प्रायः लोग कहते है कि हमें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। किसी को भला, और किसी को बुरा कहना राग-द्वेष है। सही भी है किसी से अतिशय राग अन्याय को न्योता देता है। और किसी की निंदा विद्वेष ही पैदा करती है।
दूसरों की निंदा बुरी बात है किन्तु, भले और बुरे सभी को एक ही तराजु पर, समतोल में तोलना मूर्खता है। उचित अनुचित में सम्यक भेद करना विवेकबुद्धि है। भला-बुरा, हित-अहित और सत्यासत्य का विवेक रखकर, बुरे, अहितकारी और असत्य का त्याग करना। भले, हितकारी और सत्य का आदर करना एक उपादेय आवश्यक गुण है। जो जैसा है, उसे वैसा ही, बिना किसी अतिश्योक्ति के निरूपित करना, कहीं से भी बुरा कर्म नहीं है।
दूसरों की निंदा बुरी बात है किन्तु, भले और बुरे सभी को एक ही तराजु पर, समतोल में तोलना मूर्खता है। उचित अनुचित में सम्यक भेद करना विवेकबुद्धि है। भला-बुरा, हित-अहित और सत्यासत्य का विवेक रखकर, बुरे, अहितकारी और असत्य का त्याग करना। भले, हितकारी और सत्य का आदर करना एक उपादेय आवश्यक गुण है। जो जैसा है, उसे वैसा ही, बिना किसी अतिश्योक्ति के निरूपित करना, कहीं से भी बुरा कर्म नहीं है।
एक व्यापारी को एक अपरिचित व्यक्ति के साथ लेन-देन व्यवहार करना था। रेफरन्स के लिए उसने, अपने एक मित्र जो उसका भी परिचित था, को पूछा- “यह व्यक्ति कैसा है? इसके साथ लेन देन व्यवहार करनें में कोई हानि तो न होगी”
उस व्यापारी का मित्र सोचने लगा- मैं किसी के दोष क्यों बताऊँ? दोष दर्शाना तो निंदा है। मुझे तो उसकी प्रसंशा करनी चाहिए। इस प्रकार विचार करते हुए मित्र नें उस रेफर धूर्त की प्रशंसा ही कर दी। सच्चाई और ईमानदारी गुण, जो कि उसमें तनिक भी नही थे, व्यापारी के मित्र नें उस धूर्त के लिए गढ दिए। मित्र की बात पर विश्वास करके व्यापारी ने उस धूर्त व्यक्ति के साथ व्यवहार कर दिया और कुछ ही समय में धूर्त सब कुछ समेट कर गायब हो गया। ठगा सा व्यापारी अपने मित्र के पास जाकर कहनें लगा- “मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, तुमनें तो मुझे बरबाद ही कर दिया। तुम्हारे द्वारा की गई धूर्त की अनावश्यक प्रसंशा नें मुझे तो डूबा ही दिया। कहिए आपने मुझ निरपराध को क्यों धोखा दिया? तुम तो मेरे मित्र-परिचित थे, तुमनें उसकी यथार्थ वास्तविकता का गोपन कर, झूठी प्रसंशा क्यों की?”
प्रशंसक कहने लगा- “मैं आपका शत्रु नहीं, मित्र ही हूँ। और पक्का सज्जन भी हूँ। कोई भी भला व्यक्ति, कभी भी, किसी के दोष नहीं देखता, आलोचना नहीं करता। निंदा करना तो पाप है। मैनें तुम्हें हानि पहूँचाने के उद्देश्य से उसकी प्रशंसा नहीं की, बल्कि यह सोचकर कि, सज्ज्न व्यक्ति सदैव सभी में गुण ही देखता है, मैं भी क्यों बुरा देखन में जाउँ, इसलिए मैने सद्भाव से प्रशंसा की”
“तो क्या उसमें ईमानदारी और सच्चाई के गुण थे?”
