एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, "मेरी पत्नी धर्म-साधना-आराधना में बिलकुल ध्यान नहीं देती। यदि आप उसे थोड़ा बोध दें तो उसका मन भी धर्म-ध्यान में रत हो।"
साधु बोला, "ठीक है।""
अगले दिन प्रातः ही साधु उस व्यक्ति के घर गया। वह व्यक्ति वहाँ नजर नहीं आया तो साफ सफाई में व्यस्त उसकी पत्नी से साधु ने उसके बारे में पूछा। पत्नी ने कहा, "वे चमार की दुकान पर गए हैं।"
पति अन्दर के पूजाघर में माला फेरते हुए ध्यान कर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। त्वरित बाहर आकर बोला, "तुम झूठ क्यों बोल रही हो, मैं पूजाघर में था और तुम्हे पता भी था।""
साधु हैरान हो गया। पत्नी ने कहा- "आप चमार की दुकान पर ही थे, आपका शरीर पूजाघर में, माला हाथ में किन्तु मन से चमार के साथ बहस कर रहे थे।"
पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। कल ही खरीदे जूते क्षति वाले थे, खराब खामी वाले जूते देने के लिए, चमार को क्या क्या सुनाना है वही सोच रहा था। और उसी बात पर मन ही मन चमार से बहस कर रहा था।
पत्नी जानती थी उनका ध्यान कितना मग्न रहता है। वस्तुतः रात को ही वह नये जूतों में खामी की शिकायत कर रहा था, मन अशान्त व असन्तुष्ट था। प्रातः सबसे पहले जूते बदलवा देने की बेसब्री उनके व्यवहार से ही प्रकट हो रही थी, जो उसकी पत्नी की नजर से नहीं छुप सकी थी।
साधु समझ गया, पत्नी की साधना गजब की थी और ध्यान के महत्व को उसने आत्मसात कर लिया था। निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है। पति की त्रृटि इंगित कर उसे एक सार्थक सीख देने का प्रयास किया था।
धर्म-ध्यान का मात्र दिखावा निर्थक है, यथार्थ में तो मन को ध्यान में पिरोना होता है। असल में वही ध्यान साधना बनता है। यदि मन के घोड़े बेलगाम हो तब मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या औचित्य?
साधु बोला, "ठीक है।""
अगले दिन प्रातः ही साधु उस व्यक्ति के घर गया। वह व्यक्ति वहाँ नजर नहीं आया तो साफ सफाई में व्यस्त उसकी पत्नी से साधु ने उसके बारे में पूछा। पत्नी ने कहा, "वे चमार की दुकान पर गए हैं।"
पति अन्दर के पूजाघर में माला फेरते हुए ध्यान कर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। त्वरित बाहर आकर बोला, "तुम झूठ क्यों बोल रही हो, मैं पूजाघर में था और तुम्हे पता भी था।""
साधु हैरान हो गया। पत्नी ने कहा- "आप चमार की दुकान पर ही थे, आपका शरीर पूजाघर में, माला हाथ में किन्तु मन से चमार के साथ बहस कर रहे थे।"
पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। कल ही खरीदे जूते क्षति वाले थे, खराब खामी वाले जूते देने के लिए, चमार को क्या क्या सुनाना है वही सोच रहा था। और उसी बात पर मन ही मन चमार से बहस कर रहा था।
पत्नी जानती थी उनका ध्यान कितना मग्न रहता है। वस्तुतः रात को ही वह नये जूतों में खामी की शिकायत कर रहा था, मन अशान्त व असन्तुष्ट था। प्रातः सबसे पहले जूते बदलवा देने की बेसब्री उनके व्यवहार से ही प्रकट हो रही थी, जो उसकी पत्नी की नजर से नहीं छुप सकी थी।
साधु समझ गया, पत्नी की साधना गजब की थी और ध्यान के महत्व को उसने आत्मसात कर लिया था। निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है। पति की त्रृटि इंगित कर उसे एक सार्थक सीख देने का प्रयास किया था।
धर्म-ध्यान का मात्र दिखावा निर्थक है, यथार्थ में तो मन को ध्यान में पिरोना होता है। असल में वही ध्यान साधना बनता है। यदि मन के घोड़े बेलगाम हो तब मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या औचित्य?
रोचक कथा..मन से ही सब कुछ है, भक्ति भी, विरक्ति भी..
जवाब देंहटाएंसही कहा प्रवीण जी,
हटाएंन केवल भक्ति और विरक्ति बल्कि पुरूषार्थ भी मन के अधीन है। :)
वास्तव में आज पति जी वाली साधना ही सर्वत्र व्याप्त है, हर चीज में दिखावा ही प्रमुखता से दिखता है ................. वास्तविक साधना तो उन प्रज्ञा संपन्न विदुषी जैसी ही है ........... ईश्वर करे हम सभी वास्तविक मार्ग पर ही अग्रसर हों. आभार इस पोस्ट के लिए .
जवाब देंहटाएं************************
पर एक बात बताइए कि आपने कौनसा रसायन सेवन किया है एईके दम से जवान हो गए है, यह कैसा चमत्कार है :)))))
एलो वेरा ? :)
हटाएंअमित जी,
हटाएंसही निष्कर्ष वास्तविक साधना तो उन प्रज्ञा संपन्न विदुषी जैसी ही हो, जिस समय, जब भी, जिस कृतव्य को हम उद्धत हो, एकाग्रता उस कर्म को समर्पित हो।
@कौनसा रसायन.....:)
फोटो खिंचवाने के उद्देश्य से 10 मिनट के लिए स्मार्ट दिखने का 'ध्यान' धरा… :)
मन के विचारों के अनुरूप आन्तरिक रसायनो का स्राव हुआ… और यह चमत्कार हुआ… :)
@एलो वेरा ? :)
संजय जी,
ऐ,लो!! वैरा :) सही कहा, खूबसूरती से हमारा वैर थोडे ही है। :)
...कर्म से ही जुड़ा है जाति-धर्म !
जवाब देंहटाएंहाँ, पुरूषार्थ प्रधान है।
हटाएंधर्म-ध्यान का मात्र दिखावा नहीं, मन को ध्यान में पिरोना होता है तभी वह साधना बनती है। मन के घोड़े बेलगाम हो और मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या लाभ?
जवाब देंहटाएंबिलकुल सटीक सीख देती कथा ...
गीत दीदी,
हटाएंआभार!!
sarthak kathaa ..!!
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी, आभार
हटाएंध्यान, बहुत सरल साधना है..
