3 अगस्त 2011

सत्यान्वेषण लैब – अनेकान्तवाद


नेकांत – स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रत्येक व्यवहार में अनुभव किया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि जब तक पदार्थ/दृष्टि के स्वरूप को सम्पूर्ण न समझ लिया जाय, अपने आपको सम्पूर्ण न समझना ही जीवन विकास का प्रतीक बन सकता है।

सम्पूर्ण विश्व में “ही” और “भी” का साम्राज्य व्याप्त है। जहाँ ‘ही’ का बोलबाला है वहाँ कलह, तनाव, विवाद है। और जहाँ इसके विपरित ‘भी’ का व्यवहार होता है, वहाँ सभी का सम्यक समाधान हो जाता है। और यह उत्थान की स्थिति का निर्माण करता है। सापेक्षदृष्टि मण्डनात्मक प्रवृति की द्योतक है जबकि एकांतदृष्टि खण्डनात्मक प्रक्रिया। इसिलिए सापेक्षतावाद अपने आप में सम्पूर्ण माना जाता है।

सापेक्षतावाद के बारे में कुछ भ्रांतियाँ व्याप्त है उन्हें दूर किए बिना इस सिद्धान्त को समझना कठिन है।

1-स्तरीय जानकारी और शब्द साम्यता के आधार पर लोग यह समझते है कि अनेकांतवाद का अभिप्राय अनेकेश्वर या अनेक आत्मा जैसा होगा और एकांतवाद का अभिप्राय एक ईश्वर या अद्वेत जैसा होगा। किन्तु अनेकांतवाद का इस प्रकार की आस्था से कुछ भी लेना देना नहीं है। अनेकांत शुद्ध रूप से ‘ज्ञान के विश्लेषण’ का सिद्धान्त है।

2-लोग प्रायः यह मानते है, कि अनेकांतवाद मतलब ‘यह भी सही, वो भी सही, सभी सही’ या ‘सभी अपनी अपनी जगह सही’ पर यह भी गलत अवधारणा है। वस्तुतः अनेकांत सभी के सत्य का अभिप्राय तय करके, विश्लेषण करने के प्रयोजन से संकलित करता है। और संशोधन के बाद सत्य स्वरूप का प्रतिपादन करता है।

3-स्याद्वाद को लोग अक्सर संशयवाद समझनें की भूल करते है। स्याद् आस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् आस्ति नास्ति रूप सप्तभंगी में कथंचित् को देखकर प्रथम दृष्टि संशयपूर्ण वाक्य से संशयवाद मान बैठते है। पर वास्तव में यह वस्तु की विभिन्न दृष्टियों से अपेक्षा-अभिप्राय समझ कर शुद्ध स्वरूप जानने का साधन है।

सामान्य रूप से कठिन है यह समझना कि जिस कारण से इसे सापेक्षतावाद कहा जाता है, वह ‘दृष्टिकोण की अपेक्षा’ क्या चीज है?

इसे समझने के लिए अनेकांतवाद का पहला रूप है सप्तनय। ‘नय’ वक्ता के अभिप्राय को समझने की ‘प्रमाण’ के बाद दूसरी पद्धति है। जैसे प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण-धर्म रहे हुए है। उन अनंत गुण-धर्मों में से किसी एक गुण-धर्म को मुख्यता देकर, शेष गुण-धर्मों को गौण रखकर, किन्तु निषेध न करते हुए कथन करना, या कथन का अभिप्राय समझना नय-ज्ञान कहलाता है। नय पर हम अगले आलेख में विस्तृत चर्चा करेंगे, सातों नय के आलेखन के साथ। उदाहरण के लिए पहला नय है, ‘नैगमनय’ निगम का अर्थ है संकल्प। नैगम नय संकल्प के आधार पर एक अंश स्वीकार कर अर्थघटन करता है। जैसे एक स्थान पर अनेक व्यक्ति बैठे हुए है। वहां कोई व्यक्ति आकर पुछे कि आप में से कल मुंबई कौन जा रहा है? उन में से एक व्यक्ति बोला – “मैं जा रहा हूँ”। वास्तव में वह जा नहीं रहा है, किन्तु जाने के संकल्प मात्र से कहा गया कि ‘जा रहा हूँ’। यह नैगम नय की अपेक्षा से सत्य है।

अगले लेखों में 7 नय, 4 प्रमाण, 4 निक्षेप और स्याद्वाद की सप्तभंगी का विवेचन किया जाना है।

पाठक कृपया प्रतिक्रिया दें कि यदि विषय जटिल और गूढ लग रहा हो, ग्रहित करना सहज न हो तो यहां विराम देते है और फिर कभी इस पर बात करेंगे। आपके प्रतिभाव से ही निर्धारित हो सकता है।

18 टिप्‍पणियां:

  1. अनेकान्तवाद को बहुत खूबसूरती से समझाया है आपने ! इस विस्तृत विवेचना के लिए आभार.

