एक कंजूस सेठ थे। धर्म सभा में आखरी पंक्ति में बैठते थे। कोई उनकी ओर ध्यान भी नहीं देता था। एक दिन अचानक उन्होंने भारी दान की घोषणा कर दी। सब लोगों ने उन्हें आगे की पंक्ति में ले जाकर बैठाया, आदर सत्कार किया।
धनसंचय यदि लक्ष्य है,यश मिलना अति दूर।
यश - कामी को चाहिए, त्याग शक्ति भरपूर ॥
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सेठ ने कहा - "यह सत्कार मेरा नहीं, पैसे का हो रहा है।"
तभी गुरू बोले,- "पैसा तो तुम्हारे पास तब भी था, जब तुम पीछे बैठते थे और तुम्हें कोई पूछता नहीं था। आज तुम्हारा आदर इसलिये हो रहा है क्योंकि तुमने पैसे को छोड़ा है , दान किया है। तुम्हारे त्याग का सत्कार हो रहा है।"
अहंकार के भी अजीब स्वरूप होते है।
आसक्ति का त्याग निश्चित ही सराहनीय है।
सम्बन्धित सूत्र…
त्याग शक्ति
प्रोत्साहन हेतू दान का महिमा वर्धन
यह बात तो है।
जवाब देंहटाएंसही विष्लेषण किया आपने.
जवाब देंहटाएंरामराम.
sundar evam sarthak ...
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा सटीक विष्लेषण,,,
जवाब देंहटाएंRecent post: एक हमसफर चाहिए.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन काँच की बरनी और दो कप चाय - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशिवम् भाई, आभार!!
हटाएंआसक्ति का त्याग , मुश्किल तो है ही ..
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं आपकी प्रयत्नों के लिए !
दान दे सकना एक गुण है, अन्यथा सब धन से चिपक कर बैठ जाते हैं।
जवाब देंहटाएंआज तुम्हारा आदर इसलिये हो रहा है क्योंकि तुमने पैसे को छोड़ा है , दान किया है। तुम्हारे त्याग का सत्कार हो रहा है।" …………बहुत गहरी बात कह दी
जवाब देंहटाएंवाह! सिक्के का दूसरा पहलू दिखने का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंसही बात है । त्याग का मान होता है न कि कंजुसी से बचाए हुए धन का । सार्थक संदेश....
जवाब देंहटाएंबात में दम है।
जवाब देंहटाएंनिकृष्ट कर्म द्वारा उपार्जित अर्थ के दान का क्या अर्थ.....?
जवाब देंहटाएंविभिन्न आपदाओं के पश्चात् 'दान' की जो दुकानें खुल जाती हैं, कृपा कर कोई
उसे बंद करवाए ये दुकाने प्राय: संपन्न वर्ग द्वारा ही संचालित होती है और
'प्रधान मंत्री' द्वारा भी.....