्कार तो हर जमाने में रहे है किंतु वर्तमान में उन अपराधों में वृद्धि साथ ही क्रूरता और पाशविकता ने मानव के औचित्य को ही चुनौति दी है.प्रशासन और सरकार की भूमिका घटनाओं के घटने बाद आती है, कोई व्यवस्था व्यक्ति के मन में झांक कर उसे पकड नहीं सकती. सही उपचार समाज देश के चरित्र में नैतिक बल के पुनर्स्थापन से ही सम्भव है. ताकि ऐसी घटनाओं को अस्तित्व में आने के पूर्व बाधित व संयमित रहे. अनवरत प्रयास से नैतिक सदाचरण पर निष्ठा जगाना एक अच्छा उपाय है. आज नैतिकता का महिमामण्डन और सम्मान किया जाना जरूरी है. उन तत्वों को रोकना होगा जो संस्कार और नैतिकता आदि को व्यंग्यबाणों से घायल करते है और कडवे सत्य के नाम पर कुछेक कृत्य को उजागर कर समस्त नैतिकता को हतोत्साहित करते है.
हटाएंjiwika sanchalan ke baad manav sirf samaj me ijjat badane ki taraf kriyaseel hota hai chunki aaj samaj ne ijjat aakalan ka aadhar bhautik sampannata ko bana liya hai jo kabhi naitikata huaa karti thi aaj nahi hai. bhuatik sampannat jyada aajane par samaj me sthan mil hi jata hai to yen ken sabhi ka jhukav usi aur ho raha hai aur naitikata ka to paath poori tarah band hone ja raha hai. aaj shiksha pradali bhi poorn roop se aarthik ho gai hai kanhi bhi naitik shiksha ki koi padai ya paath tak nahi bacha hai.
हटाएंक्या कोई सामान्य समाधान दिखता है ?
जवाब देंहटाएंजब समस्या बहुआयामी है तो समाधान सामान्य कैसे हो सकता है.मोर्चे अनेक है,लडाई सबकी हैऔर वो भी एक ही समय एक साथ!! सामूहिक पुरूषार्थ जगे तो असम्भव भी कुछ नहीं.......
हटाएंस्पष्ट कहा है आपने अपनी बात को ... पर आज नैतिक मूल्यों की बात कहां होती है .. स्वछंद मूल्यों की बात होती है ... पाश्चात्य के पीछे भाग रहे हैं ... ऐसी बात कहने वालों को दकियानूसी टाइटल देने में हम देर नहीं करते ... भौतिक बातें ही रह गई हैं ... समाज ऐसी दिशा क ओर अग्रसर है ..
जवाब देंहटाएंआपने पक्की बात कही, आज संस्कृति, संस्कार, नैतिकता,संयम,चरित्र,सदाचार की बात करो तो तत्काल दकियानूसी का ठप्पा जड दिया जाता है. जबकि इन श्रेष्ठ आचार,विचार,व्यवहार के प्रति आदर भाव नितांत जरूरी है.
हटाएंजो सबसे बड़ा कारण है उसका जिक्र आप ने किया ही नहीं वो है महिलाओ के प्रति पुरुषो, समाज की सोच जिसके कारण आज नहीं हमेसा से ही महिलाओ को उपभोग की वस्तु समझा जता है उन्हें सम्मान के लायक नहीं समझा जाता है , मुझे तो ये ही नहीं समझा जाता है की क्यों बार बार कहा जता है की हर महिला को अपनी माँ बहन समझो उनकी रक्षा करो , जिससे एक ध्वनि ये भी निकलती है की सम्मान बस माँ या बहन की ही की जाती है जो ये नहीं है वो सम्मान के लायक नहीं है उसके साथ आप कैसा भी व्यवहार कर सकते है , यही कारण है की अजनबी लोग अपनी माँ बहन नहीं होने के कारण कई बार महिलाओ के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को बस देखते है और आँखे बंद कर आगे निकल जाते है , इससे ऐसा करने वाले की हिम्मत और भी बढ़ जाती है और वो एक कदम और आगे बाधा कर बलतकर तक पहुँच जता है । दुसरे ऐसी घटनाओ को लिए बेवजह का अन्य कारणों को या महिला को ही दोष देने की प्रवृति , ये सब तो समाज में सभी देखते है सभी वही अपराध क्यों नहीं करते है , यदि कोई उनसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है तो उसके लिए वो खुद दोषी है न की कोई अन्य कारण , ये सब बाते कही न कही अनजाने में अपराधी को निर्दोष कहने जैसा है , बेचारा बच्चा गलत संगत में बिगड़ गया वरना बड़ा भला था , दोष उनका नहीं बिगाड़ने वाले का है ।
जवाब देंहटाएंउस कारण का जिक्र तो संस्कार में अंतर्निहित है. संस्कारों में महिला पुरूष का भेद नहीं होता. प्रत्येक मानव के प्रति भद्र व शालीन व्यवहार किया जाय उसे ही संस्कार कहते है. ज्योँ बलात्कार आदि दुष्कृत्यों का अस्तित्व समाज में सदा से रहा है वैसे ही नारी को वस्तु समझने की सोच की उपस्थिति भी रही है,लेकिन यह सोच संस्कारों की नहीं है.