जवाब देंहटाएंएक आदमी अमरता की दवा लेने एक साधू के पास गया.. साधू ने उसे दवा दी, लेकिन एक शर्त थी कि वो दवा खाते समय उसे बन्दर का ध्यान नहीं करना चाहिए.. फिर क्या था, दूसरे दिन वो साधू को औषधि लौटा गया.. क्योंकि उसे पिछले चौबीस घंटे से केवल बन्दर-ही बन्दर दिखायी दे रहे थे..!!
बहुत सरल है ध्यान की प्रक्रिया और कठिन भी.. एक बौद्ध भिक्षु के पास एक व्यक्ति ध्यान सीखने आया और भिक्षु ने उस आदमी को पास की एक गुफा में भेज दिया.. जाने से पहले पूछा कि कोई है तुम्हारा प्रिय, बस उसी का ध्यान करो.. यहीं से आरम्भ होगी तुम्हारी साधना. उसने कहा कि मेरी भैंस मुझे सबसे प्यारी है, और कोई नहीं..
भिक्षु ने भैंस का ही ध्यान साधने को कहा..
आश्चर्य!!!!!! दो दिनों के बाद उस व्यक्ति के रम्भाने की आवाज़ आने लगी उस गुफा से. और जब उसे गुफा से निकालने को कहा गया तो वह बोला कि मेरे सींग गुफा में फंस रहे हैं!!
/
ध्यान और साधना.. बहुत सरल!! बहुत जटिल प्रक्रिया!!
सलिल जी,
हटाएंसटीक चिंतन को उजागर करते आपके ये बोल……
"ध्यान और साधना.. बहुत सरल!! बहुत जटिल प्रक्रिया!!"
आपकी टिप्पणी पूरक है। आभार
आजकल ये सब सुनने में बहुत अच्चा लगता है....पर इतना आसान नहीं....
जवाब देंहटाएंआभार प्रार्थना जी,
हटाएंआसान तो नहीं है किन्तु प्रत्येक क्षेत्र में ध्यान और एकाग्रता की आवश्यकता निर्विवाद है।
ऊप्स!.. स्पैम!!
जवाब देंहटाएंआज कल टिप्पणी करते समय सारा ध्यान स्पैम पर ही लगा होता है!!
देखिये गयी ना!!
हमारी टिप्पणी भी वहीं है शायद!
हटाएंहमारी तो सदियों से पड़ी है.. सुज्ञ जी व्यस्त हैं शायद..
हटाएंबड़ी देर भई, बड़ी देर भई,
कब लोगे खबर मेरी, राम!!
क्षमा करें सभी मित्र!!
हटाएंबिना सूचना के ही ध्यान शरण में चला गया, और आपको स्पैम ध्यान करना पडा। :)
nice . कैराना उपयुक्त स्थान :जनपद न्यायाधीश शामली :
जवाब देंहटाएंnice . कैराना उपयुक्त स्थान :जनपद न्यायाधीश शामली :
जवाब देंहटाएंशालिनी कौशिक ज़ी,
हटाएंआभार
ऐसी एक कथा गुरू नानकदेव जी से सबंधित भी सुनी है, कुछ कुछ याद आ रही है| असल में बाह्याडम्बर ध्यान की अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक हैं, शांत बैठकर ध्यान करना सोचने में बहुत सरल लगता है लेकिन मन बेलगाम घोड़ों की तरह निश्चल नहीं रहने देता|
जवाब देंहटाएंजी, संजय जी
हटाएंइस जगत में सबसे दुष्कर है मन के घोडों को नियंत्रित कर पाना।
सबसे दुष्कर है मन के घोडों को नियंत्रित कर पाना।
हटाएंवास्तव में, ये घोड़े इतनी आसानी से नहीं सधते.
पूजा के समय मैं रोज ही चमार की दुकान पर होता हूँ, :) गया न मन का मेल.
दीपक जी,
हटाएंएक के साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
मन को साधने से सब सध जाता है किन्तु सभी को साधने के प्रयास में सभी फिसल जाता है।
आता और न जाता है मन,
जवाब देंहटाएंखड़े-खड़े इतराता है मन!
एकदम सच्ची बात। चलायमान चित्त को थामना कठिन काम है, बहुत अभ्यास और दृढनिश्चय की आवश्यकता है।।
सही कहा अनुराग जी,
हटाएंचित्त चलायमान है, चंचलता उसका स्वभाव है किन्तु उस पर दृढनिश्चय से नियंत्रण और समुचित प्रबंधन ही तो पुरूषार्थ है।
वाकई मन काबू नहीं रहता ...
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
आभार जी
हटाएंकहानी पढ़ते हुए मुझे एक अन्य पक्ष दिखायी दिया....
जवाब देंहटाएंपति महोदय 'पूजा-अर्चना' बेशक एकाग्रचित्त होकर नहीं कर रहे थे.... लेकिन वे सतर्क थे कि कहीं कुछ 'अनुचित' घट रहा है... चलकर उसे रोका जाय.
मैं भी उस जगह होता तो वही करता लेकिन मन में पछतावा लेशमात्र नहीं लाता. मेरे लिये तो 'शारीरिक उपस्थिति' का महत्त्व 'मानसिक उपस्थिति' से ज़्यादा है.
'मानसिक उपस्थिति' बताने का यहाँ औचित्य है ही नहीं..... साधु का सीधा-सा प्रश्न 'पति की शारीरिक मौजूदगी' सम्बन्धी था.... पत्नी द्वारा बोला गया झूठ
महाभारत में युधिष्ठर के बोले गये झूठ से कमतर नहीं ठहराया जा सकता.
अगर पत्नी अपना उत्तर 'घर के ही किसी अन्य सदस्य' से हँसी-मज़ाक में बोलती तो उसका झूठ क्षम्य माना जा सकता था.... लेकिन यहाँ वह एक अपरिचित से ऐसा बोलना 'सरासर झूठ' ही कहा जायेगा.
साधु से वह पहली बार में ही हँसी-मज़ाक नहीं करेगी... यदि वह ऐसा करती है तो वह सामाजिक अशिष्टता कही जायेगी.
* सुधार -
हटाएंलेकिन यहाँ एक अपरिचित से ऐसा बोलना 'सरासर झूठ' ही कहा जायेगा.
प्रतुल जी,
हटाएंचर्चा को उत्प्रेरित करने के आपके विशिष्ठ अंदाज को मैं जानता हूँ :)
चिंतन चर्चा मंथन की हमें भी पिपासा रहती है। उद्देश्य जब मंथन हो तो ध्यान में तरंग पैदा करना सार्थक हो जाता है, आपका आभार!!
