एक बार राजा के पुरोहित
के मन में विचार आया कि राजा जो मुझे आदर भाव से देखता है, वह सम्मान मेरे ज्ञान का
है या मेरे सदाचार का? अगले दिन पुरोहित ने राजकोष से एक सिक्का उठा लिया, जिसे कोष-मंत्री
ने देख लिया। उसने सोचा पुरोहित जैसा महान व्यक्ति सिक्का उठाता है तो कोई विशेष प्रयोजन
होगा। दूसरे दिन भी यही घटना दोहराई गई। फ़िर भी मंत्री कुछ नहीं बोला तीसरे दिन पुरोहित
नें कोष से मुट्ठी भर सिक्के उठा लिए। तब मंत्री ने राजा को बता दिया। राजा नें दरबार
में राज पुरोहित से पुछा- क्या मंत्री जी सच कह रहे है?
राज पुरोहित ने उत्तर दिया-‘हां महाराज’ राजा नें
राज पुरोहित को तत्काल दंड सुना दिया। तब राजपुरोहित बोला-महाराज! मैने सिक्के उठाए
पर मैं चोर नहीं हूँ। मैं यह जानना चाहता था कि सम्मान मेरे ज्ञान का हो रहा है या
मेरे सदाचार का? वह परीक्षा हो गई। सम्मान अगर ज्ञान का होता तो आज कटघरे में खड़ा न
होता। ज्ञान जितना कल था, उतना ही आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पर मेरा केवल सदाचार
खण्ड़ित हुआ और मैं सम्मान की जगह दंड योग्य अपराधी निश्चित हो गया। सच ही है चरित्र
ही सम्मान पाता है।
मित्रों!! आप क्या सोचते है, सम्मान ज्ञान को अधिक
मिलता है या सदाचार को?
बहुत ही अच्छी एवं ज्ञानवर्धक प्रस्तुति है आपकी ...।
जवाब देंहटाएं....ज्ञानवर्धक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअस्वस्थता के कारण करीब 25 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
जवाब देंहटाएंआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
सम्मान दोनों के कारण मिलता है ! एक वजह से मिलने वाला सम्मान दुसरे स्थान पर गलती होने की भरपाई नहीं कर सकता ! सर्वगुणों से युक्त मनुष्य सभी जगह और सभी के द्वारा सम्मानीय होता है.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंज्ञान महान बनता है किन्तु सम्मान का हक़दार तो सदाचार ही है.
जवाब देंहटाएंसम्मान के लिए हज़ारों बातें ज़रूरी हैं...
जवाब देंहटाएंसदाचार को ||
जवाब देंहटाएंविचारणीय ||
बधाई ||
ज्ञानवर्धक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसंदर्भों के साथ स्थितियां बदलती रहती हैं.
जवाब देंहटाएंएक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति,पर आजकल पैसे का ही सम्मान होता है,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जो ज्ञान व्यवहार में न आये वह ज्ञान केवल कोरा ज्ञान है.
जवाब देंहटाएंसम्मान का मिलना या न मिलना एक अलग पहलु है.
जैसा प्राचीन योगियों ने 'महाभारत' की कथा और भागवद गीता आदि द्वारा दर्शाया, राजा द्योतक है सूर्य का (जिसे हमारी अनंत ब्रह्मांड में अनंत गैलेक्सियों में सर्वश्रेष्ट गैलेक्सी का निराकार केंद्र, सर्वगुण संपन्न विष्णु का द्वापरयुग में प्रतिनिधि कृष्ण, प्रकाशमान करता है) और उसी श्रंखला में राजा के ऊपर निर्भर अन्य दरबारी सौर-मंडल के अन्य सदस्यों का... जिनमें पुरोहित यदि एक है तो वो बृहस्पति और शुक्र ग्रह दोनों का, आध्यात्मिक और भौतिक विषय का, ज्ञाता (सिद्ध) होना आवश्यक है...
