7 अगस्त 2014

पाखण्डोदय

एक कामचोर भंडारी के कारण राजकोष में बड़ी भारी चोरी हो गई। राजा ने उस भंडारी को तलब किया,और ठीक से जिम्मेदारी न निभाने का कारण पूछा। भंडारी ने उछ्रंखलता से जवाब दिया, "चारों और चोरी बेईमानी फैली है मैं क्या करूँ, मैं तो ईमानदार हूँ।"

राजा ने उसका नाक कटवा कर उसे छुट्टी दे दी। शर्म के मारे वह नकटा किसी दूसरे राज्य में चला गया। लोगों के उपहास से बचने के लिए खुद को साधु बताने लगा। वह चौरे चौबारे प्रवचन देता- "नाक ही अहंकार का मूल है, यह हमारी दृष्टि और ईश्वर के बीच व्यवधान है। ईश्वर के दर्शन में सबसे बड़ी बाधा नाक होती है। इसे हटाए बिना ईश्वर के दर्शन नहीं होते। मैंने वह अवरोध हटा लिया है, मैं ईश्वर के साक्षात दर्शन कर सकता हूँ"

कथनी और करनी की गज़ब एकरूपता देख, लोगों पर उसके प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ने लगा। लोग तो बस ईश्वर के दर्शन करना चाहते थे, उससे आग्रह करते कि, "भैया हमें भी भगवान् के दर्श करा दो।" वह भक्तों को नाक कटवा आने की सलाह देता। नाक कटवा कर आने वाले चेलों के कान में मंत्र फूंकता, "देखो अब सभी से कहना कि मुझे ईश्वर दिखने लगे है। मैंने तो नकटा न कहलाने के लिए, यही किया था। अगर तुमने कहा कि मुझे तो ईश्वर नहीं दिखते तो लोग नकटा नकटा कहकर तुम्हारा मजाक उडाएंगे,तुम्हारा तिरस्कार करेंगे। इसलिए अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि 'नकटा दर्शन' के सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करो और अपने समुदाय की वृद्धि करो। हमारे 'ईश दर्श सम्प्रदाय' में रहकर उपहास मुक्त जीवन यापन कर सकोगे, और इस तरह तुम नकटे होकर भी सम्मान के सहभागी बने रहोगे"

बहुत ही अल्प समय में यह सम्प्रदाय बढ़ने लगा। एक बार नकटे हो जाने के बाद इस सम्प्रदाय में बने रहना और इसके भेद को अक्षुण्ण रखना विवशता हो गई........

3 टिप्‍पणियां:

  1. युक्तियुक्त कथा बुनने के लिए साधुवाद !
    'ईश दर्श सम्प्रदाय' से मिलते-जुलते एकाधिक सम्प्रदाय (उदाहरण) हमारे समाज के मध्य हैं इसलिए इस कथा को समझना सरल और रोचक है।

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