साधु जो कि दार्शनिक क्षेत्र का पात्र था, उसे दार्शनिक गूढ़ गम्भीर प्रत्युत्तर देना विषय और पात्र के अनुकूल ही था। और प्रज्ञावान पत्नी को आभास भी था कि उसका आगमन 'ध्यान में बैठने' के उपदेशार्थ हुआ है।
जिज्ञासा :
जवाब देंहटाएंक्या पूजा विधिवत या फलदायी तभी मानी जायेगी जब वह बिना आसन डिगाय की जाय?
प्रतुल जी,
हटाएंन केवल पूजा-प्रार्थना-ध्यानविधि बल्कि संसार के प्रत्येक कर्म स्थिर आसन( एकाग्रता) से ही फलदायी होते है।
जवाब देंहटाएंधर्म-ध्यान का मात्र दिखावा नहीं, मन को ध्यान में पिरोना होता है तभी वह साधना बनती है। मन के घोड़े बेलगाम हो और मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या लाभ?
सटीक आकलन
आभार, वंदना जी!!
हटाएंदुविधा :
जवाब देंहटाएंतमाम तरह के जप-तप, आसन, प्राणायाम और साधना करने के उपरान्त अब मेरी ईश-वंदना में अरुचि क्यों हो गई है.... क्या मैं नास्तिकता की और अग्रसर हूँ?
तमाम तरह की पीटी, दंड-बैठक, लाठी-छुरी और कुंगफू जैसे व्यायाम करने के उपरान्त अब मेरी ऊर्जा गृह-कार्यों में ही क्यों अधिक क्यों लगने लगी है.... क्या मैं घरेलू होकर रह गया हूँ?
घर में दैवीय प्रकोप होने से अथवा पड़ौस शोकाकुल होने से मेरे 'संध्या-भजन' एकाग्र कैसे बन सकते हैं?
यदि मैं तात्कालिक परिस्थितियों से कुछ समय को प्रभावित रहता हूँ तो क्या अपराध करता हूँ?
उपरोक्त सभी स्थितियों में प्रायः मन के सहज ही चलायमान होने से प्राथमिकताएँ बदलती रहती है। अचल रहना बड़ा कठिन कार्य है और धैर्य का मंजिल के एकदम निकट आकर चुक जाना आमफहम।
हटाएंबचने की पूर्व तैयारी के उपरांत भी प्रभावित हो जाना सामान्य वृति है, उसे अपराध तो कैसे माना जाय? वह कोशिशों की पराजय है जो सूचित करती है अभ्यास जारी रहे।
पत्नी जी एक अर्चना पद्धति में विश्वास करके सुबह और शाम एक-एक घंटे प्रार्थना और जप करती हैं....
जवाब देंहटाएंउस बीच यदि मैं भी आसन जमा लूँ तो अचानक मिलने आये हुए आगंतुक बिना कारण बताये लौट जायेंगे.... निराश होंगे.
अति व्यस्त जीवनचर्या में बहुत कुछ छूट जायेगा.... मोबाइल में कुछ मिस कॉल मिलेंगी... धोबी कपड़े लेने को आगे से नहीं आयेगा,
और यदि माता-पिताजी उसी समय अपनी-अपनी पूजा में लगे हुए हों तो न जाने कितने का होने से रुक जाएँ....
आजकल पूजा-अर्चना भी तो अपनी सुविधा समय के हिसाब से की जाती है.... तब ऐसे में सबके कामकाज एक-दूसरे को क्रेश करते हैं.... कूढ़े की गाड़ी वाला, भिक्षा माँगने वाला, सब्जी बेचने वाला, फ़ल वाला, जूस वाला आदि (जिनपर कि दैनिक जीवन पूरी तरह लंबित हो गया है) चिल्लाते रहें.... उनके चिल्लाने को अनसुनाकर वह शांतचित्त होकर आराधना करे तो कैसे करे?
सुधार :
हटाएंयदि माता-पिताजी उसी समय अपनी-अपनी पूजा में लगे हुए हों तो न जाने कितने काम होने से रुक जाएँ....
आदरणीय प्रतुल जी
हटाएंकई जगह, काफी समय से, आपके कई प्रश्न पढ़ती अ रही हूँ | कई बार लगता है की प्रश्न जिज्ञासावश हों शायद, परन्तु अक्सर ऐसा नहीं लगता | हो सकता है कि यह मेरी समझ का फेर हो, आप सच ही प्रश्न पूछ रहे हों, और यदि ऐसा है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ |
@'मानसिक उपस्थिति' बताने का यहाँ औचित्य है ही नहीं..... साधु का सीधा-सा प्रश्न 'पति की शारीरिक मौजूदगी' सम्बन्धी था.... पत्नी द्वारा बोला गया झूठ
महाभारत में युधिष्ठर के बोले गये झूठ से कमतर नहीं ठहराया जा सकता.........
---- पोस्ट का, कथा का अर्थ बड़ा स्पष्ट सा है, और पत्नी मज़ाक नहीं कर रही थी साधू से, न झूठ ही कह रही थी | मानसिक उपस्थिति के बिना पूजा, पूजा होती ही नहीं | यह हम लोगों की परिभाषा है पूजा की , कि अपने ही बनाये/ खरीदे चित्रों के आगे कुछ देर बैठ जाना और कुछ शब्द रट देना / अगरबत्तियां घुमा देना पूजा है | इस मानसिक उपस्थिति विहीन पूजा को धर्म पद्धति में अनुचित बताया गया है | ऑफिस में बॉस से बात करने भी जाते हैं तो शारीरिक के साथ मानसिक उपस्थिति भी रखते हैं| और जिसे परमेश्वर कहते हैं, उसे बॉस जितनी अहमियत भी नहीं देते ? उसके आगे सिर्फ शारीरिक उपस्थिति काफी है ? तो आपके ऊपर पूछे प्रश्न का उत्तर यहाँ ही है |............... रही बात युधिष्ठिर के "झूठ" की - तो युधिष्ठिर पर उँगलियाँ उठाने के लिए मैं अपने आप को बहुत छोटा मानती हूँ |
@ क्या पूजा विधिवत या फलदायी तभी मानी जायेगी जब वह बिना आसन डिगाय की जाय?
