कस्बे में एक महात्मा थे। सत्संग करते और लोगों को धैर्य, अहिंसा, सहनशीलता, सन्तोष आदि के सदुपदेश देते। उनके पास सत्संग मे बहुत बड़ी संख्या में भक्त आने लगे। एक बार भक्तों ने कहा महात्मा जी आप कस्बे में अस्पताल, स्कूल आदि भी बनवाने की प्रेरणा दीजिए। महात्मा जी ने ऐसा ही किया। भक्तों के अवदान और परिश्रम से योजनाएं भी बन गई। योजनाओं में सुविधा के लिए भक्तों नें, कस्बे के नेता को सत्संग में बुलाने का निर्णय किया।
नेताजी सत्संग में पधारे और जनसुविधा के कार्यों की जी भरकर सराहना की और दानदाताओं की प्रशंसा भी। किन्तु महात्मा जी की विशाल जनप्रियता देखकर, अन्दर ही अन्दर जल-भुन गए। महात्मा जी के संतोष और सहनशीलता के उपदेशों के कारण कस्बे में समस्याएं भी बहुत कम थी। परिणाम स्वरूप नेता जी के पास भीड कम ही लगती थी।
घर आकर नेताजी सोच में डूब गए। इतनी अधिक जनप्रियता मुझे कभी भी प्राप्त नहीं होगी, अगर यह महात्मा अहिंसा आदि सदाचारों का प्रसार करता रहा। महात्मा की कीर्ती भी इतनी सुदृढ थी कि उसे बदनाम भी नहीं किया जा सकता था। नेता जी अपने भविष्य को लेकर चिंतित थे।आचानक उसके दिमाग में एक जोरदार विचार कौंधा और निश्चिंत होकर आराम से सो गए।
प्रातः काल ही नेता जी पहूँच गए महात्मा जी के पास। थोडी ज्ञान ध्यान की बात करके नेताजी नें महात्मा जी से कहा आप एक रिवाल्वर का लायसंस ले लीजिए। एक हथियार आपके पास हमेशा रहना चाहिए। इतनी पब्लिक आती है पता नहीं कौन आपका शत्रु हो? आत्मरक्षा के लिए हथियार का पास होना बेहद जरूरी है।
महात्मा जी नें कहा, "बंधु! मेरा कौन शत्रु? शान्ति और सदाचार की शिक्षा देते हुए भला मेरा कौन अहित करना चाहेगा। मै स्वयं अहिंसा का उपदेश देता हूँ और अहिंसा में मानता भी हूँ।" नेता जी नें कहा, "इसमें कहाँ आपको कोई हिंसा करनी है। इसे तो आत्मरक्षा के लिए अपने पास रखना भर है। हथियार पास हो तो शत्रु को भय रहता है, यह तो केवल सावधानी भर है।" नेताजी ने छूटते ही कहा, "महात्मा जी, मैं आपकी अब एक नहीं सुनूंगा। आपको भले आपकी जान प्यारी न हो, हमें तो है। कल ही मैं आपको लायसंस शुदा हथियार भैंट करता हूँ।"
दूसरे ही दिन महात्मा जी के लिए चमकदार हथियार आ गया। महात्मा जी भी अब उसे सदैव अपने पास रखने लगे। सत्संग सभा में भी वह हथियार, महात्मा जी के दायी तरफ रखे ग्रंथ पर शान से सजा रहता। किन्तु अब पता नहीं, महाराज जब भी अहिंसा पर प्रवचन देते, शब्द तो वही थे किन्तु श्रोताओं पर प्रभाव नहीं छोडते थे। वे सदाचार पर चर्चा करते किन्तु लोग आपसी बातचित में ही रत रहते। दिन प्रतिदिन श्रोता कम होने लगे।
एक दिन तांत्रिकों का सताया, एक विक्षिप्त सा युवक सभा में हो-हल्ला करने लगा। महाराज नें उसे शान्त रहने के लिए कहा। किन्तु टोकने पर उस युवक का आवेश और भी बढ़ गया और वह चीखा, “चुप तो तूँ रह पाखण्डी” इतना सुनना था कि महात्मा जी घोर अपमान से क्षुब्ध हो उठे। तत्क्षण क्रोधावेश में निकट रखा हथियार उठाया और हवाई फायर कर दिया। लोगों की जान हलक में अटक कर रह गई।
उसके बाद कस्बे में महात्मा जी का सत्संग वीरान हो गया और नेताजी की जनप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी।
नेताजी सत्संग में पधारे और जनसुविधा के कार्यों की जी भरकर सराहना की और दानदाताओं की प्रशंसा भी। किन्तु महात्मा जी की विशाल जनप्रियता देखकर, अन्दर ही अन्दर जल-भुन गए। महात्मा जी के संतोष और सहनशीलता के उपदेशों के कारण कस्बे में समस्याएं भी बहुत कम थी। परिणाम स्वरूप नेता जी के पास भीड कम ही लगती थी।