-“हाँ, थे न! वह प्रथम ईमानदारी प्रदर्शीत करके ही तो अपनी प्रतिष्ठा जमाता था। वह सच्चाई व ईमानदारी से साख जमा कर प्रभाव पैदा करता था। धौखा तो उसने मात्र अन्तिम दिन ही दिया जबकि लम्बी अवधी तक वह नैतिक ही तो बना रहा। अधिक काल के गुणों की उपेक्षा करके थोड़े व न्यूनकाल के दोषों को दिखाकर, निंदा करना पाप है। भला मैं ऐसा पाप क्यों करूँ?” उसने सफाई दी।
-“वाह! भाई वाह!, कमाल है तुम्हारा चिंतन और उत्कृष्ट है तुम्हारी गुणग्राहकता!! तुम्हारी इस सज्जनता नें, मेरी तो लुटिया ही डुबो दी। तुम्हारी गुणग्राहकता उस ठग का हथियार ही बन गई। उसकी ईमानदारी और सच्चाई जो प्रदर्शन मात्र थी, धूर्तता छुपाने का आवरण मात्र थी, और जिसे तुम अच्छे से जानते भी थे कि धूर्तता ही उसका मूल गुण था। मैने आज यह समझा कि धूर्तो से भी तुम्हारे जैसे सदभावी शुभचिंतक तो अधिक खतरनाक होते है”। उस पर अविश्वास करता तो शायद बच जाता, पर तुम्हारे पर आस्था नें तो मुझे कहीं का न रखा। व्यापारी अपने भाग्य को कोसता हुआ चला गया।
कोई वैद्य या डॉक्टर, यदि रोग को ही उजागर करना बुरा मानते हुए, रोग लक्षण जानते हुए भी रोग उजागर न करे। रोग प्रकटन को हीन कृत्य माने, रोग से बचने के उपाय को सेहत की श्रेष्ठता का बखान माने, या फिर सेहत और रोग के लक्षणों को सम्भाव से ग्रहण करते हुए, स्वास्थय व रूग्णता दोनो को समान रूप से अच्छे है कहकर, रोग विश्लेषण ही न करे, तो निदान व ईलाज कैसे होगा? और आगे चलकर वह रोग कारकों से बचने का परामर्श न दे। कुपथ्य से परहेज का निर्देश न करे। उपचार हेतू कड़वी दवा न दे तो रोगी का रोग से पिंड छूटेगा कैसे? ऐसा करता हुआ डॉक्टर कर्तव्यनिष्ट सज्जन या मौत का सौदागर?
कोई भी समझदार कांटों को फूल नहीं कहता, विष को अमृत समझकर ग्रहण नहीं करता। गोबर और हलवे के प्रति समभाव रखकर कौन समाचरण करेगा? छोटा बालक यदि गोद में मल विसर्जन कर कपडे खराब कर दे तो कहना ही पडता है कि ‘उसने गंदा कर दिया’। न कि बच्चे के प्रति राग होते हुए भी यह कहेंगे कि- ‘उसने अच्छा किया’। इस प्रकार गंदा या बुरा कहना, बच्चे के प्रति द्वेष नहीं है। जिस प्रकार गंदे को गंदा और साफ को साफ व्यक्त करना ही व्यवहार है उसी प्रकार बुरे को बुरा कहना सम्यक् आचरण है। निंदा नहीं।
संसार में अनेक मत-मतान्तर है। उसमें से जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे अगर मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है। विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोडना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है।
अनुकरणीय और अकरणीय में विवेक करना ही तो नीर क्षीर विवेक है।
बिल्कुल सही कहा है ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमेरी समझ से जो जैसा है , पूछने पर वही कहें ... निंदा करने से परहेज है तो व्यर्थ का गुणगान न करें
जवाब देंहटाएंसाधुवाद भाई साहब...आपने अपनी बात सार्थक उदाहरणों के साथ रखी है, इन्हें किसी भी परिस्थिति में अनदेखा नहीं किया जा सकता...आपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ...