विधिवत तो तभी होगी | फलदायी इसके बिना भी हो सकती है | फलदायी और विधिवत दोनों अलग अलग बातें हैं | जैसे - आप ही के कहे अनुसार - युधिष्ठिर का "झूठ" विधिवत भले न रहा हो, फलदायी तो रहा ही - उसका अपेक्षित फल था द्रोणाचार्य का वध, और यह फल फलीभूत भी हुआ | तो 'फलदायी' होना ही 'विधिवत' होने की कसौटी नहीं होती |
@ तमाम तरह के जप-तप, आसन, प्राणायाम और साधना करने के उपरान्त अब मेरी ईश-वंदना में अरुचि क्यों हो गई है.... क्या मैं नास्तिकता की और अग्रसर हूँ?
आपकी अरुचि की वजह आप ही बेहतर जान सकते हैं | वैसे ईश वंदना में अरुचि होने का कारण अक्सर एक ही होता है - कि हम वंदना कर ही नहीं रहे थे | हमारी "वंदना" वन्दना नहीं थी, बल्कि मन वांछित जीवन / फल आदि की मांग थी, और वह पूरी नहीं हुई तो हमें सौदा तोड़ने का जी होने लगा | 'नास्तिकता की और अग्रसर' जैसी कोई चीज़ नहीं होती | यदि इश्वर में विश्वास है, तो है, और यदि सौदेबाजी है - तो वंदना करते हुए भी वह दुकानदारी ही है, आस्तिकता नहीं है | आप नास्तिक हैं या आस्तिक इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ आप ही दे सकते हैं, और कोई नहीं | यदि नास्तिक हैं, तो इमानदारी से इसे स्वीकार कीजिये, और यदि आस्तिक हैं, तो इमानदारी से इसे भी स्वीकार कीजिये |
हटाएं@ यदि मैं तात्कालिक परिस्थितियों से कुछ समय को प्रभावित रहता हूँ तो क्या अपराध करता हूँ?
यदि यह प्रभावित होना सिर्फ आपको प्रभावित करे - तब शायद यह अपराध न हो | किन्तु यदि यह आपके धर्म / कर्म / कर्त्तव्य, या आपके आस पास दूसरों के धर्म / कर्म / कर्त्तव्य/ सुख / शांति के आड़े आ रहा है , तो यह निश्चित ही अपराध है | यदि आप - काम /क्रोध / लोभ / मोह या अहंकार के चलते सत्य के विरुद्ध हैं, कर्त्तव्य से विमुख हैं - तो निश्चित रूप से अपराध है | यदि आप अपना धर्म / कर्म / कर्त्तव्य निभा रहे हैं उचित रूप से - तो फिर 'प्रभावित' मनःस्थिति अपराध नहीं है |
@ पत्नी जी एक अर्चना पद्धति में विश्वास करके सुबह और शाम एक-एक घंटे प्रार्थना और जप करती हैं.... उस बीच यदि मैं भी आसन जमा लूँ ... को अनसुनाकर वह शांतचित्त होकर आराधना करे तो कैसे करे?
---------समय अपनी सुविधानुसार तय कीजिये | परन्तु उस समय एकाग्र रहिये | यदि नहीं कर सकते - तो वह सिर्फ कर्मकांड है, आराधना है ही नहीं | अपने मन में यह गाँठ बांध रखिये कि सिर्फ मूरत के आगे बैठना कभी आराधना नहीं होती | मूर्तिपूजा का आरंभ हुआ ही इसलिए कि मनुष्य को एकाग्रचित्त होने में सहायता हो | और उसी एकाग्र होने को दी गयी सुविधा को हमने एकाग्रता से बचने का साधन बना लिया - बस मूर्ती के आगे घंटियाँ घनघना कर हम अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझने लगे |
जिज्ञासा / प्रश्न सिर्फ एक तरफा फेंकें जाने वाले पत्थर नहीं होते - "जिज्ञासा" शब्द के साथ ही उसके समाधान को स्वीकार करने की प्रवृत्ति भी आवश्यक है | यदि समाधान स्वीकार्य न हो, तो अपनी बात प्रश्न रूप में नहीं बल्कि statement रूप में उचित है | प्रश्न पूछिए, तो उत्तरों के लिए ओपन भी रहिये |
यह प्रश्न मुझसे थे भी नहीं, परन्तु फिर भी कई बार इसी तरह के प्रश्न देखती आई हूँ, तो रहा नहीं गया - उत्तर यदि अनुचित लग रहे हों, तो सुज्ञ जी इस टिपण्णी को डिलीट कर दीजियेगा |
आभार |
कई जगह, काफी समय से,आपके कई प्रश्न पढ़ती आ रही हूँ|कई बार लगता है की प्रश्न जिज्ञासावश हों शायद,परन्तु अक्सर ऐसा नहीं लगता|हो सकता है कि यह मेरी समझ का फेर हो,आप सच ही प्रश्न पूछ रहे हों,और यदि ऐसा है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ|
हटाएं@ शिल्पा जी, इन सब तर्कपूर्ण बातों से अधिक आदर बढ़ जाता है... 'शिल्पा' आप हैं किन्तु चर्चा का शिल्प मुझे बुनना पड़ता है.... जब भी कहीं कुछ प्रभावी लेख, कविता या विचार पढ़ता हूँ तो उसे हर दृष्टि से आत्मसात करने को उतावला हो उठता हूँ... 'प्रश्न' और 'जिज्ञासा' यदि तर्कशास्त्रियों व चिंतकों के समक्ष न रखे जाएँ तो कहाँ रखे जाएँ?
मैं पूजा के संकीर्ण (कुंठित) क्षेत्र से निकलकर विष्णु (बैकुंठ) क्षेत्र में जा बैठा....
मैंने अर्चना की यथासंभव कई स्थितियों का अनुभव किया है...यथासम्भव एकाग्रता, जप, तप, धारणा, ध्यान तक के माध्यमों को परमेश्वर तक पहुँचने में प्रयुक्त किया है. और पूजा को जिस रूप में समझा है वह कहता हूँ....
— देने वाले के प्रति आभार ज्ञापन है पूजा.
— प्रकृति के कण-कण में उसे देखकर प्रसन्न होना है पूजा.
— अवरोधों (बाधाओं) का शारीरिक व मानसिक होती क्रियाओं में खलल डालना पूजा से अलग कैसे... पूजा तो हम उन सबके अधिष्ठाता की ही कर रहे हैं, जो अच्छे और बुरे सभी का जनक है.... वह कम्पनी के बॉस की तरह केवल सीमित क्षमता और अधिकार वाला तो नहीं है ना! वह तो मेरा भी स्वामी है और मुझसे शत्रुता रखने वाले का भी. मैं जिसे अपने लाभ के लिये उपयोगी मानता हूँ वह उसके साथ भी है और उसके लिये भी उतना ही न्यायकारी है जो मेरे लिये निरुपयोगी बना हुआ है.