घर आकर नेताजी सोच में डूब गए। इतनी अधिक जनप्रियता मुझे कभी भी प्राप्त नहीं होगी, अगर यह महात्मा अहिंसा आदि सदाचारों का प्रसार करता रहा। महात्मा की कीर्ती भी इतनी सुदृढ थी कि उसे बदनाम भी नहीं किया जा सकता था। नेता जी अपने भविष्य को लेकर चिंतित थे।आचानक उसके दिमाग में एक जोरदार विचार कौंधा और निश्चिंत होकर आराम से सो गए।
प्रातः काल ही नेता जी पहूँच गए महात्मा जी के पास। थोडी ज्ञान ध्यान की बात करके नेताजी नें महात्मा जी से कहा आप एक रिवाल्वर का लायसंस ले लीजिए। एक हथियार आपके पास हमेशा रहना चाहिए। इतनी पब्लिक आती है पता नहीं कौन आपका शत्रु हो? आत्मरक्षा के लिए हथियार का पास होना बेहद जरूरी है।
महात्मा जी नें कहा, "बंधु! मेरा कौन शत्रु? शान्ति और सदाचार की शिक्षा देते हुए भला मेरा कौन अहित करना चाहेगा। मै स्वयं अहिंसा का उपदेश देता हूँ और अहिंसा में मानता भी हूँ।" नेता जी नें कहा, "इसमें कहाँ आपको कोई हिंसा करनी है। इसे तो आत्मरक्षा के लिए अपने पास रखना भर है। हथियार पास हो तो शत्रु को भय रहता है, यह तो केवल सावधानी भर है।" नेताजी ने छूटते ही कहा, "महात्मा जी, मैं आपकी अब एक नहीं सुनूंगा। आपको भले आपकी जान प्यारी न हो, हमें तो है। कल ही मैं आपको लायसंस शुदा हथियार भैंट करता हूँ।"
दूसरे ही दिन महात्मा जी के लिए चमकदार हथियार आ गया। महात्मा जी भी अब उसे सदैव अपने पास रखने लगे। सत्संग सभा में भी वह हथियार, महात्मा जी के दायी तरफ रखे ग्रंथ पर शान से सजा रहता। किन्तु अब पता नहीं, महाराज जब भी अहिंसा पर प्रवचन देते, शब्द तो वही थे किन्तु श्रोताओं पर प्रभाव नहीं छोडते थे। वे सदाचार पर चर्चा करते किन्तु लोग आपसी बातचित में ही रत रहते। दिन प्रतिदिन श्रोता कम होने लगे।
एक दिन तांत्रिकों का सताया, एक विक्षिप्त सा युवक सभा में हो-हल्ला करने लगा। महाराज नें उसे शान्त रहने के लिए कहा। किन्तु टोकने पर उस युवक का आवेश और भी बढ़ गया और वह चीखा, “चुप तो तूँ रह पाखण्डी” इतना सुनना था कि महात्मा जी घोर अपमान से क्षुब्ध हो उठे। तत्क्षण क्रोधावेश में निकट रखा हथियार उठाया और हवाई फायर कर दिया। लोगों की जान हलक में अटक कर रह गई।
उसके बाद कस्बे में महात्मा जी का सत्संग वीरान हो गया और नेताजी की जनप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी।
हिंसा का बीज़......समझ में आया |
जवाब देंहटाएंआभार !
बहुत अच्छा प्रसंग है | बहुत सत्य भी है | ऐसी ही एक दन्त कथा (?) रामायण में भी आती है | कि सीता मैया श्री राम से कहती हैं कि हम यहाँ वनवास पर हैं, अर्थात पिताश्री की आज्ञानुसार हमें यहाँ हथियारों को भी पास नहीं रखना चाहिए | इससे मन में हिंसा की प्रवृत्ति बढती है |
जवाब देंहटाएंआभार आपका | पिछले लेख (वीरता का दंभ और मूढ़ता) और इस लेख में मानवीय कमजोरियों पर बड़े सुन्दर तरीके से समझावन है |
अधिकतर होता यह है कि ऐसे कारक दबे पाँव मन में प्रवेश करते हैं, और व्यक्ति जान भी नहीं पाता कि कब मैं दम्भी, या क्रोधी, या judgemental , या हिंसक बनते जा रहा / रही हूँ | ऐसे आलेख पढने को मिलते रहे तो इन झपकियों में पड़ते मनों को जाग हो जाती है | न मिलें - तो वही हलकी नींद गहरी निद्रा में बदल जाती है |आभार |
गहन भाव लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति ... आभार
जवाब देंहटाएंबहुत कठिन है डगर पनघट की ...