जवाब देंहटाएंआपने अपनी बात सार्थक उदाहरणों के साथ रखी है|धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा विषय उठाया है। वर्तमान दौर इस समस्या से सर्वाधिक पीड़ित है। कोई भी गलत बात सुंनना ही नहीं चाहता इसी कारण आज सभी लोग सही बात ना बोलकर केवल अच्छा है ऐसा ही बोलते हैं, परिणाम होता है कि गलत परम्पराएं विकसित होती रहती है। यहाँ तक की गलत इंसान भी श्रेष्ठ बने घूमते रहते हैं। परिवार में या समाज में कोई कार्यक्रम होता है, उसके की गयी भूले कई बार इतनी भयंकर होती हैं कि किया कराया सब कुछ चौपट सा हुआ रहता है लेकिन फिर भी सब तारीफों के पुल बांधते रहते हैं। परिणाम होता है कि भविष्य में सुधार की गुंजाइश समाप्त हो जाती है।
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय अअनुकरणीय में विवेक करना ही नीर क्षीर विवेक है।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित आलेख्।
मौन रहना व्यर्थ प्रशंसा करने से बेहतर है, लेकिन इसमें बस एक ख़तरा होता है आपके मौन को कहीं मौन स्वीकृति या हार ना समझ लिया जाए | वो सिर्फ धैर्य और स्नेह का प्रतीक है |
जवाब देंहटाएंपोस्ट हमेशा की तरह सरल है और मनन करने योग्य भी , अब मैं यहाँ आये विचारों को पढ़ रहा हूँ
जवाब देंहटाएंएक सर्वथा नूतन पक्ष प्रस्तुत किया है आपने, जो चिंतन और मनन करने पर विवश करता है.. त्वरित प्रतिक्रया की तो सम्भावना ही नहीं बनती!! धन्यवाद आपका!!
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय अअनुकरणीय में विवेक करना ही नीर क्षीर विवेक है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.... आज तो सदैव याद रखने योग्य जीवन सूत्र मिल गया..... आभार
अब तक का सबसे सुन्दर प्रारूप वाला ब्लॉग लगा..
जवाब देंहटाएंइससे पहले इन्द्रधनुषी रंगों वाला 'स्वर्णकार जी' का ब्लॉग देखा था.
आपके ब्लॉग के रंग बहुत ही शांतिदायी हैं. आँखों को सुख देते हैं.
chup rehna tabhi theek hai jab kisi ki jindgiko bachana ho anytha sach hi bol dena theek hai
जवाब देंहटाएंजिस हंस को नीर-क्षीर विवेकी कहते हैं. उसके सन्दर्भ में एक बात पता चली है कि जब वह दूध के पात्र में चोंच डालता है तब दूध और पानी अलग-अलग हो जाते हैं. .. उसके मुख में एक रसायन-विशेष (अम्ल) होता है जो दूध को फाड़ देता है. फटे हुए दूध का पानी अलग हो जाता है तो फटे हुए दूध के मोटे-मोटे अंश उसे खाने में आसानी होती है... यही उसका विवेक है.
जवाब देंहटाएंकई बार हमें गंदगी में जाकर ही दिव्य वस्तु मिल पाती है.
— कीचड़ के सरोवर में जाकर ही कमल मिल पाता है.
— कोयले की खान में घुसकर ही हीरा प्राप्त होता है.
— कांटो में जाने वाले हाथ ही फूल का स्पर्श कर पाते हैं.
— स्वयं विषपान करने वाले ही दूसरों के लिये अमृत छोड़ पाते हैं.
......... क्या ये सब कार्य विवेकी के नहीं? ........... साधक, साहसी, सहृदय और परोपकारी बुद्धि वाले ही तो ये सब कार्य करते हैं.
किसी अन्य के प्रति कोई निर्णय स्वविवेक से ही लिए जाने चाहिए । चाहे किसी के बारे में हमे कोई अच्छा या बुरा बताए उसे एक जानकारी मानकर कसौटी पर कसकर देख लेने के बाद ही पूरा स्वीकारना चाहिए । यह किसी के प्रति अविश्वास नहीं वरन किसी भी पूर्वाग्रह से बचने का तरीका है । इसके लिए आत्मविश्वास आवश्यक होता है । पर हर परिस्थिति में ये संभव भी नहीं हो पाता और दूसरों की सहायता लेनी पड़ती हैं। बहुत अच्छा विचार प्रस्तुत किया है आपने। आभार ...