जवाब देंहटाएंकिन्तु योगियों ने काल के स्वभाव पर गहराई में जा यह भी जाना कि हर व्यक्ति में यद्यपि सौर-मंडल के ९ सदस्यों का सार है, जिनके माध्यम से हर व्यक्ति में हर ग्रह से सम्बंधित ज्ञान तो ८ चक्रों में बराबर बराबर भंडारित है, यानि कुल ज्ञान तो हरेक व्यक्ति में उपलब्ध तो है, किन्तु उसके उपयोग की सीमा (उच्च और निम्न) युग विशेष पर तो आधारित है ही किन्तु किसी क्षण विशेष में भी हर व्यक्ति में भिन्न है...जिस कारण प्रकृति में व्याप्त विविधता मानव के माध्यम से भी प्रदर्शित होती है...
वर्तमान कलियुग (कृष्ण / काली यानि अन्धकारमय, अर्थात निम्नतम ज्ञान का युग है, जिस कारण हर व्यक्ति भिन्न भिन्न निर्णय पर पहुंचना संभव है...और यह प्राकृतिक ही होगा क्यूंकि छोटे से छोटे विषय पर भी मानव समाज तीन भाग में बँट जाता है - कुछ समर्थक तो कुछ विरोधक और शेष न इधर न उधर...
सदाचारी लोगों को सम्मान पाने के लिये कुछ अधिक समय व्यय करना होता है.. ज्ञानी लोगों के बनिस्पत.
जवाब देंहटाएं'ज्ञानी' तो अपने ज्ञान का बखान.. तुरंत बोलकर मतलब अपनी हाज़िरजवाबी से, बातचीत में, परिचर्चाओं में, बहसबाजियों में, भाषणों में करके सम्मान अर्जित कर लेता है.
किन्तु सदाचारी को समाज अपने अनुभव की कसौटी पर कसता है और उसके व्यवहार की काफी समय तक जाँच करता है.. तब जाकर उसे सम्मान मिल पाता है.
सदाचारी की मशक्कत ज्ञानी की मशक्कत से कहीं अधिक है.
ज्ञानी अपने मस्तिष्क की पूर्व स्मृतियों का लाभ लेता हुआ मौलिक चिंतन की मशक्कत करता है.
जबकि सदाचारी आरम्भ में लोभ और नैतिकता के बीच दोलित होता हुआ आत्मिक दृढ़ता की मशक्कत करता है.
धीरे-धीरे नैतिक दृढ़ता उसका स्वभाव हो जाती है .. फिर कहीं वह वास्तविक सम्मान का अधिकारी बन पाता है.
बहुत ही अच्छी एवं ज्ञानवर्धक,संदर्भों के साथ स्थितियां भी बदलती हैं.
जवाब देंहटाएंवाह सुन्दर कहानी के उदाहरण से अच्छी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसही है की सम्मान सदाचार को मिलता है, किन्तु चरित्र का नाश भी अज्ञानता वश अथवा ज्ञान के अभाव में होता है..
पुरोहित ने चोरी की किन्तु चरित्र हीनता का वशीभूत हो कर नहीं, केवल परिक्षण के लिए, अत: उसके ज्ञान व सदाचार पर तो प्रश्न चिन्ह लगाने का प्रश्न ही नहीं है|
अत: दिव्या जी के कथन में भी सत्यता झलक रही है|
और शायद यह सम्मान देने वाले पर भी निर्भर है की वह किसे गुण के कारण सम्मान दे रहा है| जैसे कोषाध्यक्ष ने प्रारम्भिक चोरियों के विषय में कोई शिकायत राजा से नहीं की, केवल पुरोहित के ज्ञान के प्रभाव में...वहीँ दूसरी ओर राजा ने पुरोहित को दंड दिया, केवल सदाचार के अभाव में|
बहरहाल, बहुत सुन्दर प्रस्तुति लगी...आभार...