हटाएं"प्रत्येक महिला को अपनी माँ बहन समझो, उनकी रक्षा करो" का अभिप्राय:यह नहीं जो आपने अर्थ लगा लिया. इस कथन का भावार्थ तो पवित्र ही है. इसका अर्थ यह है कि जिस तरह प्रेयसी या पत्नी के साथ व्यवहार करते हुए आप खुलकर अमर्यादित हो लेते है जबकि माँ-बहन के साथ व्यवहार में एक शालीन मर्यादा होती ही है.यहां तो वस्तु तो हर्गिज नहीँ, उसे मानव और वह भी पराया न समझने का भाव है. अपने से भी बढकर उसे सर्वोच्च सम्माननीय मानने का भाव बसा हुआ है. आपका शक व्यर्थ है कि पराए को भी अपना मानने के संदेश का ऐसा उलट असर होता हो कि वह बस अपने को ही अपना मानने की मानसिकता को दृढ करे.
'महिला को ही दोष देने की प्रवृति' सही और स्वस्थ प्रवृति नहीं है. सदाचार में कोई लिंगभेद नहीं है.सदाचारों का पालन तो सभी को अपनी अपनी क्षमता के पूर्ण उपयोग से करना चाहिए. मानव मन और दिमाग मशीन की तरह व्यवहार नहीं करते. किसी भी बात का प्रभाव ग्रहण करने वाले की मानसिक स्थिति अनुसार असर करता है. जैसे कम पढालिखा व्यक्ति तथ्य का विश्लेषण नहीं कर पाता और जैसा देखता है उसे सही समझ लेता है. अतः किसी भी बुराई अथ्वा विकार का प्रभाव मनुष्य मनुष्य पर भिन्न भिन्न प्रभाव डाल सकता है. अतः किसी प्रभाव से एक साथ सभी अपराधी नहीं बन जाते. कोई प्रभावित ही नही होता,कोई अपराधी बन जाता है तो किसी को जगुप्सा ही उत्पन्न हो जाती है और वह विकारों से तौबा करता है.
नहीं! कारण विवेचित करना अपराधी को संरक्षण देना नहीं है.फिर से कहुँगा मनोविकारों में भी लिंगभेद नही है, जातिभेद नहीं है. ऐसी कुंठित मनोविकृतियों को नारी पुरूष में बांट कर देखना, सँस्कारों और नैतिकताओं को एक दूसरे पर थोप पर निश्चिंत होने जैसा स्वार्थी व्यवहार है,बहन!!
@संस्कारों में महिला पुरूष का भेद नहीं होता
हटाएंपूरी तरह असहमत , ये किसने कह दिया की संस्कारो में पुरुष स्त्री में भेद नहीं होता है , मेरी ज्यादा जानकारी नहीं है आप को पता होगा की एक पुत्र के लिए कितने उत्सव संस्कारो का प्रचलन है और पुत्री के लिए कितना , भरे पड़े है इन भेदों से हमारे संस्कार , स्त्री को पुरुष से निचे बताने वाले, स्त्री को घरो में कैद करने वाले , और स्त्री धर्म केवल पति , पिता सेवा तक सिमित करने वाले सस्कारो परमपराओ में आप को कोई भेद नहीं नजर आता है , स्त्री घर की इज्जत और उसका एक भी समाज विरोध काम पुरे परिवार पर बट्टा लगाता है और पुरुष को हर काम की छुट , दोनों के लिए नैतिकता के अलग अलग मानदंड आप कैसे कह सकते है की ये हमारे संस्कारो में परम्पराव में नहीं है , ये उसी का परिणाम है की बलात्कारी सोचता है की पीड़ित और उसका परिवार अपना मुंह छुपायेगा जुर्म सामने ही नहीं आने देगा , फिर सजा क्या खाक होगी ।
@ "प्रत्येक महिला को अपनी माँ बहन समझो, उनकी रक्षा करो" अभिप्राय:यह नहीं जो आपने अर्थ लगा लिया.