जवाब देंहटाएंहंसराज जी, बढ़िया विचार!
जवाब देंहटाएंबचपन में एक चुटकुला सुना था कि कैसे एक ज़माने में हकीम / वैद्य आदि नब्ज / नाडी देख कर कोई सस्ता इलाज बता देते थे,,, और उन दिनों पर्दा-प्रथा भी थी जिस कारण महिला के हाथ में डोर बाँध, परदे के पीछे खड़े हकीम उसे हाथ में ले नाडी की चाल उसी से देख इलाज करते थे... कुछ शरारती लड़कों ने ऐसे ही एक हकीम को बुला धागा एक बकरी के पैर में बाँध दिया था... तो हकीम ने इलाज़ बताया कि बीमार को हरी घास खिलाओ :)
कहने का तात्पर्य यह है कि भूत में ज्ञान वर्तमान की तुलना में अत्यधिक उन्नत था, यद्यपि आज मशीनों का उपयोग बढ़ गया है और इलाज महंगा हो गया है... और यदि जीज़स क्राइस्ट को ही लेलें तो मान्यता है कि वो तो छू कर ही अंधों और कोढियों को स्वस्थ कर देने में सक्षम थे,,, जबकि वो किसी मेडिकल कॉलेज में नहीं पढ़े थे!,,, और प्राचीन भारत में भी मान्यता है कि 'पहुंचे हुवे' योगी कई 'चमत्कार' करने में सक्षम थे... जैसे पानी पर चलना, एक स्थान से अंतर्ध्यान हो कर दूसरे किसी स्थान पर पलक झपकाते ही पहुँच जाते थे,,, इतना ही नहीं, मुर्दे को भी जिन्दा कर सकते थे! (वैसे ऐसे ही तथाकथित योगी से मैं भी अस्सी के दशक में असम में मिला था, अपनी पत्नी के इलाज़ के लिए, किन्तु उन्होंने भी दवा बना कर देने का ही सुझाव रखा, जिसे 'मैंने' अस्वीकार कर दिया था, यह कह कर कि 'मैं' उनके पास दैविक शक्ति की आशा से आया था, और दवा तो डॉक्टर दे ही रहे थे)...
सरदार खुशवंत सिंह ने भी एक लेख में लिखा था कैसे हर बिमारी का इलाज़ है तो सही, किन्तु कहा नहीं जा सकता कि कोई बीमार १००% ठीक हो जाएगा किसी विशेष चिकित्सा पद्दत्ति से - कोई तो एक गोली से ठीक हो जाता है और दूसरी ओर कोई गोली ही खाता रह जाता है :(... और यूं 'द्वैतवाद' के कारण सौभाग्य/ दुर्भाग्य का प्रश्न खड़ा हो जाता है... सही/ गलत का निर्णय कठिन हो जाता है... और यदि पता भी हो तो कठिन हो जाता है कहना कि, उदाहरणतया, आदमी शराब/ सिगरेट छोड़ क्यूँ नहीं पाता? और क्यूँ एक दिन अचानक छोड़ भी देता है?... आदि, आदि... ,
अनुकरणीय अअनुकरणीय में विवेक करना ही नीर क्षीर विवेक है।
जवाब देंहटाएंsahi vishleshan.