बेहद शिक्षाप्रद रचना.... जब भी आती हूँ कुछ सीखने को मिलता है... यह ज्ञान भी समेट के जा रही हूँ..... :-)
जवाब देंहटाएंसम्मान तो सदाचार को ही मिलता है|
जवाब देंहटाएंज्ञान परक बाते साझा करने के लिए सहृदय आभार|
ज्ञानी तो चोर और बुरे आचरण वाले लोग भी हैं निश्चित ही सम्मान का हक़दार सदाचारी ही होगा ! शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंज्ञानी व्यक्तियों से यह आशा की जाने लगती है कि वे सदाचारी भी हों... अब देश में ही देख लीजिए ना, यदि देश हित की बात विपक्षी दल कहता है तो सत्ताधारी उसपर हाहाकार मचाने लगते हैं और इसका उलट भी देखने को मिलता है.. यदि कोइ दुराचारी मद के नशे में कहता है कि अपने माता-पिता का सम्मान करो तो उसकी बात मात्र इसलिए नहीं मानी जानी चाहिए कि वह दुराचारी है!! वो कहावत है न कि उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पी होय" इसलिए सम्मान तो ज्ञान का होना ही चाहिए.. किन्तु ज्ञानियों से सदाचार की अपेक्षा की जाती है अतः उनका बुरा आचरण अक्षम्य प्रतीत होता है!!
जवाब देंहटाएंsadachari hone ke liye gyan ki jaroorat ho sakti hai lekin gyani hone ke
जवाब देंहटाएंliye sadachar ki kouno jaroorat nahi hoti..........lekin haan 'sugyani' ke
liye sadachar ki hi poori jaroorat hoti hai..........ek baat aur.........
sadachar ke abhav me gyan bina pran ke sarir saman hai.....
pranam.
ज्ञान बाहर से अर्जित किया हुआ है !
जवाब देंहटाएंऔर सदाचार आंतरिक स्वभाव !
@ सुमन जी, जो 'हिन्दू' कह गये, उस के अनुसार 'परम ज्ञान' मानव शरीर में जन्म से ही, कुल मिला कर आठ चक्रों में, भंडारित है,,, और, फिर सीमित जीवन काल में उतना ही ज्ञान, 'बहिर्मुखी' होने के कारण अर्जित हो पाता है - जो व्यक्ति विशेष की प्रकृति पर निर्भर करता है, और काल के अनुसार भी क्योंकि हर युग की अपनी अपनी उच्चतम और न्यूनतम सीमा है ज्ञान ग्रहण करने की... फिर भी भगवान् का रूप होने के कारण अंतर्मुखी हो कोई भी (जैसा योगेश्वर कृष्ण ने गीता में कहा) तपस्या/ साधना द्वारा परम सत्य की अनुभिती कर सकता है अपने ही मन में कोई भी युग क्यूँ न हो...
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
जवाब देंहटाएंआपका मेल स्पाम में चला गया था जिसकी वजह से उस पर निगाह नहीं पडी, अभी अभी देखा
यह टेम्पलेट बहुत ही बेहतर है, तथा सुविधाजनक भी
सुज्ञ जी, जहां तक 'सम्मान' का सम्बन्ध है, 'हिन्दू' मान्यतानुसार सभी पशु जगत के अनंत साकार प्राणी निराकार भगवान् के प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब हैं तो यह वैसा ही जैसे ग्रीक मान्यतानुसार अभिमानी सुन्दर नार्सिसस जो किसी को प्रेम नहीं करता था, उसके द्वारा जल रुपी दर्पण में अपने ही प्रतिबिम्ब से ऐसा प्रेम हो गया कि वो उसको 'माया' न समझ तालाब के किनारे बैठा रह गया और मर गया!
जवाब देंहटाएंऔर दूसरी ओर, 'हिन्दू' मान्यतानुसार केवल मानव रूप में ही 'माया' को भेद सत्य का आभास संभव होना माना गया, किसी एक क्षण विशेष में, यदि कोई व्यक्ति विशेष निराकार जीव से जुड़ जाए, अंतर्मुखी हो आत्मा से सम्बन्ध कर ले (जैसे कृष्ण की कृपा से सूर्य के द्वापरयुग में प्रतिरूप धनुर्धर अर्जुन ने 'महाभारत' में किया, अथवा त्रेता में धनुर्धर राम को 'पुरुषोत्तम' माना गया)...
