श्रुत के आधार पर किसी क्रिया-प्रणाली का यथारूप अनुगमन करना परम्परा कहलाता है। परम्परा के भी दो भेद है। पूर्व प्रचलित क्रिया-विधि के तर्क व्याख्या में न जाते हुए, उसके अभिप्रायः को समझ लेना। और उसके सप्रयोजन ज्ञात होने पर उसका अनुसरण करना, ‘सप्रयोजन परम्परा' कहलाती है। दूसरी, निष्प्रयोजन ही किसी विधि का, गतानुगति से अन्धानुकरण करना 'रूढ़ि' कहलाता है। आज हम ‘सप्रयोजन परम्परा’ के औचित्य पर विचार करेंगे।
मानव नें अपने सभ्यता विकास के अनवरत सफर में कईं सिद्धांतो का अन्वेषण-अनुसंधान किया और वस्तुस्थिति का निष्कर्ष स्थापित किया। उन्ही निष्कर्षों के आधार पर किसी न किसी सैद्धांतिक कार्य-विधि का प्रचलन अस्तित्व में आया। जिसे हम संस्कृति भी कहते है। ऐसी क्रिया-प्रणाली, प्रयोजन सिद्ध होने के कारण, हम इसे ‘सप्रयोजन परम्परा’ कह सकते है।
आज के आधुनिकवादी इसे भी रूढ़ि में खपाते है। यह पीढ़ी प्रत्येक सिद्धांत को तर्क के बाद ही स्वीकार करना चाहती है। हर निष्कर्ष को पुनः पुनः विश्लेषित करना चाहती है। यदि विश्लेषण सम्भव न हो तो, उसे अंधविश्वास में खपा देने में देर नहीं करती। परम्परा के औचित्य पर विचार करना इनका मक़सद ही नहीं होता।
ऐसे पारम्परिक सिद्धांत, वस्तुतः बारम्बार के अनुसंधान और हर बार की विस्तृत व्याख्या से बचने के लिए ही व्यवहार में आते है। समय और श्रम के अपव्यय को बचाने के उद्देश्य से ही स्थापित किए जाते है। जैसे- जगत में कुछ द्रव्य विषयुक्त है। विष मानव के प्राण हरने या रुग्ण करने में समर्थ है। यह तथ्य हमने, हमारे युगों युगों के अनुसंधान और असंख्य जानहानि के बाद स्थापित किया। आज हमारे लिए बेतर्क यह मानना पर्याप्त है कि ‘विष मारक होता है’। यह अनुभवों का निचोड़ है। विषपान से बचने का 'उपक्रम' ही सप्रयोजन परम्परा है। ‘विष मारक होता है’ इस तथ्य को हम स्व-अनुभव की कसौटी पर नहीं चढ़ा सकते। और न ही समाधान के लिए,प्रत्येक बार पुनः अनुसंधान किया जाना उचित होगा।
परम्परा का निर्वाह पूर्ण रूप से वैज्ञानिक अभिगम है। विज्ञ वैज्ञानिक भी सिद्धान्त इसलिए ही प्रतिपादित करते है कि एक ही सिद्धांत पर पुनः पुनः अनुसंधान की आवश्यकता न रहे। उन निष्कर्षों को सिद्धांत रूप स्वीकार कर, आवश्यकता होने पर उन्ही सिद्धांतो के आधार पर उससे आगे के अनुसंधान सम्पन्न किए जा सके। जैसे- वैज्ञानिकों नें बरसों अनुसंधान के बाद यह प्रमाणित किया कि आणविक क्रिया से विकिरण होता है। और यह विकिरण जीवन पर बुरा प्रभाव करता है। जहां आणविक सक्रियता हो मानव को असुरक्षित उसके संसर्ग में नहीं जाना चाहिए। उन्होंने सुरक्षा की एक क्रिया-प्रणाली विकसित करके प्रस्तुत की। परमाणविक विकिरण, उसका दुष्प्रभाव, उससे सुरक्षा के उपाय सब वैज्ञानिक प्रतिस्थापना होती है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति बिना उस वैज्ञानिक से मिले, बिना स्वयं प्रयोग किए। मात्र पढ़े-सुने आधार पर सुरक्षा-उपाय अपना लेता है। यह सुरक्षा-उपाय का अनुसरण, परम्परा का पालन ही है। ऐसी अवस्था में मुझे नहीं लगता कोई भी समझदार, सुरक्षा उपाय पालने के पूर्व आणविक उत्सर्जन के दुष्प्रभाव को जाँचने का दुस्साहस करेगा।
बस इसीतरह प्राचीन ज्ञानियों नें मानव सभ्यता और आत्मिक विकास के उद्देश्य से सिद्धांत प्रतिपादित किए। और क्रिया-प्रणाली स्वरूप में वे निष्कर्ष हम तक पहुँचाए। हमारी अनुकूलता के लिए, बारम्बार के तर्क व अनुशीलन से मुक्त रखा।हमारे लिए उन सिद्धांतों से प्राप्य प्रतिलाभ का उपयोग कर लेना, सप्रयोजन परम्परा का निर्वाह है।
परम्पराओं पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है?