सुन्दर आलेख! तुलसीदास की एक तुलना याद आ गयी -
जवाब देंहटाएंचरन चोंच लोचन रंगौ, चलौ मराली चाल
क्षीर नीर विवरण समय वक उघरत तेहि काल
अनुकरणीय को लचीला और समय अनुरूप परिवर्तनीय होना चाहिए.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आलेख,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
@ JC जी
जवाब देंहटाएंमैं आपकी टिप्पणियाँ पिछले साल के अंत में आदरणीय दराल साहब के ब्लॉग से पढ़ता आ रहा हूँ और तभी से आपसे ये बात या कहें अनुरोध करना चाहता हूँ की संभव हो तो टिप्पणियों के साथ साथ आप अपना एक ब्लॉग भी बनाएँ जहां हमें आपके विचारों का कलेक्शन मिल जाए .. क्या ये संभव है ? . अगर ऐसा हो पाया तो हम सभी को बड़ी प्रसन्नता होगी
@सुज्ञ जी
जवाब देंहटाएंब्लॉग का ये नया रूप रंग सचमुच बहुत अच्छा लग रहा है, प्रतुल जी सही कह रहे हैं आँखों को सुख मिल रहा है
ग्लोबल जी,
जवाब देंहटाएंचाहता तो मैं भी यही हूँ, कि जोशी JC जी एक ब्लॉग़ बनाएं और दर्शन-शास्त्र का हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिले।
ब्लॉग का ये नया रूप रंग है तो अच्छा है लेकिन सभी प्रयास के बाद भी टिप्पणीकारों के चित्र प्रदर्शित नहीं हो रहे। कोई तकनिकि ब्लॉगर सहायता कर सकता है?
और ग्लोबल जी आपका ब्लॉग कुछ देर से खुलता है, शायद एक दो विजेट परेशान कर रहे है।
setting->comments->Show profile images on comments? -> yes
जवाब देंहटाएंये तो शायद किया जा चुका होगा , तभी कुछ आइकन जैसा नजर आ रहा है
जवाब देंहटाएंआपकी बात "हिंदी ब्लॉग टिप्स" तक पहुंचा दी है :)
जवाब देंहटाएंसर अब चित्र आ रहें है.
जवाब देंहटाएं@ Global Agrawal जी, आपके, और हंसराज जी के भी, विचार सुन प्रसन्नता हुई! धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं'मैं' पहले अपनी टिप्पणियाँ या तो समाचार पत्र, अथवा 'एनडी टीवी' आदि को भेजता था, कुछ विचार काट छांट के समाचार पत्र में प्रकाशित भी हुए, जिससे आनंद नहीं मिला... 'एनडी टीवी' पर भी ट्रैफिक एक तरफ़ा ही रहा... रवीश जी को एक दिन किसी कार्यक्रम में देख पता चला कि उनका एक हिंदी ब्लॉग है,,, और इस कारण अपनी राज भाषा में लिखने के अभ्यास हेतु 'मैंने' पहले रोमन हिंदी में टिप्पणियाँ लिखनी आरम्भ की, तो एक दिन प्रसन्नता हुई जब किसी ब्लोगर ने मुझे गूगल के टूल की उपलब्धता के विषय में लिखा... और फिर रविश जी के ब्लॉग के कारण मुझे डॉक्टर दराल के ब्लॉग का पता चला था...
वास्तव में '०५ के आरम्भ में समाचार पत्र से ब्लॉग के बारे में जब पढ़ा, और संयोगवश पहला ब्लॉग ही मुझे दक्षिण भारत की एक कविता कल्याण नामक महिला के (आरंभ में विशेषकर शिव) मंदिर के विषय पर इन्टरनेट में दिखा... और यद्यपि टिप्पणियाँ उस ब्लॉग में कोई एक डेढ़ वर्ष से नगण्य ही थीं, किन्तु सौभाग्यवश 'मेरे' लिखने के पश्चात शीघ्र ही पाठकों की संख्या में सुधार हुआ और 'मुझे' भी आनंद प्राप्त हुआ, क्यूंकि स्वयं 'मेरा' भी ज्ञानवर्धन हुआ कई देसी-विदेशी टिप्पणीकारों से 'हिन्दू मान्यता' पर विचारों का आदान-प्रदान कर... लगभग छह माह पश्चात 'मैंने' सोचा मुझे जो आता था 'मैंने' लिख दिया था, किन्तु उसने मुझसे यह कर कि मेरे कारण कई व्यक्ति उसके ब्लॉग में आने लगे उसने प्रार्थना करी कि मैं उसकी हर पोस्ट पर टिप्पणी करूं, और 'मैं' उन की हर पोस्ट पर टिप्पणियाँ लिखता आया हूँ...जैसे हम पहले भी सुनते आये थे, मेरा उद्देश्य यह था कि कोई (एक ही भले) यह न कहे कि बूढा अपना अर्जित ज्ञान चिता पर ले गया, बाँट के नहीं गया...:)
का आतार्किकतापकी ज़वाब नहीं .तर्क को उसकी परंती तक ले जाना एक कला है विवेक है .आपके ब्लॉग पे आके सुकून मिला .अच्छा विमर्श चल रहा है .आभार आपका .नेहा हमारा आपके प्रति सुज्ञ जी .
