26 सितंबर 2011

सही निशाना


पुराने समय की बात है, चित्रकला सीखने के उद्देश्य से एक युवक, कलाचार्य गुरू के पास पहुँचा। गुरू उस समय कला- विद्या में पारंगत और सुप्रसिद्ध थे। युवक की कला सीखने की तीव्र इच्छा देखकर, गुरू नें उसे शिष्य रूप में अपना लिया। अपनें अविरत श्रम से देखते ही देखते यह शिष्य चित्रकला में पारंगत हो गया।  अब वह शिष्य सोचने लगा, मैं कला में पारंगत हो गया हूँ, गुरू को अब मुझे दिक्षान्त आज्ञा दे देनी चाहिए। पर गुरू उसे जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। हर बार गुरू कहते अभी भी तुम्हारी शिक्षा शेष है। शिष्य तनाव में रहने लगा। वह सोचता अब यहां मेरा जीवन व्यर्थ ही व्यतीत हो रहा है।  मैं कब अपनी कला का उपयोग कर, कुछ बन दिखाउंगा? इस तरह तो मेरे जीवन के स्वर्णिम दिन यूंही बीत जाएंगे।

विचार करते हुए, एक दिन बिना गुरू को बताए, बिना आज्ञा ही उसने गुरूकुल छोड दिया और निकट ही एक नगर में जाकर रहने लगा। वहाँ लोगों के चित्र बनाकर आजिविका का निर्वाह करने लगा। वह जो भी चित्र बनाता लोग देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते। हर चित्र हूबहू प्रतिकृति। उसकी ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। उसे अच्छा पारिश्रमिक मिलता। देखते देखते वह समृद्ध हो गया। उसकी कला के चर्चे नगर में फैल गए। उसकी कीर्ती राजा तक पहुँची।

राजा नें उसे दरबार में आमंत्रित किया और उसकी कलाकीर्ती की भूरि भूरि प्रसंसा की। साथ ही अपना चित्र बनाने का निवेदन किया।  श्रेष्ठ चित्र बनाने पर पुरस्कार देने का आश्वासन भी दिया। राजा का आदेश शिरोधार्य करते हुए 15 दिन का समय लेकर, वह युवा कलाकार घर लौटा। घर आते ही वह राजा के अनुपम चित्र रचना के लिए रेखाचित्र बनानें में मशगूल हो गया। पर सहसा एक विचार आया और अनायास ही वह संताप से घिर गया।

वस्तुतः राजा एक आँख से अंधा अर्थात् काना था। उसने सोचा, यदि मैं राजा का हूबहू चित्र बनाता हूँ, और उसे काना दर्शाता हूँ तो निश्चित ही राजा को यह अपना अपमान लगेगा और वह तो राजा है, पारितोषिक की जगह वह मुझे मृत्युदंड़ ही दे देगा। और यदि दोनो आँखे दर्शाता हूँ तब भी गलत चित्र बनाने के दंड़स्वरूप वह मुझे मौत की सजा ही दे देगा। यदि वह चित्र न बनाए तब तो राजा अपनी अवज्ञा से कुपित होकर सर कलम ही कर देगा।किसी भी स्थिति में मौत निश्चित थी।  वह सोच सोच कर तनावग्रस्त हो गया, बचने का कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा था। इसी चिंता में न तो वह सो पा रहा था न चैन पा रहा था।

अन्ततः उसे गुरू की याद आई। उसने सोचा अब तो गुरू ही कोई मार्ग सुझा सकते है। मेरा उनके पास जाना ही अब अन्तिम उपाय है। वह शीघ्रता से आश्रम पहुंचा और गुरू चरणों में वंदन किया, अपने चले जाने के लिए क्षमा मांगते हुए अपनी दुष्कर समस्या बताई। गुरू ने स्नेहपूर्ण आश्वासन दिया। और चित्त को शान्त करने का उपदेश दिया।  गुरू नें उसे मार्ग सुझाया कि वत्स तुम राजा का घुड़सवार योद्धा के रूप में चित्रण करो, उन्हें धनुर्धर दर्शाओ। राजा को धनुष पर तीर चढ़ाकर निशाना साधते हुए दिखाओं, एक आँख से निशाना साधते हुए। ध्यान रहे राजा की जो आँख नहीं है उसी आंख को बंद दिखाना है। कलाकार संतुष्ट हुआ।

शिष्य, गुरू के कथनानुसार ही चित्र बना कर राजा के सम्मुख पहुँचा। राजा अपना वीर धनुर्धर स्वरूप का अद्भुत चित्र देखकर बहुत ही प्रसन्न और तुष्ट हुआ। राजा ने कलाकार को 1 लाख स्वर्ण मुद्राएं ईनाम दी। कलाकार नें ततक्षण प्राण बचाने के कृतज्ञ भाव से वे स्वर्ण मुद्राएं गुरू चरणों में रख दी। गुरू नें यह कहते हुए कि "यह तुम्हारे कौशल का प्रतिफल है, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है।" आशिर्वाद देते हुए विदा किया।

कथा का बोध क्या है?