और एक 'माया' को समझने के लिए कही गयी कहानी में राजा नन्द ने एक परात में जल रखवा दिया जब बाल-कृष्ण चाँद से ही खेलने की जिद कर रहे थे... बाल कृष्ण चाँद का प्रतिबिम्ब देख प्रसन्न हो गए,,, किन्तु जितनी बार उसे पकड़ने का प्रयास करते प्रतिबिम्ब हिल जाता और उनके हाथ में नहीं आया तो सत्य जान प्रयास छोड़ दिया :)
यदि हम सब तरह से उचित राह पर चलें, (जो हमें भीतर से परमात्मा दिखाते ही रहते हैं) तो सम्मान अपने आप मिल जाएगा | जैसे कि कमरे में जलता दिया हो तो रौशनी भी आ ही जाती है | सम्मान के पीछे भागेंगे - तो बहुत सी चीज़ों में उलझने का डर है | बहुत सी चीज़ें आवश्यक हैं |
जवाब देंहटाएंएक बार किसी ने आपने गुरु से पूछा " काम, क्रोध, लोभ मोह और अहंकार" इनमे से कौनसा ज्यादा खतरनाक है ? तो गुरु ने कहा - तुम्हारी नाव में यदि ५ छिद्र हों - तो सागर में नाव खेने के वक़्त डूबने से बचने के लिए क्या एक भी छिद्र को खुला छोड़ा जा सकता है - ? हर पहलू का अपना महत्व है - कोई किसी और से कम महत्त्वपूर्ण नहीं ...
प्रस्तुत कथा में पुरोहित के ज्ञान नें ही सदाचार को रेखांकित करवाया।
जवाब देंहटाएंयह सत्य है कि ज्ञान ही सदाचार की प्रेरणा देता है।
ज्ञान बिना सब विफल है, तन मन वाणी योग।
ज्ञान सहित आराधना, अक्षय सुख संयोग॥
किन्तु ज्ञान साधन है सदाचार साध्य।
स्पष्ठ है साधन से अधिक साध्य को सम्मान मिलेगा।
निश्चित ही ज्ञान को सम्मान मिलता है, पर विशेष (अधिक)सम्मान सदाचार को ही मिलता है।
gyaan ke saath charitra judaa hota hai, ye khandit hue phir gyaan ka prakash awruddh hai
जवाब देंहटाएंसम्मान मिले या ना मिले मगर जीवन में सदाचार ही सबसे बड़ी पूंजी है... नहीं तो रावण जितना ज्ञानी भी कोई ना था ..
जवाब देंहटाएंसम्मान तो सदाचार को ही मिलता है|
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति ...सम्मान सदाचार को मिलता है ...डा० नूतन ने अच्छा उदाहरण दिया है
जवाब देंहटाएंसदाचार का अच्छा विश्लेण किया है आपने... हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंनिःसंदेह चरित्र ही सम्मान पाता है।
वाह,दिल छू लेने वाली प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंसम्मान सदाचार को मिलता है .
आज तो वही सदाचारी सम्मान पाता है जो सामर्थ्यवान भी होता है
जवाब देंहटाएंनहीं तो पैसे का तो बोल बाला है ही ! आप लाख सदाचारी हों
यदि आपके पास सामर्थ्य नहीं है तो कोई आपको पूछेगा नहीं |
आज के युग की यही कडवी श्च्चाई है मेरे दोस्त
सदाचार ज्ञान से ही संभव है..समाज में कैसे आचार-व्यवहार किया जाए..इसे सीखे बिना कैसे कोई सही आचरण करेगा.
जवाब देंहटाएंसम्मान किसे मिले और क्यूँ इसके लिए परिस्थितियाँ भी एक कारण होती हैं .
निष्कर्ष यही है कि दुश्चरित्र ज्ञानी की तुलना में अज्ञानी चरित्रवान सम्मान का अधिकारी है .