20 जून 2013

वर्जनाओं के निहितार्थ

एक राजा को पागलपन की हद तक आम खाने का शौक था। इस शौक की अतिशय आसक्ति के कारण उन्हे, पाचन विकार की दुर्लभ व्याधि हो गई। वैद्य ने राजा को यह कहते हुए, आम खाने की सख्त मनाई कर दी कि "आम आपके जीवन के लिए विष समान है।" राजा का मनोवांछित आम, उसकी जिन्दगी का शत्रु बन गया।

एक बार राजा और मंत्री वन भ्रमण के लिए गए। काफी घूम लेने के बाद, गर्मी और थकान से चूर राजा को एक छायादार स्थान दिखा तो राजा ने वहां आराम के लिए लेटने की तैयारी की। मंत्री ने देखा, यह तो आम्रकुंज है, यहां राजा के लिए ठहरना, या बैठना उचित नहीं। मंत्री ने राजा से कहा, "महाराज! उठिए, यह स्थान भयकारी और जीवनहारी है, अन्यत्र चलिए।"  इस पर राजा का जवाब था, " मंत्री जी! वैद्यों ने आम खाने की मनाई की है, छाया में बैठने से कौनसा नुकसान होने वाला है? आप भी बैठिए।" मंत्री बैठ गया। राजा जब आमों को लालसा भरी दृष्टि से देखने लगा तो मंत्री ने फिर निवेदन किया, "महाराज! आमों की ओर मत देखिए।" राजा ने तनिक नाराजगी से कहा,  "आम की छाया में मत बैठो, आम की ओर मत देखो, यह भी कोई बात हुई? निषेध तो मात्र खाने का है"  कहते हुए पास पडे आम को हाथ में लेकर सूंघने लगा। मंत्री ने कहा, "अन्नदाता!  आम को न छूए, कृपया इसे मत सूंघिए, अनर्थ हो जाएगा। चलिए उठिए, कहीं ओर चलते है"

"क्या समझदार होकर अतार्किक सी बात कर रहे हो, छूने, सूंघने से आम पेट में नहीं चला जाएगा।" कहते हुए राजा आम से खेलने लगे। खेल खेल में ही राजा नें आम का बीट तोड़ा और उसे चखने लगे। मंत्री भयभीत होते हुए बोला, "महाराज! यह क्या कर रहे है?" अपने में ही मग्न राजा बोला, "अरे थोड़ा चख ही तो रहा हूँ। थोड़ा तो विष भी दवा का काम करता है" लेकिन राजा संयम न रख सका और पूरा आम चूस लिया। खाते ही पेट के रसायनों में विकार हुआ और विषबाधा हो गई। धरापति वहीं धराशायी हो गया।

वर्जनाएँ, अनाचार व अनैतिकताओं से जीवन को बचाकर, मूल्यों को स्वस्थ रखने के उद्देश्य से होती है। इसीलिए वर्जनाओं का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। जहां वर्जनाओं का अभाव होता है वहां अपराधों का सद्भाव होता है। देखिए…

एक चोर के हाथ हत्या हो गई। उसे फांसी की सजा सुनाई गई। अन्तिम इच्छा के रूप में उसने माता से मिलने की गुजारिश की। माता को बुलाया गया। वह अपना मुंह माता के कान के पास ले गया और अपने दांत माता के कान में गडा दिए। माता चित्कार कर उठी। वहां उपस्थित लोगों ने उसे बहुत ही धिक्कारा- अरे अधम! इस माँ ने तुझे जन्म दिया। तेरे पिता तो तेरे जन्म से पहले ही सिधार चुके थे, इस माँ ने बडे कष्टोँ से तुझे पाला-पोसा। उस माता को तूने अपने अन्त समय में ऐसा दर्दनाक कष्ट दिया? धिक्कार है तुझे।"