शिल्पा जी, अभी मुझे प्रगति की ओर गति करनी पड़ रही है.... इसलिये इस सुखद चर्चा को छोड़ने को विवश हूँ.... परमात्मा मुझे 'दिल्ली पुस्तक मेले' में चलने को संकेत कर रहा है... वहाँ 'बाल साहित्यकारों की बैठक में मुझे निमंत्रण है.... इसलिये इस व्यवधान के लिये क्या करूँ? आपसे आगे बात करने शायद कल ही लौट पाउँगा?
** इन तर्कपूर्ण बातों से आदर अधिक बढ़ जाता है...
हटाएं*प्रगति = प्रगति मैदान
हटाएं@ऐसे में सबके कामकाज एक-दूसरे को क्रेश करते हैं.... कूढ़े की गाड़ी वाला, भिक्षा माँगने वाला, सब्जी बेचने वाला, फ़ल वाला, जूस वाला आदि (जिनपर कि दैनिक जीवन पूरी तरह लंबित हो गया है) चिल्लाते रहें.... उनके चिल्लाने को अनसुनाकर वह शांतचित्त होकर आराधना करे तो कैसे करे?
हटाएंप्रतुल जी,
जीवन व्यवहार के इन छोटे छोटे कार्यों के समय पर संपादन होने के प्रति हम कितने समर्पित है, एकाग्रचित से उनके समय का निर्वाह करते है, क्या ध्यान रूपी आत्मचिंतन इतना हेय है कि इन सभी सामान्य कार्यों के बीच उसकी उपस्थिति बर्दास्त नहीं करते। प्रत्येक कार्य के समय प्रबंधन का ध्यान रखते है, क्या 'ध्यान' आत्मचिंतन के लिए हम समय प्रबंधन भी नहीं कर सकते?
धोबी का हिसाब करते हुए कोई बीच में दूसरी बात से हस्तक्षेप करे तो तत्काल कह उठते है- "बीच में डिस्टर्ब न करो वर्ना हिसाब में भूल पड़ जाएगी" मामूली सी बात पर कितने एकाग्रचित? वहीं 'ध्यान' की बात में विचलन व हस्तक्षेप सजगता बन जाता है?
दूसरों के लिए तो हमारे पास समय की कोई कमी नहीं किन्तु जो ध्यान आत्मचिंतन स्वयं हमारे अपने लिए है, हमारे पास समय नहीं या गम्भीरता नहीं।
आस्तिकता या नास्तिकता न तो बोल कर कहने की वस्तु है न प्रकट करने की वस्तु है न स्वीकार या अस्वीकार करने की वस्तु है। आस्तिकता व नास्तिकता गूढ़ अन्तरआत्मा का विषय है सामान्यतया तो व्यक्ति स्वयं नहीं जानता वह आस्तिक है या नास्तिक। सौगन्ध खाने, प्रतीज्ञा करने या कलमा पढने के बाद भी पता नहीं चलता कि व्यक्ति आस्तिक है या नास्तिक।
हटाएंएक व्यक्ति हमेशा अपने कुलदेव यक्षदेव से उनकी मूर्ती के समक्ष कुछ न कुछ मांगा करता था। एक बार उसकी कोई इच्छा पूर्ण न हुई। यक्षदेव की मूर्ती जो खुले में गांव की सीमा पर थी, अपने एक मित्र के साथ आकर यक्षदेव को गालियाँ देने लगा। "तूँ किसी काम का नहीं है तेरा तो पत्थर से सर फोड देना चाहिए" कहते हुए हाथ में एक पत्थर भी उठा लिया। उसके इस दुस्साहस पर उसके मित्र की भी आँखे फट गई। यक्षदेव को पत्थर मारने को तत्पर तो हो गया साथ ही देव के अपमान का डर भी था। उस मूर्ती के पास ही आक की झाडी थी मित्र की आँख बचाते हुए मूर्ती के बजाय उस झाडी में पत्थर दे मारा। और घर को लौट चला।
किन्तु मन में अपराध बोध हावी हो रहा था।
शाम तो अकेला वापस उस स्थल पर गया तो देखा, यक्षदेव प्रकट थे उनके माथे पर पट्टी बंधी थी। उस व्यक्ति नें पूछा- देव माथे पर यह पट्टी क्यों लगी है? यक्ष नें कहा, तुमने ही तो पत्थर मारा था। उसनें कहा- पत्थर तो मैने आक की झाडी में मारा था आप पर नहीं। वही तो! तेरे पत्थर से बचने के लिए मैं उसी झाडी में ही तो छुपा था। :)
यह हास्य दंतकथा, आस्थाओं की उसी अबूझ पहेली पर आधारित है कि सच्ची आस्था का निर्धारण कोई नहीं कर पाता, स्वयं भी नहीं।
@ मैं पूजा के संकीर्ण (कुंठित) क्षेत्र से निकलकर विष्णु (बैकुंठ) क्षेत्र में जा बैठा....
हटाएं@ .... इसलिये इस सुखद चर्चा को छोड़ने को विवश हूँ.... परमात्मा मुझे ....