1-यदि गुरू पहले ही उपदेश देते  कि- 'पहले तुम परिपक्व हो जाओ', तो क्या शिष्य गुरू की हितेच्छा समझ पाता?  आज्ञा होने तक विनय भाव से रूक पाता?

2-क्या कौशल के साथ साथ बुद्धि, विवेक और अनुभव की शिक्षा भी जरूरी है?

3-निशाना साधते राजा का चित्र बनाना, राजा के प्रति सकारात्म्क दृष्टि से प्रेरित है, या  समाधान की युक्ति मात्र?

52 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर और प्रेरक रचना।

    अच्‍छा लगता है ऐसी रचनाओं से होकर गुजरना।
    ________
    आप चलेंगे इस महाकुंभ में...

    ...मानव के लिए खतरा।

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रेरक बोधकथा। केवल मात्र ज्ञान प्राप्‍त करना ही पर्याप्‍त नहीं है। सामाजिकता को समझना भी अनिवार्य है। व्‍यक्ति अपना चित्र खूबसूरत ही देखना चाहता है इसलिए चित्र बनाते समय विवेक तो रखना ही होगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. जी हाँ,शिष्य को गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए इंतजार करना चाहिये था.
    निसंदेह कौशल के साथ साथ बुद्धि,विवेक और अनुभव की शिक्षा जरूरी है.
    राजा का निशाना लेते हुए चित्र बनाना दोनों से प्रेरित है ,सकारात्मक दृष्टि से
    व समाधान हेतू भी.

    आपकी विचारोत्तेजक प्रस्तुति के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  4. चार मित्र कई वर्ष बाद विद्या ग्रहण कर एक स्थान पर मिले और साथ साथ एक जंगल से हो कर घर जा रहे थे... कि एक स्थान पर एक मरे शेर की अस्थि आदि पड़ी दिखी तो एक बोला मैंने विद्या प्राप्त की है जिससे मैं इसका ढांचा अस्थियों से बना सकता हूँ... और यह कह उसने उसका कंकाल तैयार कर दिया...
    दूसरे मित्र ने उस पर अर्जित ज्ञान के आधार पर मांस-पेशी डाल चमड़ी चढ़ा दी...
    तब जब तीसरा बोला कि वो उस में जान फूंक सकता हूँ...
    तो चौथा बोला मुझे थोडा समय दो...
    वो एक पेड़ पर चढ़ गया...

    जब शेर जीवित हो गया तो यह कहना आवश्यक नहीं है कि तीनों ज्ञानी शेर ने खा लिए!
    और केवल सामान्य ज्ञानी बच गया :)

    जवाब देंहटाएं
  5. गुरुकुल शिक्षा पद्दति के हिसाब से देखें तो
    १. हाँ
    २. हाँ
    ३. समाधान

    मॉडर्न शिक्षा पद्दति के हिसाब से देखें तो
    १. नहीं
    २. फील्ड ट्रेनिंग के बिना क्या होगा ? [जैसा इस कहानी में शिष्य में किया ]
    ३. क्रिएटिविटी है

    जवाब देंहटाएं
  6. गौरव जी,

    यथार्थ तुलनात्मक विवेचन है

    जवाब देंहटाएं
  7. bahut ni badiya...bina budhi vevek ke koi kala kaam nhi aati

    जवाब देंहटाएं
  8. गुरु ने सही कहा था कि शिक्षा पूरी नहीं हुई है ...इसी लिए उसे फिर गुरु के पास जाना पड़ा ..व्यवहारिक शिक्षा के लिए ... गुरु ने समाधान भी बताया और सकारात्मक सोच भी ..अच्छी प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  9. ऐसी ही एक कहानी महाराजा रणजीत सिंह जी के बारे में प्रसिद्ध है जिसमें चारण\कवि ने उनकी प्रशंसा में कुछ ऐसा कहा था, "तेरी इक्को आंक्ख सुलखणी"
    विद्या से विनय, यूँ ही तो नहीं कहा गया।

    जवाब देंहटाएं
  10. बातचीत करते तो शायद इतना पता लग जाता कि दीक्षांत में देर क्यों लग रही थी और कितने समय में कोर्स पूरा हो जाना था।
    1. शायद नहीं; 2. हाँ; दोनों;

    @ मो सम कौन?
    तेरी इक्को अंक्ख सुलक्खणी! ज्ञानवर्धक।
    ;)

    जवाब देंहटाएं
  11. समय आने पर , अपनी ज़रूरत होने पर ही व्यक्ति उसे सहज ढंग से ले पाता है... अर्धज्ञान से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होते ही प्राप्य का लालच नहीं रह जाता

    जवाब देंहटाएं
  12. प्रेरणात्‍मक विचार लिये उत्‍तम प्रस्‍तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  13. अवाक हूँ !! शायद कोई जनरलाइज्ड उत्तर नहीं हो सकते इन सवालों के - पात्र कौन हैं इस पर निर्भर करता है कि उत्तर क्या होंगे |

    जवाब देंहटाएं
  14. निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति में अपने जीवन काल में - किसी काल विशेष तक - विभिन्न क्षेत्र में अनुभव प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न भिन्न होते हैं... जो निर्भर करता है उसकी प्राकृतिक कार्य क्षमता और मानसिक रुझान पर...