"इसने मुझे जन्म अवश्य दिया, इस नाते यह मेरी जननी है। किन्तु माता तो वह होती है जो जीवन का निर्माण करती है। संस्कार देकर संतति के जीवन का कल्याण सुनिश्चित करती है। जब मैं बचपन में दूसरे बच्चों के पैन पैन्सिल चुरा के घर ले आता तो मुझे टोकती नहीं, उलट प्रसन्न होती। मैं बेधडक छोटी छोटी चोरियाँ करता, उसने कभी अंकुश नहीं लगाया, मेरी चोरी की आदतो को सदैव मुक समर्थन दिया। मेरा हौसला बढता गया। मैं बडी बडी चोरियां करता गया और अन्तः चौर्य वृत्ति को ही अपना व्यवसाय बना लिया। माँ ने कभी किसी वर्जना से मेरा परिचय नहीं करवाया, परिणाम स्वरूप मैं किसी भी कार्य को अनुचित नहीं मानता था। मुझसे यह हत्या भी चोरी में बाधा उपस्थित होने के कारण हुई और उसी कारण आज मेरा जीवन समाप्त होने जा रहा है। मेरे पास समय होता तो माँ से इस गलती के लिए कान पकडवाता, पर अब अपनी व्यथा प्रकट करने के लिए कान काटने का ही उपाय सूझा।"

वर्जनाएँ, नैतिक चरित्र  और उसी के चलते जीवन की सुरक्षा के लिए होती है। ये सुरक्षित, शान्तियुक्त, संतोषप्रद जीवन के लिए, नियमबद्ध अनुशासन का काम करती है। वर्जनाएँ वस्तुतः जीवन में विकार एवं उससे उत्पन्न तनावों को दूर रख जीवन को सहज शान्तिप्रद बनाए रखने के सदप्रयोजन से ही होती है।

लोग वर्जनाओं को मानसिक कुंठा का कारण मानते है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि वर्जनाओं का आदर कर, स्वानुशासन से पालन करने वाले कभी कुंठा का शिकार नहीं होते। वह इसलिए कि  वे वर्जनाओं का उल्लंघन न करने की प्रतिबद्धता पर डटे रहते है। ऐसी दृढ निष्ठा, मजबूत मनोबल का परिणाम होती है, दृढ मनोबल कभी कुंठा का शिकार नहीं होता। जबकि दुविधा और विवशता ही प्रायः कुंठा को जन्म देती है। जो लोग बिना दूर दृष्टि के सीधे ही वर्जनाओं के प्रतिकार का मानस रखते है,  क्षणिक तृष्णाओं  के वश होकर, स्वछंदता से  जोखिम उठाने को तो तत्पर हो जाते है, लेकिन दूसरी तरफ अनैतिक व्यक्तित्व के प्रकट होने से भयभीत भी रहते है। इस तरह वे ही अक्सर द्वंद्वं में  दुविधाग्रस्त हो जाते है। दुविधा, विवशता और निर्णय निर्बलता के फलस्वरूप ही मानसिक कुंठा पनपती है। दृढ-प्रतिज्ञ को आत्मसंयम से कोई परेशानी नहीं होती।

अन्य सूत्र………
मन बिगाडे हार है और मन सुधारे जीत
जिजीविषा और विजिगीषा
दुर्गम पथ सदाचार
जीवन की सार्थकता
कटी पतंग
सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव

34 टिप्‍पणियां:

  1. आपने लिखा....
    हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए शनिवार 22/06/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. आत्मसंयम का कोई विकल्प नहीं है।

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    1. सही है विवेकयुक्त आत्मसंयम ही निदान है.

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  3. वर्जनाएं खुद के द्वरा अपने ऊपर लैगून तो ठीक न कि थोपी जाएँ ..
    मंगल कामनाएं आपको !

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    1. वर्जनाएं वास्तव में अनुभवजन्य ज्ञान के सामुहिक चिंतन के बाद अस्तित्व में आती है. सलाह की तरह सम्मुख आती है और स्वहित में सावधानी के मद्देनजर स्वीकारी जाती है.

      शुभकामानाएँ आपके लिए!!

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  4. सहमत हूँ.... वर्जनाओं को इस रूप में लिया जाय तो सकारात्मक परिणाम ही निकलेंगें .....

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    1. सच है, वर्जनाओं की नकारात्मकता भविष्य के सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित करने के लिए है.

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  5. sahi baat hai varjanaye hamare bhale ke liye hoti hain lekin unhe todane me hi log shan samjhate hai ..sundar rachna ...

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    1. सही कहा, 'वर्जनाओं को तोडने में लोग शान समझते है'

      बदी से भी नाम बनाने का मोह मानव स्वभाव का विकारी परिणाम है, वह दुस्साहस करता है पर नहीं जानता यह अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारने के समान है.