'निष्प्रयोजन परम्परा' अर्थात् 'रूढ़ि' का विवेचन हम अगले लेख में करेंगे………
अरे वाह सुज्ञ भैया - यह तो बहुत अच्छी श्रुंखला शुरू की आपने !!
जवाब देंहटाएंठीक यही बात मैंने आप के ही ब्लॉग की एक पुरानी पोस्ट की टिप्पणी में भी कही थी - कि हर चीज़ को हर बार - इंडीविजुअली प्रूव करने की जिद - अपने आप में नॉन - साइन्टीफिक है | विज्ञान आगे बढ़ ही नहीं सकता यदि हर वैज्ञानिक शुरू से शुरुआत करना चाहे और पुराने सिद्धांतों को ही पुनः पुनः प्रूव करने की कोशिश में लगा रहे |
विद्यानिवास मिश्र जी की पुस्तक परम्परा बंधन नहीं पठनीय है.
जवाब देंहटाएंek badhi achchhi shuruaat hai. shrinkhla nissandeh rochak aur pathneeya hogi..
जवाब देंहटाएं@यह पीढ़ी प्रत्येक सिद्धांत को तर्क के बाद ही स्वीकार करना चाहती है
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
तर्क के बाद स्वीकार लेते हैं क्या ?:)
मेरे ख़याल से तो केवल मौन [गुस्से के साथ] धारण करते हैं और नयी रीसर्च[?] या न्यूज[?] का इन्तजार करते हैं , और उस नयी रीसर्च[?] के आते ही सबकुछ वैसा ही हो जाता है
नयी पीढी आधुनिक विज्ञान के मामले में नंबर एक की श्रृद्धालु है :))
अच्छी श्रृंखला शुरू की आपने , पढने में मजा आएगा :)
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी होगी यह शृंखला तो!
जवाब देंहटाएंअंग्रेजों के अन्याय के विरोध में ....... 'मोहन'दास ने ........ सत्याग्रह और अनशन की परम्परा डाली..
जवाब देंहटाएंकांग्रेस के अत्याचार के विरोध में ....... अण्णा ने .............. उन बातों को आत्मसात किया ......... तो वर्तमान मन'मोहन' ने कहा कि अनशन और भूख-हड़ताल हमारी परम्परा नहीं... ग़ैर-सांवैधानिक हैं....
फिर भी लोग हैं कि उस लकीर को पीटे जा रहे हैं..... लकीर के फकीरों के इस हठ को क्या 'परम्परा' नाम देना चाहिए?
परम्परा आरम्भ में एक जरूरत बनकर अंकुरित होती है... फिर उसे आदत में लाना होता है... उसके बाद उसकी बड़े समुदाय के द्वारा मान्यता मिलती है.... एक लम्बे समय के बाद वह 'परम्परा' रूप में पहचानी जाती है.
ज्ञान में डूब रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआवश्यकता....संकल्प......अनुसंधान....निष्कर्ष ......स्थापना.....और फिर सामूहिक अनुकरण, यही है "परम्परा".
