नमस्कार!!
आज चर्चा छेडने का भाव है, व्यक्तित्व विकास के विषय पर. मुझे प्रतीत होता है हमारे व्यक्तित्व के चार बडे शत्रु है जो हमारे व्यक्तित्व, हमारे चरित्र को सर्वप्रिय बनने नहीं देते.
मैंने थोडा सा चिंतन किया तो बडा आश्चर्य हुआ कि- विज्ञान - मनोविज्ञान भी इन्हें ही प्रमुख शत्रु मानता है. और गौर किया तो देखा नीति शिक्षा भी इन चारों को अनैतिकता का मूल मानती है. घोर आश्चर्य तो तब हुआ जब दर्शन अध्यात्म भी इन चारों को मानव चरित्र के घोर शत्रु मानता है. और तो और, दंग रह गया जब देखा कि धर्म भी इन चारो को ही पाप प्रेरक कहता रहा.
आगे देखा तो पाया कि छोटे बडे सारे अवगुण इन चार दूषणों के चाकर है. चारों की अपनी अपनी गैंग है. हरेक के अधीन उसकी कक्षा और श्रेणी अनुसार दुर्विचार, दुष्कृत्य कार्यशील है.
क्या आप अनुमान लगा सकते है कि हमारे व्यक्तित्व के या व्यक्ति के चरित्र के यह चार शत्रु कौन है?
आप अपनी अपनी दृष्टि से चार शत्रुओं को उजागर कीजिए, चिन्हित कीजिए, और फिर आप और हम चर्चा विवेचन करते है और इनकी पहचान सुनिश्चित करते है.......
(चर्चा अच्छी जमी तो यह श्रंखला जारी रखेंगे...)
अगली पोस्ट, व्याख्या- क्रोध, मान, माया. लोभ
आज चर्चा छेडने का भाव है, व्यक्तित्व विकास के विषय पर. मुझे प्रतीत होता है हमारे व्यक्तित्व के चार बडे शत्रु है जो हमारे व्यक्तित्व, हमारे चरित्र को सर्वप्रिय बनने नहीं देते.
मैंने थोडा सा चिंतन किया तो बडा आश्चर्य हुआ कि- विज्ञान - मनोविज्ञान भी इन्हें ही प्रमुख शत्रु मानता है. और गौर किया तो देखा नीति शिक्षा भी इन चारों को अनैतिकता का मूल मानती है. घोर आश्चर्य तो तब हुआ जब दर्शन अध्यात्म भी इन चारों को मानव चरित्र के घोर शत्रु मानता है. और तो और, दंग रह गया जब देखा कि धर्म भी इन चारो को ही पाप प्रेरक कहता रहा.
आगे देखा तो पाया कि छोटे बडे सारे अवगुण इन चार दूषणों के चाकर है. चारों की अपनी अपनी गैंग है. हरेक के अधीन उसकी कक्षा और श्रेणी अनुसार दुर्विचार, दुष्कृत्य कार्यशील है.
क्या आप अनुमान लगा सकते है कि हमारे व्यक्तित्व के या व्यक्ति के चरित्र के यह चार शत्रु कौन है?
आप अपनी अपनी दृष्टि से चार शत्रुओं को उजागर कीजिए, चिन्हित कीजिए, और फिर आप और हम चर्चा विवेचन करते है और इनकी पहचान सुनिश्चित करते है.......
(चर्चा अच्छी जमी तो यह श्रंखला जारी रखेंगे...)
अगली पोस्ट, व्याख्या- क्रोध, मान, माया. लोभ
काम, क्रोध, मद और लोभ.....
जवाब देंहटाएंहम भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक रहेगी ये श्रंखला
वैसे ये बात तो है कि ये सब गैंग में ही आते हैं और टिके रहने का पूरा प्रयास करते हैं :)
प्रारम्भ में अच्छे लगते है, घर के घर-भेदी होते है और अपनी गैंग के सदस्यों को बुला बुला यहां डेरा जमा देते है.
हटाएंमेरे विचार से तो सारे शत्रुओं में प्रमुख शत्रु है अहंकार.. एकै साधे सब सधै!!
जवाब देंहटाएंपरस्पर सहयोगी परस्पर निर्भर, फिर भी स्वतंत्र सत्ता....
हटाएंकाम,क्रोध,मद,लोभ,है लेकिन मद,(अहंकार)प्रमुख शत्रु है..