अर्थ मै नहीं लगा रही हूँ ये पुरे समाज की सोच है , वरना विरोध करने पर कोई ये न पूछता की तेरी बहन है क्या जो विरोध कर रहा है , किसी को ज्यादा सम्मान देने के लिए बहन दीदी जैसे संबोधन देने की जरुरत ही नहीं होती जैसा आप मुझे कह रहे है, मात्र मेरे नाम के आगे जी लगा देना और बिना अप्शंदो के सामान्य बातचीत करना भी उसे दर्शा देता है , ये बहन दीदी कहने वाला ढाल क्यों, और कई ऐसे भी संस्कारी लोग देखे है जो मन के हिसाब से दीदी कहते है और कभी नहीं कहते है और जब चाहे आप के खिलाफ गलत बात भी कह देते है , ऐसी मनमौजी भाई बहन वाला व्यवहार उचित है क्या ।
@ जिस तरह प्रेयसी या पत्नी के साथ व्यवहार करते हुए आप खुलकर अमर्यादित हो लेते है जबकि माँ-बहन के साथ व्यवहार में एक शालीन मर्यादा होती ही है.
लीजिये अब आप इन शब्दों के साथ पत्नी और प्रेमिका से अमर्यादित होने की छुट दे रहे है , या फिर आप उनके बिच होने वाली कुछ निजी बातो को अमर्यादित कह रहे है जो ठीक नहीं है , और आप को बता दू की जिन मुद्दों को आप अमर्यादित कह रहे है आज के समय में उनमे से कुछ पर भाई बहन भी बात करते है , जो कभी गंभीर तो कभी मनोरंजन के लिए होते है , यहाँ न जाने कितने अनजान लोगो से हम किन किन मुद्दों पर बात कर लेते है बिना अमर्यादित हुए ।
@ विकार का प्रभाव मनुष्य मनुष्य पर भिन्न भिन्न प्रभाव डाल सकता है.
वही तो मै कह रही हूँ की इसमे मनुष्य का दोष निजी है कोई बाहरी कारण नहीं , पूरी तरह से अपराधी वो है कोई अन्य कारण नहीं । और हा सहमत हूँ की अपराधियों में लिंगभेद नहीं करना चाहिए ।
1- मेरे कथ्य संस्कारों का आशय कर्मकाण्ड परम्परा वाले संस्कारों से नहीं है. यहां संस्कारों का अर्थ है विवेक युक्त सम्यक प्रकार के सद्विचार, शिष्टाचार, सदाचरण.
हटाएं2- क्या यह पूरे समाज का कथन है-"तेरी बहन है क्या जो विरोध कर रहा है" अब असंस्कारियों या दुराचारियों के कथन से समग्र समाज की सोच निर्धारित होगी? बहन दीदी कहना ढाल नहीँ है सज्जन का उद्देश्य सम्मान का दर्जा महसुस करवाना है बाकि दुर्जन तो इस शब्द का उपयोग चाल की तरह कर सकता है. सामान्यतया समाज का प्रतिनिधित्व सज्जन ही करते है, दुर्जन की सोच में तो वह समाज की वैसे भी ऐसी तैसी कर देता है. उसका समाज से कुछ भी लेना देना नहीं फिर उसके कृत्यों से समाज पर आरोप क्यों?
3- यहां फिर आपने मर्यादा का गलत अर्थ लिय. मर्यादा शब्द का अर्थ भी सीमा है और यहां भावार्थ भी सीमा है दोनो तरह के रिश्तों की मानसिकता में एक सीमारेखा होती है. भाई-बहन कितने भी बोल्ड हो जाय, खुले दिलो-दिमाग से सम्वाद मनोरंजन करे,उनमें यदि रिश्तों के प्रति आदर है तो सीमोलंघन नहीं करते. "बिना अमर्यादित हुए" बस यही शालीनता,पवित्रता, सीमा, मर्यादा या फिर माँ-बहन सम्बोधन का सम्मान रखना है.
4-नहीं, प्रभावित तो मनुष्य निजी रूप से है लेकिन प्रभावोत्पादकता बाहरी है.यदि सुधार में बाहरी प्रेरणा असरदार हो सकती है तो कुमार्ग में बाहरी असर क्यों न पडेगा?
सुज्ञ जी!
जवाब देंहटाएंइस प्रकार की घटनाओं को देखने के दो पहलू हैं और दोनों को एक साथ देखने समझने की आवश्यकता है.. केवल यह कह देने से कि मैं दोषी मानता हूँ खुद को, काम नहीं चलता.. क्योंकि तब प्रश्न यह उठाता है कि फिर सज़ा क्या हो..