जवाब देंहटाएंज्ञानप्राप्ति का यह भी एक प्रमाण है- "आप्तोपदेश प्रमाण".
चूंकि परम्परा की स्थापना का इतिहास तर्क सम्मत और वैज्ञानिक होता है इसलिए शंका के योग्य नहीं है.
ज्ञान प्राप्ति का एक और प्रमाण है "अनुमान प्रमाण". चिकित्सा विज्ञान के अध्ययन में मैंने यह अनुभव किया है कि शरीरक्रिया ( ह्यूमन फिजियोलोजी ) के ज्ञान में हमें कई बार अनुमान प्रमाण पर ही विश्वास करना पड़ता है. पर चूंकि आयातित ज्ञान में हमारी शंका न करने और यथावत स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति बन गयी है इसलिए सारी शंकाएं भारतीय ज्ञान के संदर्भ में ही प्रकट हो रही हैं. ऐसा एकांगी ज्ञान पूर्वाग्रही होने से कल्याणकारी नहीं होता.
प्रतुल जी ने बड़ी ही प्रासंगिक बात उठायी है.
सामाजिक परम्पराओं को प्रासंगिकता के विनिश्चय की सदैव अपेक्षा होती है. कालक्रम के प्रभाव से किसी परंपरा की प्रासंगिकता का सही विनिश्चय न कर पाने से वही रूढ़ हो जाती है. घूंघट कभी हमारी आवश्यकता थी...आज उसका प्रचलन रूढ़िगत है. सरकारी कार्यालयों में अप्रासंगिक नियमों की आड़ में शोषण की परम्परा स्थापित हो चुकी है. यह कुछ लोगों के लिए लाभदायी है इसलिए समाप्त नहीं हो पा रही है. यह कुप्रथा है.
सार्थक पोस्ट...... अब तो जहाँ तर्क न चले वहां कुतर्क करने में भी देर नहीं करती यह पीढ़ी ....
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी देती पोस्ट ...
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी हमारी परम्पराएँ बहुत लम्बे समय के हमारे बड़ों के अनुभवों से उत्पन्न हुई हैं और उनके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क होते रहने पर भी उनका अस्तित्व कोई नकार नहीं सकता बस कुछ रूढ़ियाँ हैं जो हमारी गलत सोच का परिणाम हैं और हमने अपने कुछ कार्यों को सही ठहराने के लिए अपना रखी हैं .
जवाब देंहटाएंप्रिय बंधुवर सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंसादर वंदे मातरम् !
संग्रहणीय पोस्ट और मनन योग्य आलेख के लिए साधुवाद !
रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ
-राजेन्द्र स्वर्णकार
पढ़ रहे हैं और समझने की कोशिश भी ...
जवाब देंहटाएंउपयोगी श्रृंखला !
बहुत ही ज्ञानवर्धक श्रृंखला है यह जिसकी प्रत्येक कड़ी मनन योग्य है आभार सहित बधाई ।
जवाब देंहटाएंउपयोगी शृंखला, आभार! प्रत्येक ग़लती को स्वयं करके सीखने के लिये जीवन बहुत छोटा है। सभ्यता द्वारा अब तक समझे जा चुके ज्ञान को आधार मानकर वहाँ से आगे चलने में ही बुद्धिमानी है। ज्ञान का विस्तार होने पर कई बार पहले से प्रतिस्थापित सिद्धांतों की सीमायें भी सामने आयी हैं और तब नये वैज्ञानिक सिद्धांतों (या गणितीय मॉडलों का) प्रतिपादन भी हुआ है। तमसो मा ज्योतिर्गमय ...
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है परंपरा को निभाना गलत नहीं है पर कुछ परम्पराएं जो समय के अनुसार मूल रूप खो चुकी हैं उमने बदलाव जरूरी लाना चाहिए ... गतिशीलता का नियम तो यही कहता है ...
जवाब देंहटाएंinteresting read.... u always make your reader delve deep in the thoughts.
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