जवाब देंहटाएंब्लॉगटेक्निक जी,
जवाब देंहटाएंइस सहायता के लिए आप्का आभार!!
बिल्कुल सही कहा
जवाब देंहटाएंविवेक ही तो है जो मनुष्य को चौपायों से कुछ अलग बनाता है। बहुत बार हम मुद्दा न देखकर व्यक्ति को देखकर सहमत हो जाते हैं, निन्दा से कहीं ज्यादा नुकसान तो वो पहुँचाता है।
जवाब देंहटाएंआपका चिंतन तर्कपूर्ण सुस्पष्ट और सार्थक है.
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक , तृप्तिदायक सुन्दर लेखन के लिए
बहुत बहुत आभार.
विचारणीय तथा गंभीर, अपनी कई भूलें याद आ गयी ..याद रखने की कोशिश करूंगा !
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें !
.
जवाब देंहटाएंनीर क्षीर विभाजन को बेहतरीन उदहारण द्वारा बोधगम्य बनाया आपने. साधुवाद स्वीकारें.
उस मित्र को पूछे जाने पर सत्य ही कहना चाहिए था , वह सत्य निंदा की श्रेणी में नहीं आता . झूठी प्रशंसा करके उसने अपने मित्र को धोखे में रखकर उसका अहित ही किया.
.
"जो हुआ,उसका हमें अफसोस है। परन्तु,हमारे पास कोई और विकल्प नहीं था।" यानी,अपनी गलती भी स्वीकार की और अपनी ज़िद भी पूरी की। इसे आप क्या कहेंगे?
जवाब देंहटाएंकुमार राधारमण जी,
जवाब देंहटाएंयह वास्तव में कपट्पूर्वक खिलदंडी है। उसे न तो वास्तविक अफसोस था और न उसके पास विकल्पों की कमी। दूसरी बार उसे यह कहने का चांस भी नहीं मिलना चाहिए।
किसी ज्ञानी ने कहा कि देखती आँख है और सुनते कान हैं, किन्तु यद्यपि आँख इशारे कर सकती है, (जो केवल बुद्धिमान के लिए ही काफी हो सकता है), दोनों ही शब्द द्वारा वर्णन करने में शक्षम नहीं है, जिस कारण निम्न स्तर पर स्थित कंठ और जिव्हा को यह कार्य करना पड़ता है... इस कारण गलती का दोष जिव्हा, चटोरी जुबान को अज्ञानता के कारण जाता है...
जवाब देंहटाएं'हिन्दू मान्यता' के अनुसार मानव कंठ में निवास स्थान (विष्णु के प्रतिरूप समान विषैले वातावरण वाले) शुक्र ग्रह के सार का है, और दुर्भाग्यवश शुक्राचार्य किन्तु 'राक्षशों' के गुरू हैं (जो हर किसी को 'सत्य' तक पहुँचने में विघ्न पहुंचाते हैं)... और (सांकेतिक भाषा में) पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय को 'स्कंध' भी कहा जाता है , यानि उनका दाहिना शक्तिशाली हाथ... किन्तु वो अपने नीले मोर वाहन ('स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय पक्षी') पर - गणेश के सुस्त वाहन मूषक की तुलना में - तीव्रतर गति से सूर्य की परिक्रमा करते हैं,,, किन्तु माँ की कृपा से धरती का राजा गणेश को बनाया गया माना जाता है, क्यूंकि वो सूर्य की परिक्रमा करने के साथ साथ अपने 'माता-पिता', पृथ्वी-चन्द्र, की भी परिक्रमा करता है! इसे कोई खगोलशास्त्री ही बता सकता है कि कैसे शुक्र ग्रह पृथ्वी-चन्द्र के अंदरूनी ग्रह होने के कारण अपने सुरक्षा घेरे में नहीं ले सकता जबकि मंगल ग्रह सुस्त तो है किन्तु बाहरी ग्रह होने के कारण इन दोनों की भी परिक्रमा करता है...