बिलकुल - यदि यह स्थिति है, जीवन के कर्म यदि परमात्मा के प्रेरित करने से हो रहे हैं ही, तब तो न पूजाघर में बैठने की आवश्यकता रह जाती है, न ही इतने विचार मंथन की |
नारद के सर्वश्रेष्ठ भक्ति के बारे में पूछने पर श्री विष्णु ने यही कहा था की वह किसान - जो कभी मंदिर नहीं जाता, किन्तु उसका हर कर्म ही पूजा होता है - उसे मंदिर जाने की आवश्यकता रह ही नहीं जाती | लेकिन इस कथा में उस उच्च श्रेणी की भक्ति की बात नहीं हो रही थी, इसमें साधारण प्रयास की बात हो रही थी जो अक्सर हम साधारणजन पूजा के नाम पर करते हैं |उस सन्दर्भ में मानसिक एकाग्रता के **प्रयास** आवश्यक हैं, क्योंकि मन को एकाग्र करना कोई आसान कार्य नहीं है |अर्जुन ने भी कृष्ण से कहा था गीतोपदेश के दौरान - की अनेकानेक घोड़े मैं साध सकता हूँ, किन्तु मन को साधना उससे भी कठिन है |
----------
@ पता नहीं चलता कि व्यक्ति आस्तिक है या नास्तिक।
यह तो बात आपकी सोलह आने सच है :)
प्रतुल जी, शिल्पा जी,
हटाएं’क’ का इन्तजार रहेगा।
जैसाकि मानीटर भाई ने कहा(हम तो बस मुहर लगा रहे हैं), चर्चा को आगे बढाने की यह भी एक शैली है जिसका उपयोग प्रतुलजी करते हैं। कई बार मैंने देखा है कि गलत भी समझ लिये गये लेकिन यहां ऐसी कोई गुंजाईश नहीं है। फ़िर जैसा प्रतुलजी ने कहा कि ’ 'प्रश्न' और 'जिज्ञासा' यदि तर्कशास्त्रियों व चिंतकों के समक्ष न रखे जाएँ तो कहाँ रखे जाएँ?’ (हमारी मुहर अब प्रतुलजी की बात पर) अब देखिये न, कल का नाम लिया इन्होंने तो मुझे भी गदाधारी भीम से संबंधित एक कहानी याद आ गई। खैर, हम तो ’कल’ का इंतजार करेंगे ही और प्रतुलजी से अनुरोध कि प्रगति संबंधी जानकारी भी मुहैया करवायें।
प्रगति = प्रगति मैदान :)
@ दूसरों के लिए तो हमारे पास समय की कोई कमी नहीं किन्तु जो ध्यान आत्मचिंतन स्वयं हमारे अपने लिए है, हमारे पास समय नहीं या गम्भीरता नहीं।
हटाएंकुर्बान जाऊं सुज्ञ जी, एकदम ऐसा लगा है जैसे किसी जख्म में उंगली घुसेड दी हो किसी ने|
खैर, हम तो ’कल’ का इंतजार करेंगे ही और प्रतुलजी से अनुरोध कि 'प्रगति' संबंधी जानकारी भी मुहैया करवायें।
हटाएं@ सत्संगी साथियो, क्षमा चाहता हूँ.... कल अचानक ही बाल साहित्यकारों की चर्चा में भाग लेने जाना पड़ा...
नेशनल बुक ट्रस्ट में कुछ समय कार्य करने से एक अच्छे श्रोता के रूप में मेरी भी पहचान बन गयी है... वक्ताओं को अच्छे श्रोताओं की अपेक्षा हमेशा बनी रही है... इसलिये प्रतिक्रियाशील श्रोताओं में मुझे स्थान मिलने लगा है... इसलिये 'राष्ट्रीय बाल साहित्य केंद्र के सम्पादक और पुस्तकालयाध्यक्ष जी की एक सूचना पर ही मैं वहाँ पहुँच गया...
चर्चा का विषय था : 'बच्चों को कहानी सुनाने की कला'
मुख्य चर्चाकार थे : श्रीमती क्षमा शर्मा (कार्यकारी सम्पादक नंदन से), प्रोफ़ेसर आशीष घोष (प्रसिद्ध रंगकर्मी) और श्री अशोक कुमार पाण्डेय (प्रिंसिपल, अल्कोन इंटरनेशनल स्कूल से)
सभी के संक्षेप में विचार रखता हूँ :
क्षमा शर्मा :
— बच्चों के बीच में जाकर ही कहानियों के कथ्य और विषय परखे जा सकते हैं. बच्चों से नहीं पूछा जाता कि उन्हें क्या पसंद है.
— गाँव और शहर के बच्चों का आकर्षण एक-दूसरे के परिवेश के प्रति रहता है.
— बच्चे को हमेशा तर्क नहीं भाते उसे कार्टून की दुनिया भी अच्छी लगती है.
— बच्चों को दुखांत के बजाय सुखान्त कहानियाँ अधिक भाती हैं.
— आज मीडिया द्वारा बनाए 'रोल मोडल' ही बच्चे स्वीकार रहे हैं. शायद ही कोई लेखक को अपना रोल मोडल बनाने को तैयार हो.
— बच्चे आज़ चालाक हो गये हैं. (?)
प्रोफ. आशीष घोष :
— अपने एक अनुभव बताया कि उनसे जब किसी लेखक ने पूछा कि 'तुम इतना अच्छा कैसे एक्ट कर लेते हो?' उत्तर में मैंने पूछा 'तुम इतना अच्छा कैसे कह लेते हो?' मतलब सभी की काबलियत और रुचियाँ अलग-अलग होती हैं.
— बच्चे हमेशा ग्रहण (ओब्जर्ब) करते हैं.
— 'नक़ल'(चोरी) या चालाकी' के बारे में बच्चों के विचार कुछ इस तरह है --- "नहीं करेंगे तो होशियार कैसे बनेंगे."
श्री अशोक कुमार पाण्डेय :
— क्योंकि उस दिन 'शिक्षक दिवस' भी था, इसलिये उन्होंने कुछ छात्रों से ही पूछा कि 'आप एक अध्यापक से क्या अपेक्षा रखते हैं?'
उत्तर में उन्हें एक छात्रा ने कहा - वह उचित मार्गदर्शन करे, सामाजिक बनाने के लिए हर वह उपाय करे जो जरूरी हो
— उन्होंने ये भी कहा कि बहुत बड़े बुद्धिजीवी भी कभी-कभी ऐसे कार्य करते हैं जो उनकी मूर्खता को दर्शाते हैं --
जैसे न्यूटन ने दो बिल्लियाँ पाली हुई थीं... एक छोटी थी और दूसरी मोटी और बड़ी... न्यूटन ने अपने घर में उनके आने-जाने के लिये दो छेद किये हुए थे... एक छोटा और एक बड़ा.
— बहुत छोटे बच्चे जो कहानियों की समझ नहीं रखते, उन्हें मनगढ़ंत बातों से सिखाया जा सकता है... उनके लिये वही कहानियाँ हैं.
आखिर में मेरे सवालों ने चर्चा को गरमागरम बनाया :
जब मैंने पूछा -- "मुझे लगता है -- कथा-वाचन की कला से ज़्यादा कथा वाचन के समय की समस्या है. कौन से समय में बच्चा कहानी सुनने के लिये तैयार मिलता है?
नींद आने से पहले का समय तो आरक्षित हो गया है... उस बीच या तो समाचार लगे होते हैं..या फिर दैनिक धारावाहिक, बच्चों के कार्टून नेटवर्क ने भी उन्हें बाँधा हुआ है... फिर अलग से कौन-सा समय लाया जाये जिसमें बच्चा हमारी कहानियों में रुचि ले पाये? आपने देखा होगा ... जैसे 'रेल का सफ़र' जिसमें करने को अन्य कुछ नहीं होता यात्रा करने के सिवाय... तो बातचीत अच्छी हो जाती है. अपरिचितो से भी हमारी खूब पटती है. ...