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  2. अदभुत है आपका विश्लेषण सुज्ञ जी.
    आपकी संगत से हर बार कुछ नया सीखने को मिल रहा है.
    आप समझाते रहिये,हम भी एक अच्छे विद्यार्थी बनकर
    सीखने की कोशिश करते रहेंगें.
    परन्तु, जरा कक्षा में पिछली सीट पर बैठने की आदत रही है.
    आप अपने प्रश्न आगे की सीट वालों से पूछेंगें तो
    उनके उत्तर भी जानने का मौका मिलता रहेगा.
    आभार.

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  3. आपकी व्याख्या अत्यंत सहज है!! बहुत कुछ सीखने को मिलता है!!

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  4. जहाँ 'ही' आधिपत्य जमाये बैठा है वहाँ 'भी' को कोई नहीं जानना चाहता है।

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  5. हंसराज जी, वैसे तो हम बच्चे, जब से हमारी आँख खुली, अपने को नयी दिल्ली में देखते आये थे, और अपने पैत्रिक पहाड़ी कस्बे में कभी कभी अपने स्कूल के ग्रीष्मकालीन अवकाश के समय जाया करते थे, और ऐसे ही कई शहरों आदि से उन्ही दिनों अन्य अनेक व्यक्ति, दिल्ली/ लखनऊ आदि में कार्यरत स्थानीय एवं सैलानी भी आते थे...
    वहाँ एक बाज़ार था जहां केवल एक मुसलमान घडीसाज़ हुआ करता था,,, और सभी जानते हैं की घडी में अनेक छोटे छोटे अंश होते हैं, जो यदि सभी अपना निर्धारित काम ठीक से करते रहे तभी हम और आप, आवश्यकतानुसार एक दम सही, अथवा लगभग सही, समय जान पाते हैं...

    और शायद पता होते भी अधिकतर को न पता हो, हमारा ब्रह्माण्ड भी असंख्य गैलेक्सियों से बना है, जो अरबों वर्ष से एक अपूर्व घडी समान डिजाइन के समान निरंतर चलता आ रहा है,,, और केवल पृथ्वी पर मानव, वर्तमान में, घोर कलियुग में, अन्धकार में भटकता प्रतीत हो रहा है, जबकि जैसे किसी वैज्ञानिक ने भी कहा, अन्य निम्न श्रेणी के प्राणी अपना निर्धारित कार्य चुपचाप करते चले आ रहे हैं...

    उस घडीसाज़ के बारे में (५० के दशक में ?) एक किस्सा मशहूर हो गया था कि किसी शहरी की विदेश से लायी गयी नयी घडी थी जो उसके वहाँ रहते बंद हो गयी... वो उस घडी साज़ के पास गए, और क्यूंकि उन्हें शंका थी कि विदेशी घडी होने के कारण वो सज्जन उसे ठीक भी कर पायेंगे कि नहीं?... इस लिए उन्होंने अनेक शब्दों में उस घडी की विशेषता उसे बतायी... ध्यान पूर्वक सुनने के पश्चात उस अनुभवी घडीसाज़ ने शान्तिपूर्वक कहा "जो आपने अभी बताया कृपया उसे उर्दू में बता दीजिये"! वो सज्जन चुपचाप घडी उसके पास छोड़ गए :)

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  6. सापेक्षदृष्टि मण्डनात्मक प्रवृति की द्योतक है जबकि एकांतदृष्टि खण्डनात्मक प्रक्रिया।

    गूढ़ विवेचन ... बहुत सुंदर

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  7. आदरणीय हंसराज भाई, सर्वप्रथम देरी से आने के लिए क्षमा चाहूँगा...कुछ दिनों से ऑफिशियल काम से दिल्ली में था| व्यस्तता के चलते ब्लॉग जगत में नहीं आ सका| आपके पिछले तीनों लेख अभी अभी पढ़े...
    अफ़सोस है की इस चर्चा में शामिल नहीं हो सका, किन्तु ख़ुशी है कि अब बादल छंट चुके हैं...सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा है...मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर भी मिल गया...आभार आपका, मैं सही था...वस्तुत: लक्ष्य तो अंतिम सत्य तक पहुंचना ही है...
    चर्चा के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद...कृपया आप इसे जारी रखें...
    सादर...