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इसलिए मेरे विचार में इसका पहला पहलू तो यह है कि हम केवल पत्तियाँ छांटकर अपना दायित्व निभा रहे हैं, जड़ों को काटने या जड़ों में मट्ठा डालने का काम नहीं हो पा रहा है.. और जड़ें आज इतनी गहरी हो गयी हैं कि पता नहीं कितना समय लगे.. जड़ों का अर्थ है वे कारण जो इस तरह की घटनाओं को जन्म देते हैं.. ये कारण अंशुमाला जी, आपके और बाकी लोगों के बताए कारण भी हो सकते हैं.. लेकिन कारण बताने के साथ ही अगला प्रशन यह उत्पन्न होता है कि फिर उपाय क्या है!!!
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अब दूसरा पहलू यह है कि दोषी के साथ (कारण कुछ भी हो, दोषी दोषी है) क्या किया जाए.. उसे कैसी सज़ा दी जाए.. और न्याय कितनी जल्दी और सुलभ हो.. एक फिल्म का डायलाग था कि मजदूर का पसीना सूखने से पहले ही उसकी मजदूरी मिल जानी चाहिए.. इसलिए पीड़ित के आंसू सूखने से पहले ही उसे न्याय मिल जाना चाहिए.. और अपराधी को सज़ा ऐसी और इस प्रकार दी जानी चाहिए कि अगला कोई भी अपराध करने के पहले पकडे जाने के परिणाम से काँप जाए!!
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लेकिन जहाँ आतंकवादियों पर बरसों मुकदमे चलाये जाते हैं और ह्त्या के मामले में सारी दुनिया को सच पता होने पर भी हत्यारा खुला घूमता रहता है.. वहाँ उम्मीद क्या की जा सकती है..
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क़ानून बहुत हैं, मगर उनका प्रत्यावर्तन शून्य..!!
@ अब दूसरा पहलू यह है कि दोषी के साथ (कारण कुछ भी हो, दोषी दोषी है) क्या किया जाए.. उसे कैसी सज़ा दी जाए.. और न्याय कितनी जल्दी और सुलभ हो..
हटाएं- सत्य वचन,क्या विचरवान लोग कभी प्रशासन का भाग बन पाएंगे?
सलिल जी,
हटाएंआपने सही कहा, दोनो पहलू पर मनन आवश्यक है. जडें जो इस तरह की घटनाओं को जन्म देती हैं, पहचानना और चिन्हित करना भी जरूरी है.एक बार पहचान हो जाय तो उस विकार युक्त अंग का ईलाज सम्भव हो सकता है.
वे सभी क्षेत्र, चाहे फिर स्वार्थवश पतन मार्ग को प्रेरित करने वाला जनसामान्य का प्रलोभी वर्ग, प्रशासन, विधि-नियंता हो या न्याय व्यवस्था. इस समस्या के मूल में हम साफ साफ "नैतिक निष्ठा" की कमी को देख सकते है. इस कैंसर को बकायदा चिन्हित कर सकते है. इसलिए शासन प्रशासन न्यायव्यवस्था और जनसामान्य, सभी जगह 'नैतिकता के प्रति निष्ठा' की पुनर्स्थापना ही उपाय है.
आभार दिलबाग विर्क जी!!
जवाब देंहटाएंसामान्य परिवारों में संस्कार पढ़े लिखे लोग तो दे सकते हैं मगर घृणित अपराधों में बड़ी भागीदारी रखने वाले निम्न स्तरीय जीवन जीने वालों को संस्कार कहाँ से प्रदान किये जाए , यह सोचना भी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ना इनके परिवारों में अच्छा माहौल है . ना इनके लिए माकूल शिक्षा उपलब्ध है . इन बस्तियों में कोई आधुनिक गुरु जाना भी पसंद नहीं करेंगे जबकि सबसे अधिक नैतिक शिक्षा की जरूरत इस तबके में है .
जवाब देंहटाएंवाणी जी,
हटाएंबिलकुल यथार्थ कहा है. शिक्षित वर्ग में भद्रता स्थापित हो जाती है. विद्या सम्पन्न वर्ग में नैतिक मूल्यों के महत्व के प्रति आदर होता है. निम्नवर्ग में माकूल शिक्षा और माहौल में अभाव के साथ अधिकांश बार यह मानसिकता होती है कि नैतिकताएँ आदि अभिजात्य वर्ग के चोंचले होते है.
किंतु नैतिक निष्ठा जिसे संस्कार कहते है को निम्नवर्ग तक प्रवाहित करने की जिम्मेदारी शिक्षित वर्ग पर है.संस्कारों का ऐसा आदर स्थापित होना चाहिए कि हर वर्ग को प्रिय लगे. संस्कारों के औचित्य को क्षति पहूंचाए बिना उसके महिमावर्धन के प्रयास होने चाहिए. इससे नैतिकताओं के प्रति जनमानस में आदर स्थापित होता है.