      प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका!!

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  6. वर्जनाओं के कारण कुंठित लोगों की शिकायतें तो फ़िर भी समझ आती हैं कि उन्हें दबाकर रखा गया लेकिन स्वच्छंद जीवन के समर्थकों के बारे में कभी खुदकुशी या डिप्रेशन जैसे समाचार आते हैं तो हैरानी ही होती है।

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    1. इसमें हैरानी की कोई बात नहीँ, स्वच्छंदताएँ प्रारम्भ में कुछ मजा दे सकती है किंतु अंततः विषाद पर ही समाप्त होती है.स्वच्छंदताएँ ही कुंठा का स्रोत बनती है बस इस तथ्य पर गौर नहीं किया जाता.

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  7. सामाजिक और पारिवारिक वर्जनाएं अनुभवजन्य होकर निर्धारित हो गयी है , इसलिए इनके उल्लंघन से पूर्व विवेक उचित ही है !

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    1. सटीक बात कही, वाणी जी!
      वर्जनाएं युगों के सामुदायिक अनुभवजन्य ज्ञान का निचोड होती है और सम्भावनाओं के यथार्थ बल पर स्थापित होती है. काल प्रवाह से कुछ सतही वर्जनाएं अप्रासंगिक हो जाती है तो कुछ शाश्वत सत्य की तरह सदैव प्रासंगिक रहती है.इस भेद का विवेक जरूरी है.

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  8. बहुत ही सुंदर तरीके से आपने वर्जनाओं का महत्व समझाया. वर्जनाओं की अनदेखी करना भी मन के कारण ही होता है. थोडे थोडे....से आदमी अधिक की और बढता जाता है. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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    1. यथार्थ बात है ताऊ श्री,

      मन ही स्वच्छंद घोडा है,लगाम में जरा सी ढील मिली कि उछ्रंखल होते चला जाता है. आत्मसंयम ही लगाम है जो मन को काबू कर सकता है.

      आभार और असीमित शुभकामनाएँ

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  9. सच कहा..आत्मानुशासन तो रखना ही होगा।

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  10. sahi likha hai apane magar aaj varjanao ko roodiya bata kar manane valo ki manasikata ko dakiyanoosi batakar inase bachane ke bahane khojata hai samaj.

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    1. उछ्रंखल प्रवृति,अपनी स्वछंदता में बाधा बनते अनुशासन को बस दकियानूसी कह कर अपना रास्ता आसान करती है। अपने बहुमूल्य जीवन का हित अहित समझने वाले ही विवेक से दकियानूसी और संयम का भेद पा सकते है।

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  11. varjanao ki vajah se sayad ekad vyakti ko hi apana jeevan ganvana padata ho magar(svachchhand) inako na manane walo ki atmahatya ki khabare to ab aam ho gai hai.

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    1. एक आध भी वर्जनाओं पर संशय के कारण और इच्छाओं पर नियंत्रण न कर पाने के कारण विषाद ग्रस्त होते है। किन्तु स्वछंदों को अनततः स्थिरता की आवश्यकता पडती ही है। तब उनके लिए तनाव अपने चरम पर होता है और विषाद में जाना अवश्यंभावी हो जाता है।

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  12. समाज के लिए बनाये गए नियमों का पालन न करने से अराजकता ही फैलती है। इसलिए वर्जनाएं आवश्यक हैं।

    सार्थक सन्देश देती पोस्ट।

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    1. बिलकुल सही बात कही आपने दराल साहब!,
      शान्ति और संतोषयुक्त जीवन के लिए स्वस्थ समाज का होना आवश्यक शर्त है। वर्जनाओं का कार्य विकारों को बाधित करना है। नियमों के अनुशासन का कार्य समाज को स्वस्थ बनाए रखना है।

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  13. इन कहानियों के माध्यम से आपने सही और गलत के पहचान और फिर सही वर्जनाओं को मानने की सीख दी है ... समाज के बनाए नियम पालन करने और समय समय पर अच्छे बदलाव लाने के लिए ही बनी हैं ...

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    1. सही कहा नासवा जी,
      और समाज के नियम नैतिकताओं को सुरक्षित रखने के लिए होते है और बदलाव जीवन को उत्थान देने के लिए. आभार

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  14. बहुत सुन्दर रचना.बहुत बहुत बधाई...

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