— स्कूल की पीरियड-दर-पीरियड पढ़ाई के कारण थके दिमाग बच्चे (छात्र) कोई भी कहानी सुनने को कैसे तैयार हो सकते हैं? बहुत पहले रात्रि में नींद से पहले शारीरिक थकावट से बिस्तर पर लेटा बच्चा कहानी सुनने को तैयार मिलता था, वह किसी भी बुजुर्ग के पीछे पड़ा रहता था. लेकिन आज न तो बच्चों के पास कहानी सुनने का समय है और न ही बड़ों में वे रुचियाँ हैं जो अपने बच्चों में कहानियों से सिखा सकें.'
'नक़ल'(चोरी) या चालाकी' के बारे में बच्चों के विचार कुछ इस तरह है --- "नहीं करेंगे तो होशियार कैसे बनेंगे."
हटाएंदुखद है कि बच्चों की अवधारणा में, चोरी व चालाकी, होशियारी व चतुरता के रूप में स्थापित हुए जा रही है।
पिछले शुक्रवार को हमारे कॉलेज में विवेकानंद जी के बारे में जागृति के लिए एक टीम आई थी | उन्होंने भी यह कहा कि हम मानते हैं कि हर बुराई का हल शिक्षा / एजुकेशन है | यदि एजुकेशन सिस्टम में भी भ्रष्टाचार प्रविष्ट होता जाएगा (जैसा कि हो रहा है आज ) तब तो समाज को नीचे से निचले स्तर पर जाने से रोकना असंभव ही हो जाएगा |
हटाएंऔर यह हो रहा है | स्कूल के टीचरों पर प्रेशर है अच्छे रिज़ल्ट आने का - नहीं तो (प्राइवेट) स्कूल में एडमिशन कम होंगे, और स्कूल प्रशासन को नुकसान होगा | तो टीचर क्या करें ? और सरकारी स्कूलों के टीचरों को भी एक्सप्लेनेशन देना पड़ता है बुरे नतीजों के लिए - जबकि कई गरीब घरों से बच्चों को स्कूल भेजा ही नहीं जाता | तो टीचर क्या करता है ? उसे कोई शौक थोड़े ही है कि मेमो मिले, एक्सप्लेनेशन दे | तो एक दो या तीन साल ईमानदार रहने के बाद कई शिक्षक (सब नहीं ) खुद ही परीक्षा हाल में नक़ल कराते हैं | जब नन्हे नन्हे बच्चे बचपन से देखें कि शिक्षक नक़ल करा रहे हैं - तो वे क्या सीखेंगे ?
यही बात तकनीकी शिक्षा में है | सरकार हर साल १०-१५ नए कॉलेज खोलने की अनुमति दे देती है - कैसे - यह तो हम सब जानते ही हैं | फिर उस कॉलेज की मेनेजमेंट अपने स्टाफ से कहती है कि रिज़ल्ट अच्छे नहीं आये तो तुम्हारी नौकरी गयी | तो स्टाफ क्या करेगा ( फिर वही - सब ऐसे नहीं हैं ) - परन्तु अनेक ऐसे हैं जो ऐसे ही संस्थानों से पास होकर निकले हैं | :(
भ्रष्टाचार कहाँ कहाँ पहुंचता जा रहा है :(
संजय जी,
हटाएंमॉनीटर पर स्नेह के लिए आभार :)
ये गुरूजी है प्रतुल जी, तोलते बड़ा बारीक है मन भर की तुला में रत्ती का सटीक हिसाब रखते है।
क्षेपक प्रसंग :
हटाएंपाँच सितम्बर की प्रगति मैदान की आखिरी घटना काफी दुखद थी.... प्रगति मैदान से लौटते हुए एक लड़की ने मेट्रो-स्टेशन से छलांग लगाकर अपने प्राणों को विचित्र गति दी. उसे बचाया न जा सका. उस घटना के कारणों को सोचते हुए मैं घर लौट गया... मेट्रो-स्टेशनों पर आजकल इतने अधिक जोड़े प्रेमालाप करते दिखायी देते हैं कि उनका 'रिजल्ट' इस रूप में परिणत होता है. क्या हो गया है हमारी नयी पीढी को? कहीं वे 'प्रेम ही पूजा है' को अपने तरीके से अंजाम तो नहीं दे रहे?
कितना बड़ा सच
जवाब देंहटाएंआभार, रश्मि जी
हटाएंरोचक बोध कथा ... मन ही सशक्त माध्यम है आभार इस प्रस्तुति के लिये
जवाब देंहटाएंआभार सीमा जी,
हटाएंशायद इसीलिए कहा गया मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
मन ही है धुरी ... उत्कृष्ट बोधकथा
जवाब देंहटाएंसही कहा मोनिका जी,
हटाएंमन ही उत्थान व पतन की धुरी है।
जब तक मन है तो ध्यान नहीं
जवाब देंहटाएंध्यान है तो मन नहीं, मन का अभाव ध्यान है!
मन अगर जूतों में अटका है तो पूजा कैसे फलदाई होगी !
आभार सुमन जी
हटाएंprernadayak......
जवाब देंहटाएंमृदुला जी, आभार!!
हटाएंआभार सुज्ञ जी, यह कथा हमें पूजा के सही तरीके को समझाती है | अब यह हम पर है की हम वह सीख ग्रहण करें, या उसे ग्रहण न करने के लाख औचित्य गिना दें |
जवाब देंहटाएंआभार शिल्पा जी, यह तथा न केवल पूजा बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कर्म व कर्तव्य में आत्मावलोकन, ध्यान और एकाग्रता के महत्व को स्थापित करती है।
हटाएंtrue ..
हटाएंइस आलेख को पोस्ट करने के बाद 4 दिन के लिए छुट्टी पर चला गया अतः समय पर स्पैम में गई टिप को स्वतंत्र न कर पाया और प्रत्युत्तर भी न कर पाया। मुझे खेद है।
जवाब देंहटाएंमन के बेलगाम घोड़ों को वश में रखना ही सच्चा ध्यान है !
जवाब देंहटाएंसही कहा वाणी जी, आभार!!