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  8. अनेकान्‍तवाद को आपने बहुत ही स्‍पष्‍टता से समझाया है, इसका आभार। अभी व्‍यस्‍तता के कारण शेष पोस्‍ट नहीं पढ़ी गयी, क्षमाप्रार्थी हूं।

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  9. @ डॉ॰ मोनिका शर्मा जी, "सापेक्षदृष्टि मण्डनात्मक प्रवृति की द्योतक है जबकि एकांतदृष्टि खण्डनात्मक प्रक्रिया।" पढने में बहुत आनन्द दायक प्रतीत हुआ :) धन्यवाद!

    एक कहावत है कि 'किसी भी श्रंखला की शक्ति उसके सबसे कमज़ोर कड़ी पर निर्भर करती है'...

    और हिन्दू मान्यतानुसार केवल एक निराकार शक्ति रुपी 'परम सत्य', सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्व शक्तिमान और सर्वगुण संपन्न है,,,
    जबकि साकार ब्रह्माण्ड के अनंत रूप, श्रंखला की विभिन्न कड़ियाँ, सभी दोषपूर्ण हैं, अस्थायी है...

    और, मानव जीवन में उपरोक्त को प्रतिबिंबित करते समान ऐसा देखने में आता है कि वीणा वादिनी, हंस वाहन वाली देवी सरस्वती मेहरबान हो तो, दूसरी ओर उलूक वाहन वाली देवी लक्ष्मी नाराज़ प्रतीत होती है ('कृष्ण' को मीराबाई ने कहा , "मूरख को तुम राज दियत हो / पंडित फिरत भिखारी")...

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  10. किसी भी वाद की जानकारी नहीं रही, कभी पढा ही नहीं तो भी, यह आलेख पढकर अपनी एक कविता याद आ गयी:

    सत्य
    हमेशा टुकड़ों में रहता है
    यही उसकी प्रवृत्ति है
    मेरे टुकड़े में
    अपना मिलाओगे
    तभी सत्य को पाओगे

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  11. @ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन जी, योगियों ने जाना कि परम ज्ञानी जीव निराकार (नादबिन्दू) है, और मानव संरचना उसका साकार प्रतिरूप, जो सूर्य से शनि तक, नवग्रह, के सार के द्वारा बना हैं,,, जिसमें शनि के सार से स्नायु तंत्र (नर्वस सिस्टम) बना है, जो सारे शरीर में व्याप्त है, और किसी भी भाग में होने वाली वेदना आदि की सूचना मस्तिष्क में उपलब्ध कराने का कार्य करता है - जहां प्राप्त सूचना का विश्लेषण हो कर विभिन्न अंग विशेष को आवश्यक कार्यवाही हेतु आज्ञा चली जाती है,,, और, ऐसे ही, अन्य आठ ग्रहों के सार से अन्य शरीर के विभिन्न भाग बनाने में उपयोग में लाये गए हैं...

    योगियों के अनुसार, इनमें प्रत्येक ग्रह के सार में संचित शक्ति और सूचना शरीर में विभिन्न स्तर पर आठ चक्रों में उपस्थित हैं और मेरुदंड के आठ बिन्दुओं पर संचित हैं - वैसे ही जैसे हमारी सुदर्शन-चक्र समान गैलेक्सी के केंद्र में सुपर गुरुत्वाकर्षण शक्ति (निराकार ब्लैक होल) संचित है और जिसके चारों ओर हमारी गैलेक्सी के विभिन्न असंख्य तारे आदि घूमते हैं... और सम्पूर्ण ज्ञान पाने हेतु इन आठ केन्द्रों में भंडारित सूचना का सर में एक बिन्दू पर, मस्तिष्क रुपी कंप्यूटर में, उठाना (अथवा स्वयं उठना, द्वापर युग के 'योगिराज कृष्ण' में जैसे) आवश्यक है, जिस प्रक्रिया को 'कुण्डलिनी जागरण' कहा जाता है... वास्तविक 'योग' अथवा 'योगा' यही है! लिखने में सरल किन्तु कार्यान्वन में कठिन - वैसे ही जैसे मानव व्यवस्था में विभिन्न कानून बनाना :)

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  12. अब प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या जो मानव व्यवस्था के किसी भी, और प्रत्येक अंश में, दोष दिख रहे हैं, जबकि विद्वानों द्वारा सदियों से कानून आदि निरंतर बनाये जाते चले आ रहे हैं उन पर शत प्रतिशत कार्यान्वयन संभव क्यूँ नहीं हो पाता है?...

    कह सकते हैं कि दोष आम आदमी की, प्रत्येक व्यक्ति की, विभिन्न ग्रहण क्षमता को जाता है, यानि अज्ञानता को जाता है...

