उभरती बुराई ने दबती-सी अच्छाई से कहा, "कुछ भी हो, लाख मतभेद हों, है तो तू मेरी सहेली हो। मुझे अपने सामने तेरा दबना अच्छा नहीं लगता। आ, अलग खड़ी न हो, मुझ में मिल जा, मैं तुझे भी अपने साथ बढ़ा लूंगी, समाज में फैला लूंगी।"
भलाई ने शांति से उत्तर दिया, "तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।"
"क्यों?" आश्चर्यभरी अप्रसन्नता से बुराई ने पूछा।
"बात यह है कि मैं तुमसे मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी, तब तो तुम-ही-तुम होगी सब जगह।" अच्छाई ने और भी शान्त होकर उत्तर दिया।
गुस्से से उफन कर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर जकड़ कर फैला दी और फुंकार कर कहा, "ले, भोग मेरे निमन्त्रण को ठुकराने का नतीजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाये! दुनिया में तेरे फैलने का अब कोई मार्ग नहीं।"
अच्छाई ने अपने नन्हे अंकुर की आंख से जहाँ भी झांका, उसे बुराई की जकड़बंध झाड़ी के तेज कांटे, भाले के समान तने हुए दिखाई दिए। सचमुच आगे कदम भर सरकाने की भी जगह न थी।
बुराई का अट्टहास चारों ओर गूंज गया। परिस्थितियां निश्चय ही प्रतिकूल थीं। फिर भी पूरे आत्म्-विश्वास से अच्छाई ने कहा, "तुम्हारा फैलाव आजकल बहुत व्यापक है, बहन! जानती हूं इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे वृद्धि और प्रसार पाने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे कोमल फूलों की महक चारों ओर फैल जायगी और सभी की दृष्टि मोहक फूलों पर जमेगी, तब तेरा अस्तित्व ओझल ही रहेगा। अन्ततः यह जानना भी कठिन होगा कि तुम हो कहाँ।"
व्यंग्य की शेखी से इठलाकर बुराई ने कहा, "दिल के बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।"
गहन सन्तुलन में अपने को समेटकर अच्छाई ने कहा, "तुम हंसना चाहो, तो जरुर हंसो, मुझे आपत्ति नहीं, पर जीवन के इस सत्य को कृत्रिम हंसी में झुठलाया नहीं जा सकता कि तुम्हारे प्रसार और प्रशंसकों की भी एक सीमा है, क्योंकि उस अति की सीमा तक तुम्हारे पहुंचते-न-पहुंचते तुम्हारे सहायकों और अंगरक्षकों का ही दम घुटने लगता है। जबकि इसके विपरित मेरे फैलाव की कोई सीमा ही प्रकृति ने नहीं बांधी, बुराई बहन!!"
बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके काँटों की शक्ति स्वयंमेव पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से वृद्धि पा रहा है।
भलाई ने शांति से उत्तर दिया, "तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।"
"क्यों?" आश्चर्यभरी अप्रसन्नता से बुराई ने पूछा।
"बात यह है कि मैं तुमसे मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी, तब तो तुम-ही-तुम होगी सब जगह।" अच्छाई ने और भी शान्त होकर उत्तर दिया।
गुस्से से उफन कर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर जकड़ कर फैला दी और फुंकार कर कहा, "ले, भोग मेरे निमन्त्रण को ठुकराने का नतीजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाये! दुनिया में तेरे फैलने का अब कोई मार्ग नहीं।"
अच्छाई ने अपने नन्हे अंकुर की आंख से जहाँ भी झांका, उसे बुराई की जकड़बंध झाड़ी के तेज कांटे, भाले के समान तने हुए दिखाई दिए। सचमुच आगे कदम भर सरकाने की भी जगह न थी।
बुराई का अट्टहास चारों ओर गूंज गया। परिस्थितियां निश्चय ही प्रतिकूल थीं। फिर भी पूरे आत्म्-विश्वास से अच्छाई ने कहा, "तुम्हारा फैलाव आजकल बहुत व्यापक है, बहन! जानती हूं इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे वृद्धि और प्रसार पाने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे कोमल फूलों की महक चारों ओर फैल जायगी और सभी की दृष्टि मोहक फूलों पर जमेगी, तब तेरा अस्तित्व ओझल ही रहेगा। अन्ततः यह जानना भी कठिन होगा कि तुम हो कहाँ।"
व्यंग्य की शेखी से इठलाकर बुराई ने कहा, "दिल के बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।"
गहन सन्तुलन में अपने को समेटकर अच्छाई ने कहा, "तुम हंसना चाहो, तो जरुर हंसो, मुझे आपत्ति नहीं, पर जीवन के इस सत्य को कृत्रिम हंसी में झुठलाया नहीं जा सकता कि तुम्हारे प्रसार और प्रशंसकों की भी एक सीमा है, क्योंकि उस अति की सीमा तक तुम्हारे पहुंचते-न-पहुंचते तुम्हारे सहायकों और अंगरक्षकों का ही दम घुटने लगता है। जबकि इसके विपरित मेरे फैलाव की कोई सीमा ही प्रकृति ने नहीं बांधी, बुराई बहन!!"
बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके काँटों की शक्ति स्वयंमेव पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से वृद्धि पा रहा है।
सटीक और दूर तक मार करने वाली करती बधाई सुज्ञ जी स्वतंत्रता दिवस की भी
जवाब देंहटाएंकाँटों के बिम्ब के माध्यम से सटीक बात को रखा है बुराई कितनी भी खुश हो जाए अच्छाई से हमेशा ही हार जाती है बहुत बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी लगी बोध -कथा...रिकार्ड करने की अनुमति चाहिए...
जवाब देंहटाएंस्वागत है
हटाएंप्रेरक कथा.. इतनी सरलता और सुबोध रूप से आपने कहा है इसे कि बस ह्रदय को छू गयी!! सुज्ञ जी, आभार!!
जवाब देंहटाएंacchaai hoti hi aisee hai :)
जवाब देंहटाएंमानसून मनभर बरस, हरसाया इस बरस |
जवाब देंहटाएंकांटे सड़ते टूटते, रही लताएँ हरस |
रही लताएँ हरस, सरस उर्वरा धरा ने |
कर के अंकुर परस, लगी नित उसे बढाने |
होय बुराई पस्त, ढकी फूलों से झाड़ी |
लता बढ़ी मदमस्त, हराती बड़ी खिलाड़ी ||
लता बढ़ी मदमस्त, हारती बुरी खिलाड़ी ||
हटाएंसहजता से समझाई गहरी बात ....
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है सुज्ञ जी कि ये अच्छाई और बुराई, प्रकाश-अंधकार दोनों पक्ष हमेशा रहेंगे|
जवाब देंहटाएंसरल बिम्बों में सरस कथा रोचक भी है और प्रेरक भी|
गम्भीर, प्रेरक, सुन्दर, और ... सत्य!
जवाब देंहटाएंबुराई अच्छाई को अपने में समेट ले तो कोई बुराई नहीं है ।
जवाब देंहटाएंबुराई और अच्छाई साथ ही चलती है , विश्वास तो यही होता है कि जीत अच्छाई की ही होगी , हालाँकि कई बार विश्वास बुरी तरह टूटता है फिर भी लौ जगाये रखनी ही होगी !
जवाब देंहटाएंबुराई और अच्छाई का अस्तित्व भी शाश्वत सत्य है, इतना ही नहीं अच्छाई को उजागर भी बुराई ही करती है। अपेक्षा यह है कि अच्छाई कोपल भर भारी होनी चाहिए……
जवाब देंहटाएंदोनो सहेलियाँ सदियों से रही हैं सदियों रहेंगी। कभी किसी का असर अधिक होगा, कभी किसी का। एक मर जाय दूसरी जीवित रहे, यह हो नहीं सकता।
जवाब देंहटाएंसरल एवं सहज़ शब्दों में आपकी यह प्रस्तुति मन को भावविभोर कर गई ... आभार
जवाब देंहटाएंबुराई पर हमेशा अच्छाई की विजय होती है,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति,,,,सुज्ञ जी,बधाई,,,,
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,,
RECENT POST...: शहीदों की याद में,,
कितनी सरलता, सहजता और रोचकता के साथ... वाह!! इतनी अच्छी बोध कथा....
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
बुराईयों को सीमित क्षेत्र में ही रखा जाये..
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