जवाब देंहटाएंRECENT POST: मधुशाला,
पहले के जमाने में भी मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान बहुत उन्नत अवस्था में रहा होगा।परन्तु जनसामान्य को इन तथ्यों के बारे में समझाने का तरीका अलग रहा होगा।आज हमें वह पिछड़ापन नजर आने लगता है और सूचनाओं का ज्ञान भी अब बहुत विकसित हो चुका है पर तब के हिसाब से यही तरीका सही रहा होगा।
जवाब देंहटाएंकाम क्रोध लोभ मद तो है ही लेकिन लोग ईर्ष्या और आलस्य को भूल जाते हैं वैसे तो ये सभी विकार थोड़े बहुत सभी में आ ही जाते हैं पर इनके प्रति सावधान भी रहना ही चाहिए।
शत्रु तो अनेक हैं। यहाँ मोह का भी नाम लिया जा सकता है।
जवाब देंहटाएं- पराये व्यक्ति या धन से हो चोरी, डाका, बलात्कार, हत्या जैसे कुकृत्य होते हैं
- अपनों से हो तो शोक, विषाद, कर्तव्यच्युति, बड़बोलापन, अन्याय आदि
- और अगर आत्ममोह हुआ तो दुनिया भर को अपने ही चारों ओर घुमाने की इच्छा
अच्छी कोशिश है। जारी रखिए। प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंजारी रखें, कृपया.
जवाब देंहटाएंमुझे जो चार शत्रु लगते हैं वह हैं , लालच , अहंकार , चुगलखोरी , घृणा। मोह और असत्य भी शत्रु हो सकते हैं मगर सर्वमान्य नहीं !
जवाब देंहटाएंअच्छी श्रृंखला !
वाणी जी ये सभी भी सर्वमान्य शत्रु ही तो हैं ...क्या किसी ने इन्हें मित्र कहा ...लिस्ट सिर्फ चार पर समाप्त नहीं होती ..लम्बी है ....
हटाएं---हाँ मूल खोजना चाहिए ....स्वार्थ हेतु पर-उत्प्रीणन .. ईशोपनिषद का मन्त्र है..." मा गृध कस्विद्धनम".... किसी के स्वत्व व धन का हरण न करें ..
बहुत ही अच्छा प्रयास ... यदि क्रोध और अहंकार को त्यागकर लोभ का विनाश कर दिया जाये तो साधना सफल हो ही जाती है ...
जवाब देंहटाएंआभार इस प्रस्तुति के लिए
चार नहीं मुझे तो एक ही लगता है वो है "अति"
जवाब देंहटाएंगर्व अति बन अहंकार बन जाता है
आवश्यकता पैसा कमाने के लिए प्रेरित करता है किन्तु अति उसे लालच बना देता है
काम संसार को आगे बढ़ने के लिए जरुरी है किन्तु अति उसे वासना बना देता है
सांप फुफकारे नहीं तो जीवित ही न रहे यानि क्रोध भी बुरा नहीं है किन्तु अति आप के सोचने समझने की शक्ति ख़त्म कर देता है
कहा जाता है की "अति" बुरा होने के साथ ही "अति" भला होना भी सही नहीं होता
यही सत्य है अंशुमाला जी...सुज्ञ जी .. काम क्रोध लोभ मोह मद ..भी स्थित के अनुसार सांसारिकता के लिए आवश्यक हैं ( सामान्य कथ्य में ही इन्हें सबका शत्रु कह दिया जाता है )अन्यथा ईश्वर या प्रकृति इन्हें बनाती ही क्यों ........परन्तु इन सबकी मानव-परमार्थ से समन्वयात्मक दृष्टि रहनी चाहिए ..
हटाएं-------बस...अति एवं स्वार्थ दृष्टि ..ही सब दुष्कर्मों का मूल है...अति सर्वत्र वर्ज्ययेत ...
यहाँ आई विद्वज्ञों की राय पर विवेचन अगली पोस्ट में प्रस्तुत किया जाएगा.
जवाब देंहटाएंतब तक और भी विचार सादर आमंत्रित है.
अगली पोस्ट का इंतज़ार कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंमुझे तो एक ही शत्रु लगता है वो है "मैं" की भावना , जब ये भाव जाग्रत हो जाता है तो उसके अनुगामी स्वयम ही चले आते हैं .....
जवाब देंहटाएंबहुत सोचने पर मुझे भी काम,क्रोध,मद और लोभ ये ही चार शत्रु नज़र आते हैं और इन शत्रुओं[भाव] को जन्म देने वाला 'अहंकार' है क्योंकि इसी 'अहम' की तुष्टि के लिए इन चारों का सहारा लिया जाता है.
जवाब देंहटाएंऔर अहंकार को जन्म देने वाला ???...स्वार्थ ....
हटाएंkamaal kee series ... thanks for starting this
जवाब देंहटाएं