    उदाहरण के लिए, किसी भी कक्षा में एक ही विषय पर गुरु एक बड़ी संख्या में बच्चों को एक ही पुस्तक से पढाता है... वर्ष के अंत में, या कभी भी, वो प्रश्न पत्र बनाता है... और जब अंक प्रदान करता है तो आप किसी भी काल और स्थान में पाएंगे कि कुछ थोड़े बच्चे ०% अथवा इसके निकट अंक पाते हैं, कुछ १००% के निकट, और अन्य शेष किसी औसत संख्या के आस पास... जिसे एक 'वैज्ञानिक' ही शायद कह सकता है कि मानव प्रकृति के नियंत्रण में है, किन्तु कहता नहीं है!

    शायद यह भी डिजाइन कि विशेषता है और 'हम' दोष कठपुतली का मानते है, अथवा दुर्भाग्य का!

    अब प्रश्न यह भी उठ सकता है कि प्रकृति अथवा परमेश्वर अपनी ही सृष्टि में, विशेषकर मानव रुपी मिटटी के अस्थायी पुतलों में अनादि काल से क्या खोजता चला आ रही/ रहा है ?

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  13. जेसी जी, आपने तो जिज्ञासा और भी बढा दी। समय मिले तो अपने प्रश्न का उत्तर भी दे डालिये। धन्यवाद!

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  14. ज्ञानवर्धक प्रस्‍तुति का आभार ।

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  15. पहले साकार ब्रह्माण्ड की पृष्ठभूमि हेतु निम्नलिखित कुछ शब्द संक्षिप्त में कहना आवश्यक होगा...

    'हिन्दू' मान्यतानुसार शक्ति को, अर्थात ऊर्जा को, नारी रूप द्वारा दर्शाया जाता आ रहा है - देवी, काली / गौरी और उनके विभिन्न रूप, शैलपुत्री, हिमालय पुत्री पार्वती, दुर्गा आदि द्वारा...

    'शिव आरम्भ में अर्धनारीश्वर थे', और उनका निवास स्थान काशी में होना दर्शाता है हमारी पृथ्वी के मूल रूप को, जिसके केंद्र में संचित शक्ति को 'सती' अथवा 'माँ काली' कहा गया - जिनका निवास स्थान 'शिव के ह्रदय' में दर्शाया जाता आ रहा है... और जिसे आज भी समझा जा सकता है ज्वालामुखी विस्फोट से, जो संसार में किसी भी समय कहीं न कहीं कोई न कोई दिखाई पड़ जायेंगे विस्फोटित होते, जब ज्वालामुखी के मुंह से पृथ्वी के ह्रदय में पिघली चट्टानें दबाव से ऊपर उठ पानी के समान बहने लग पड़ती हैं और लाल जिव्हा समान प्रतीत होती हैं, और जो ठंडी होने पर काली पड़ जाती हैं (जिसे काली का शिव के शरीर पर पाँव पड़ने से उनकी लाल जिव्हा बाहर निकली दर्शाई जाती है!)...

    'हिन्दू' खगोलशास्त्री हमारी पृथ्वी को अनादिकाल से ब्रह्माण्ड के केंद्र में दर्शाते आये थे, अर्थात इस के केंद्र पर संचित शक्ति को विष्णु अथवा नादबिन्दू, जिनके ब्रह्मनाद (बिग बैंग) से सृष्टि की रचना ध्वनि ऊर्जा के साकार भौतिक रूप में परिवर्तित होने से संभव हुई माना जाता है...

    विष्णु का 'शेषनाग' पर योगनिद्रा में लेटे होना वास्तव में दर्शाता है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अनंत साकार रूपों के निर्माण के पश्चात शेष शक्ति का पृथ्वी के वर्तमान रूप के केंद्र में संचित होना...कहावत है "शिव ही विष्णु है / और विष्णु ही शिव है", और ब्रह्मा को विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न कमल के फूल पर (आकाश में) विराजमान होने को, और पार्वती को सती की मृत्योपरांत शिव को अपने कंधे पर उठा तांडव करना और सती के ५१ भाग कर विष्णु द्वारा उनके क्रोध को शांत करना और कालांतर में सती के ही एक रूप पार्वती से विवाह करना दर्शाता है चंद्रमा का पृथ्वी के ही गर्भ से उत्पन्न हो उसका एक उपग्रह बन जाना (जैसा आधुनिक वैज्ञानिक मान्यता भी है)...

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  16. सुज्ञ जी,
    आदरणीय शास्त्री जी अपने ब्लॉग पर फिर से सक्रिय हैं
    नयी पोस्ट
    http://sarathi.info/archives/2685
    ये कमेन्ट पिछली पोस्ट पर कर रहा हूँ ताकि विषयांतर ना हो पाए

    जवाब देंहटाएं

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