जवाब देंहटाएंहमसे पूछ लेते महात्मा जी
जवाब देंहटाएंयहीं गलती कर बैठे पूछा नहीं!
अब ये तो महात्मा जी की निश्छल सोच है कि उन्हे लगता है कि वो इतने सज्जन है कि कोई उनका अहित नहीं कर सकता लेकिन क्यों नही कर सकता एक बुरे व्यक्ति को इससे क्या मतलब है?आखिर नेताजी ने भी उनसे ईर्ष्या रखी ही न।ऐसे ही कोई दर्जन हिंसा पर भी उतर सकता है ईर्ष्यावश या अपने अहम की तुष्टि के लिए ।हाँ हिंसा की स्थिति टालने के लिए आत्मरक्षा के साथ ही आत्मसंयम का पाठ भी पढाया जाना चाहिए ।लेकिन जहाँ ताकत की जरूरत है वहाँ बस ताकत ही काम आएगी।घातक हथियार साथ मे रखना जोखिमपूर्ण हो सकता है लेकिन आत्मरक्षा में शारीरिक दमखम की जरूरत पड सकती है इसके लिए अभ्यास जरूरी है।कभी ये भी सुना था कि अत्यधिक धन संचय नहीं करना चाहिए क्योंकि यह व्यक्ति को बेईमान बना देता है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि व्यक्ति को अपने भविष्य में जोखिम को ध्यान में रख जरूरत का भी नहीं बचाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंभुजंग लिपटे रहने पर भी चन्दन विष को स्वयं में व्यापने नहीं देता जैसे तथ्य को नकारती, वर्त्तमान परिस्थितियों में समाज में स्वच्छंद विचरण करते भुजंगों की सच्ची कथा!!
जवाब देंहटाएंअसली महात्मा कभी विचलित नहीं होते
जवाब देंहटाएंकामनाओं, विकारों को एक मौक़ा भर चाहिए होता है, फिर इस बीज का वृक्ष बनते देर नहीं लगती| और इस बात को सिर्फ संत ही नहीं कुटिल भी अच्छे से जानते हैं|
जवाब देंहटाएंसत्य लिखा है ... बहुत मुश्किल है सद्विचार पे टिक के रहना ... और विशेष कर जब लुभाव सामने हो ...
जवाब देंहटाएंसत्य लिखा सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंवाकई बेजोड है यह बोध कथा !
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी ...........बेहद विनम्रतापूर्वक इस कथा पर अपना एक मत रखना चाहूँगा कि हमारे यहाँ भगवान शंकर भी अपने पास त्रिशूल रखते हैं ,भगवान विष्णु भी अपने पास सुदर्शन चक्र रखते हैं आदि आदि .........तो क्या उनका शस्त्रों को धारण करना भी क्या गलत है ????
जवाब देंहटाएंप्रश्नवादी जी,
हटाएंप्रस्तुत कथा साधको के लिए है और साधु श्रोता एवँ पाठक, साधक ही है.
जो लक्ष्य सिद्ध देव है उनके स्वरूप व कर्म पर निर्णय देना अनधिकार चेष्टा है.
प्रत्युत्तर के लिए धन्यवाद सुज्ञ जी ........मेरा आशय सिर्फ इतना ही था कि शास्त्र के ज्ञान के साथ अगर आत्म-रक्षा हेतु शस्त्र भी धारण किये गए हों तो उसे दोष नहीं समझा जाना चाहिए ......एक बार पुनः शुक्रिया
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की ११०० वीं बुलेटिन, एक और एक ग्यारह सौ - ११०० वीं बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंप्रेरक, शानदार, जबरदस्त।
जवाब देंहटाएंप्रेरक, शानदार, जबरदस्त।
जवाब देंहटाएंआपका कथन सारपूर्ण है और शिल्पा जी की बात भी जमी - सच में विशेष उदासी बन कर वनवास में रहे होते तो न सूपनखा की नाक काटी जाती न आगे का घटना-क्रम ऐसा होता .
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