13 मार्च 2013

अपने की चोट

एक सुनार था। उसकी दुकान से लगी हुई एक लुहार की भी दुकान थी। सुनार जब काम करता, उसकी दुकान से बहुत ही धीमी आवाज होती, पर जब लुहार काम करता तो उसकी दुकान से कानो के पर्दे फाड़ देने वाली आवाज सुनाई पड़ती।

एक दिन सोने का एक कण छिटककर लुहार की दुकान में आ गिरा। वहां उसकी भेंट लोहे के एक कण के साथ हुई। सोने के कण ने लोहे के कण से कहा, "भाई, हम दोनों का दु:ख समान है। हम दोनों को एक ही तरह आग में तपाया जाता है और समान रुप से हथौड़े की चोटें सहनी पड़ती हैं। मैं यह सब यातना चुपचाप सहन करता हूं, पर तुम इतना आक्रंद क्यों करते हो?"

"तुम्हारा कहना सही है, लेकिन तुम पर चोट करने वाला लोहे का हथौड़ा तुम्हारा सगा भाई नहीं है, पर वह मेरा सगा भाई है।" लोहे के कण ने दु:ख भरे कातर स्वर में उत्तर दिया। फिर कुछ रुककर बोला, "पराये की अपेक्षा अपनों के द्वारा की गई चोट की पीड़ा अधिक असह्य होती है।"

"नास्ति राग समं दुःखम्" अपनो के प्रति अतिशय आसक्ति,  हमारे परितापों में वृद्धि का प्रमुख कारण है।


36 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन की कडवी यादों को
    भावुक मन से भूले कौन ?
    जीवन के प्यारे रिश्तों मे
    पड़ी गाँठ, सुलझाए कौन ?
    गाँठ पड़ी,तो कसक रहेगी,हर दम चुभता रहता तीर !
    जानबूझ कर,धोखे देकर, कैसे नज़र झुकाते, गीत !

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    1. ला-जवाब!! भाईजी!!
      पीडा को अभिव्यक्ति प्रदान की आपने…… आभार!!

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  2. सह्नत ... अपनों द्वारा दिए दुःख का दर्द ज्यादा होता है ...
    पर दर्द तो हर हाल में दर्द ही रहता है ...

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    1. दर्द तो हर हाल में दर्द ही रहता है किन्तु ताप-परिताप की डिग्री न्यूनाधिक होती है। :)

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  3. सच है अपनों की या अपना बनकर दी गयी चोट ज्यादा दर्द देती है !

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  4. सच है, भारत का दर्द तो यही है..

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    1. निश्चित ही भारत के साथ यही हो रहा है।

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  5. अपनों के द्वारा पहुँचाई चोट विश्वास को खतम कर देती है ...

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    1. सही कहा, अपनो का विश्वास खण्डित होता ही है।

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  6. आज की ब्लॉग बुलेटिन आज लिया गया था जलियाँवाला नरसंहार का बदला - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी .बेह्तरीन अभिव्यक्ति .शुभकामनायें.
    नफरत से की गयी चोट से हर जखम हमने सह लिया
    घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

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  8. सही बात है। इसी बात पर एक ऑटो-शायरी याद आ गई
    हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था
    मेरे कश्ती वहाँ डूबी, जहां पानी कम था ।।

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  9. बिलकुल सच ....जहाँ आशाएं, अपेक्षाएं और जुड़ाव हो, पीड़ा भी वहीँ ज्यादा होती है ....

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  10. उत्तर
    1. लो हा हा सुन लो विकट, कण-लोहा पर मार |
      लौह हथौड़ा पीटता, कण चिल्लाय अपार |
      कण चिल्लाय अपार, नहीं सह पाता चोटें |
      रहा बिरादर मार, होय दिल टोटे टोटे |
      अपनों की यह मार, नहीं लोहा को सोहा ||
      स्वर्ण सहे चुपचाप, चोट मारे जब लोहा |

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    2. वाह!! अद्भुत उद्गार!!
      लौह हथौड़ा पीटता, कण चिल्लाय अपार |

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  11. आपकी प्रविष्टि कल के चर्चा मंच पर है
    धन्यवाद

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  12. सच है चोट तो अपने ही दे सकते हैं ,और ये चोट एक नाउम्मीदी की होती है ......

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    1. इसलिए कि अपनो से चोट की अपेक्षा ही नहीं होती।

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  13. "पराये की अपेक्षा अपनों के द्वारा की गई चोट की पीड़ा अधिक असह्म होती है।"
    बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,आभार.

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  14. अपनों की चोट लगती भी तो तेज है:)
    लेकिन सुज्ञ जी, एक बात तो है कि सही चोट न पड़े तो सही आकृति भी नहीं बनेगी। चोट से अगर कुछ सकारात्मक हो तो ’चोटें अच्छी हैं’...

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    उत्तर
    1. अपनों की चोट वाकई तेज!! आपने सही कहा संजय जी, यही चोटें, आकार को स्पष्ट गढ़ने में मदद करती है। उस लिहाज से ’चोटें अच्छी हैं’

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