दान का महत्व इसलिए होता है कि कोई अभाव ग्रस्त विद्रोही न बने, आज सारा विश्व इस महत्व को समझ रहा है. उसी तरह सदाचार का भी महत्व बनना चाहिए कि कोई कदाचारी बनना न चाहे.
जिस तरह सम्पन्न और अभिजात्य वर्ग का निम्न वर्ग द्वारा अनुसरण होता है, धन-सम्पन्न वर्ग के धन प्रदर्शन कार्यों का दिखावे के लिए ही सही निम्न वर्ग अनुसरण कर कीर्ति को लालायित रहता है. ठीक उसी तरह शिक्षितों के नैतिक आदर्शों के अनुसरण की अभिलाषा जगनी चाहिए.वह तब होगा जब नैतिक मूल्यों को समुचित आदर और बहुमान से देखा जाएगा. जिनके पास संस्कार है वे उन संस्कारों को कल्याण भाव से प्रसारित करने का भी उद्यम करेंगे, उन्हे मान देंगे.
एक उम्र के बाद बच्चे घर में कम बाहर ज्यादा समय बिताता है. अत ; उसपर बाहर का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. उसके उवर मीडिया और इन्टरनेट ने वातावरण को कामातुर बना दिया हैइ स सन्दर्भ आपका लेख सटीक और सामयिक है.
जवाब देंहटाएंकालीपद जी,
हटाएंआपकी बात में यथार्थ है, आखिर धन-प्रलोभन में मदमस्त,मीडिया और इन्टरनेट के कामप्रेरक कृत्यों को क्यों बक्शा जा रहा है.उनके अच्छे कार्यों का स्वागत लेकिन उनके दुष्प्रभावी कार्यों पर दृष्टि का लक्ष क्यों भटके.
sushil sir ne sahi kaha... kya wakai me koi samadhan hai, ya bas ham vicharon ka aadan pradan ya dosharopan hi karte rah jayenge....
जवाब देंहटाएंसमस्या के कारकों और उसके मूल को चिन्हित किए बिना आनन फानन का समाधान भी किस काम का? समाधान तो समग्र जनमानस में नैतिक मूल्यों के दृढ स्थापन में है. बहुत श्रमसाध्य है.
हटाएंबहुत सार्थक विवेचन..हम सब को ही इस पर मनन करना होगा..
जवाब देंहटाएंजी!! मनन और अब उस दिशा में प्रयास होने चाहिए... नैतिक जीवनमूल्यों का प्रसार होना चाहिए....
हटाएंबहुत सटीक बातें कही हैं आपने आदरणीय सुज्ञ सर। पूरी तरह से व्यावहारिक हैं।
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी आयें। पसंद आनेपर शामिल हो अपना स्नेह अवश्य दें.......
आभार,बंधु
हटाएंलोग आखिर ये बात कब समझेंगे |
जवाब देंहटाएंबदले शहर के हालात, कब समझेंगे |
ये है तमाशबीनों का शहर यारो,
कोई न देगा साथ, कब समझेंगे |
जांच करने क़त्ल की कोई न आया,
हैं माननीय शहर में आज, कब समझेंगे|
चोर डाकू लुटेरे पकडे नहीं जाते,
सुरक्षा-चक्र में हैं ज़नाब, कब समझेंगे |
कब से खड़े हैं आप लाइन में बेंक की,
व्यस्त सब पीने में चाय, कब समझेंगे |
बढ़ रही अश्लीलता सारे देश में,
सब सोरहे चुपचाप, कब समझेंगे |
श्याम, छाई है बेगैरती चहुँ ओर,
क्या निर्दोष हैं आप, कब समझेंगे ||
तापते है पराई आग चुप चाप,
हटाएंपहूँचेगी पाँवों में तब समझेगें||
सार्थक प्रस्तुति. घर के संस्कार से अधिक वाह्य जगत् अधिक प्रभावी है.
जवाब देंहटाएंसही कहा सुब्रमनियम जी, यही विडम्बना है.
हटाएंदेश लुट रहा है, हम लोग कवितायें व लेख लिख रहे हैं . या फिर वाह वाह व शब्दों की बखियां उखेड़ रहे हैं, क्योंकि भले आदमी को लगता है मैं इसके इलावा कुछ कर ही नहीं सकता ...
जवाब देंहटाएंमेरा क्या योगदान हो सकता है यह सोच का विषय है...