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी, बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंवशिष्ट जी, शिल्प जी, और सुज्ञ जी, टीप के दौरान आध्यात्म पर प्रकाश डाल कर आपने इस पोस्ट को एक नया आयाम दिया है... साधुवाद.
इस प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार दीपक जी।
हटाएंटाइपिंग मिस्कटेक..
जवाब देंहटाएंशिल्प जी = शिल्पा जी,
:)
हटाएंतमाम बातें कहनी हैं, शिल्पा जी से भी और सुज्ञ जी से ... लेकिन वे यदि उन्हें जबरन कही या कुतर्क की श्रेणी में नहीं मानें जाएँ तो हिम्मत बँधे...
जवाब देंहटाएंशिल्पा जी और सुज्ञ जी की ये विशेषता है कि वे अधूरी बातों से भी पूरे प्रकरण को भाँप लेते हैं... और अस्पष्ट बातों से भी मन की थाह ले लेते हैं.... गजब की मेधा है... इसीसे अभिभूत हो जाता हूँ.
अब बताइये इनसे बातचीत की छेड़ न की जाये तो किससे की जाये?
@लेकिन वे यदि उन्हें जबरन कही या कुतर्क की श्रेणी में नहीं मानें जाएँ तो हिम्मत बँधे...
हटाएंसमझ पर संदेह न करें प्रतुल जी, आपकी हिम्मत के ही तो कायल है :)
अवश्य करें चिंतन की छेड अन्यथा हमारी सभा को पूछेगा कौन?
मुझे तो खुद ही यह भय रहता है की मुझे "बहस बाज" लेबल किया जाता रहा है | ( और आगे किया जाएगा )
जवाब देंहटाएंयदि आप कुछ कहना चाहें, तो मैं उसे अकारण ही कुतर्क मान लूंगी, यह बिलकुल न मानियेगा | मुझे जो , जब , जितना उचित और सही लगता है, मैं कहती हूँ, आपको जो सही और उचित लगे - आप कहिये | मैं खुद ही कोई परफेक्ट थोड़े ही हूँ जो दूसरों को judge कर सकती होऊं :)
निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है।
जवाब देंहटाएं@ अब इस सूत्र को ही आधार मानकर बात कहता हूँ. जब भी मंदिर गुरुद्वारे गया हूँ... वहाँ जितने भी भक्तों की भक्ति का निरीक्षण मैंने किया ... वह सुविधागामी भक्ति लगी, वह छिपे रूप से दैहिक सुख की तलाश में लगी.
माता के मंदिर में हाथ जोड़े भक्तन हो या फिर नानक भजन को सुनने बैठी वृद्धाएँ; साईं मंदिर में किसी चमत्कार की आस लिये प्रसाद चढाने आयी लम्बी कतारें हों अथवा घंटे-घड़ियालों के निनाद में तात्कालिक घरेलु क्लेश भुला देने की चाहना करती सास-बहुएँ हों ..... कहीं-न-कहीं अपने को भक्ति के नाटक से भ्रमित कर रहे होते हैं.
मानसिक तनाव और उलझनों से अशांत चित्त ईश्वर की भक्ति के बहाने से दैहिक सुख का हेतु साधता है. ये सुख चौतरफा मिलता है :
— तनाव देने वाले परिवेश/ व्यक्तियों को छोड़कर कुछ समय के लिये आँखें बंद कर एकाकी हो जाना मानसिक थकान को राहत पहुँचाता है.
— ईश वंदना करते व्यक्ति को आसपास के तकरार करने वाले भी नहीं छेड़ते... उसके प्रति एक सद्भावना अनायास आ जाती है.
— भक्ति के क्रियाकलाप करने वाला व्यक्ति कई प्रकार के दैहिक सुखों की चोरी कर रहा होता है....
आँख खोलकर – मूर्तियों के 'सौन्दर्य-दर्शन' की चोरी,
आँख बंदकरके – ध्यानमग्न मुद्रा में 'निद्रा-पीठिका' की चोरी,
बैठने की स्थिति से – गरमी के मौसम में सुखासन से 'फर्श शीतलता' की चोरी,
देर तक बैठकर – जिस परिवेश/व्यक्ति से बचकर आये उसी परिवेश/व्यक्ति से 'नज़रों की चोरी'.
एक ही क्रिया दोहराने के पीछे ऐसे भक्तों का सुविधागामी चरित्र ही उद्भासित होता है.... अन्य कार्यों को कमतर आँकना और भक्ति को उच्चतर ठहराना क्या 'कर्तव्य चोरी' नहीं है?
मैंने पूजा में ईश्वर से प्रार्थना की...'जब मैं अमुक के घर जाऊं तो मेरा कार्य अविलम्ब पूरा हो जाये' ... लेकिन अमुक व्यक्ति ठहरा 'पूजापाठी', घनघोर धार्मिक ... दो घंटों तक 'सुन्दर कांड' करने के उपरान्त ही उठा. उसकी पूजा मेरी पूजा पर भारी पड़ गयी. क्या पूजाओं में भी प्रतिस्पर्धा हो सकती है? परिणाम में एक को असफलता मिले और दूसरे को सफलता... क्या पूजाओं का परिणाम भी अनिशिचित होता है?
प्रायः सभी अपनी-अपनी योग्यताओं के द्वारा एक-दूसरे का निरीक्षण किया करते हैं... कुछ बहुत ध्यान से करते हैं तो कुछ कम ध्यान से.
एकाग्रता तभी संभव हो पाती है जब आगे केवल एक ही प्रभावी व्यक्ति/विषय/वस्तु होता है....
समय मिलते ही .... अन्य जिज्ञासाओं के साथ उपस्थि होऊंगा.
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निवेदन : मुझे लगता है कि मेरी उलझनों का निवारण यहीं हो सकता है? इसलिये यहाँ आता हूँ...अन्य कोई प्रयोजन नहीं.
साथ ही सोचता हूँ कि क्या 'भक्ति' पर पुनर्चिन्तन की ज़रूरत है?
@साथ ही सोचता हूँ कि क्या 'भक्ति' पर पुनर्चिन्तन की ज़रूरत है?
जवाब देंहटाएंप्रतुल जी,
जरूरत क्या यह तो अनवरत जारी रहना चाहिए।
निरीक्षण इसीलिए है कि हम समीक्षा कर पाएँ। समीक्षा के बाद उपादेय को ही अपनाना चाहिए और जो निरूपयोगी या दुरूपयोगी है उसे समझ लेने के बाद अनावश्यक मान त्याग कर देना चाहिए। यही तो सम्यक चिंतन है और यही विवेक है।