यानि 'विघ्न-हर्ता' गणेश मंगल ग्रह के प्रतिरूप हैं, जबकि मायावी राक्षशों के प्रतिरूप कार्तिकेय हैं... इत्यादि...
इस प्रकार अष्ट-चक्र के कारण अनंत रोल मॉडेल प्रतीत होते हैं, और हरेक अपने मानसिक रुझान के कारण किसी एक को अपना रोल मॉडेल चुन लेता है, जैसे हर ग्रह अपनी अपनी कक्षा में घूमते हैं, हर नदी अपने अपने मार्ग में बहती हैं... आदि आदि...
पुनश्च -
जवाब देंहटाएंप्रकृति के संकेत रास्ट्रीय पक्षी के माध्यम से देखने का यदि प्रयास करें तो 'हम ' पाते हैं कि खंडित 'भारत का यदि मोर है तो 'पाकिस्तान ' का चकोर... (और उत्तरी अमेरिका के ईगल पक्षी के देश के राष्ट्रीय ध्वज में केवल स्थान दिया जाना ही नहीं अपितु महाद्वीप का स्वयं उस पक्षी रूप में प्रतीत होना भी एक अद्भुत प्राकृतिक संकेत है, और प्राचीन हिन्दुओं ने भी ईगल अर्थात गरुड़ को विष्णु का वाहन माना, और आज अमेरिका का अंतरिक्ष उड़ान में वर्चस्व भी है!... और यदि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप को भी गौर से देखा जाए तो शायद उस में आप शिव के तथाकथित वाहन नंदी बैल का केवल सर भी देख पाएं)...
मोर, सागरजल के - यद्यपि जो वास्तव में कृष्ण अर्थात काला है, जैसा वो रात के अँधेरे में दिखता भी है - आकाश / अंतरिक्ष में प्रतिरूप, बादलों (श्याम घन?) को देख परमानन्द के प्रतिरूप आनंद का प्रदर्शन, दिन में अधिकतर सूर्य के प्रकाश के कारण नीले प्रतीत होते आकाश (नीलाम्बर कृष्ण?) के तले, अपने - आकाश को प्रतिबिंबित करते - नीले पंख फैला नाच कर दर्शाता है,,,
और चकोर कुछ दिन, अधिकतर पूर्णिमा के निकट, काली रात की रानी चंद्रमा (कृष्ण को प्रिय राधा ?) को उजली रात में आकाश में देख 'पीयू, पीयू' की रट लगाने लगता है...
[और योगी भी मानव शरीर को नौ ग्रहों के सार से बना जान, जिसमें चन्द्रमा के सार को मानव मस्तिष्क में दर्शाया गया और उसे ही गंतव्य दर्शा उस तक सब चक्रों में उपलब्ध शक्ति और सूचना को 'सहस्रार चक्र' में परम ज्ञान पाने हेतु एक बिंदु पर एकत्र करने का उपदेश दे गए... ]
True I agree with it..
जवाब देंहटाएंअअनुकरणीय में विवेक करना ही नीर क्षीर विवेक है।
Fantastically written
sugya bhaiya - raakhi par aapko chhoti bahan ka charansparsh
जवाब देंहटाएंसदा सर्वदा सुखी रहे बहना!! आनन्द सहज अनुकूल रहे।
हटाएंvery nice
जवाब देंहटाएं