    शिष्य को चित्र बनाने की कला में अनुभव तो हो ही गया था... और उसे ख्याति भी प्राप्त हो गयी थी तभी तो राजा तक समाचार पहुँच गया था... यदि शिष्य की बुद्धि अपने गुरु से उच्चतर होती, तो संभव है उसको उस गुरु के पास जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, उसे स्वयं अपने ही मन, बुद्धि, आदि से वो ही विचार, जो गुरु ने दिया, स्वयं आ जाता...

    और यदि गुरु अज्ञानी होता और शिष्य के उसकी बात न मानने से क्रोधित होता, अथवा उसे इर्ष्या होती की राजा ने उसे क्यूँ नहीं बुलाया, तो कहानी का अंत सुखकर न होता शायद... कहानी में मोड़ आजाता!

    जवाब देंहटाएं
  15. 1- वस्तुतः गुरू के प्रति विनय इसीलिए आवश्यक है कि कुछ निर्देश व आज्ञाएं खुलकर नहीं दी जा सकती। शिष्य नें कौशल तो पूर्ण प्राप्त कर लिया था, मात्र विवेक-बुद्धि और अनुभव प्राप्त करना शेष था। यदि उसे अभी अनुभवहीन कहा जाता तो शिष्य का अहं उस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता। अतः गुरू का शिक्षा अधूरी है कहना ही उचित था। आवश्यकता पड़ने पर ही शिष्य को वह बात समझ आ सकती थी, और आई भी। वह शिष्य स्वयं बुद्धिमान भी हो सकता था पर कथा-वस्तु के अनुरूप सामान्य बुद्धि शिष्य ग्रहण किया गया है।

    जवाब देंहटाएं
  16. कई दशक पहले एक मित्र सपत्नीक जापान गया... जहां उसकी पत्नी ने गुडिया बनाना सीख लिया...
    और दिल्ली लौटने पर गुडिया बनाना और उन्हें बेचना आरम्भ कर दिया...
    खूब बिक्री होने पर १२ लडकियां रखलीं...
    अब हरेक गुड़ियां बनाती थीं...
    किन्तु एक ने उनका काम छोड़ निजी कार्य आरम्भ कर दिया!
    उन्होनें फिर सब को सब काम सिखाने के बदले हरेक को केवल एक एक हिस्सा करने को दिया...
    और गुडिया बनाने का काम अपने पास ही रखा... वैसे ही जैसे मैंने उदाहरण दिया था शेर को बनाने का तीन शिष्यों द्वारा :)

    जवाब देंहटाएं
  17. 2- यह आवश्यक है। कला, कौशल और धनोपार्जन हित दी जाने वाली शिक्षा में भी बुद्धि विवेक और अनुभव की शिक्षा बेहद जरूरी है।

    3-'निशाना साधते राजा का चित्र' बनाने में समाधान की युक्ति स्वयं राजा के प्रति सकारात्म्क दृष्टि से प्रेरित है।

    जवाब देंहटाएं
  18. जेसी जी सही कहा, यही विवेक बुद्धि है, जो आज कल मशीनीकृत तरीके से कम्पनी प्रबंध की शिक्षा लेने वालो को दी ही जाती। समस्या तब आती है जब उनका प्रतिस्पृद्धि नया तरीका इज़ाद कर लेता है।

    जवाब देंहटाएं
  19. एक फौजी ने लिखा था कि उस का अफसर सदैव नया कोई भी कठिन काम उसे ही देता था...
    एक दिन वो उससे पूछ ही बैठा - क्यूँ?
    उस को उत्तर मिला कि वो आलसी था, इस लिए आराम से सोने के लिए वो उस काम को शीघ्र समाप्त कर लेता था!
    और इस प्रकार दूसरे भी सीख जाते थे कि कार्य कैसे करना है :)

    जवाब देंहटाएं



  20. बोध कथा का आनन्द लिया है … सवालों के जवाब आप ही समझाएं …:)


    आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

    जवाब देंहटाएं
  21. प्ररक कथा ... पर आपके तीनों प्रश्न सोचने को मजबूर करते हैं ...
    नव रात्री की मंगल कामनाएं ...

    जवाब देंहटाएं
  22. बिना विवेक के तो कुछ नहीं हो सकता।

    जवाब देंहटाएं
  23. द्वैतवाद से उत्पन्न भले / बुरे प्रतीत होते भौतिक वस्तुओं / कर्म का ज्ञान, "नीर-क्षीर विवेक" जो पशु जगत में केवल हंस में प्राकृतिक रूप से दिखाई पड़ता है.... और जिस कारण मानव जगत में कोई बिरले ही ज्ञानी-ध्यानी पुरुषों, तपस्वी, साधकों, योगी, सिद्धों को ही केवल 'परमहंस' पुकारा जाता है (जैसे 'अनपढ़', माँ काली के परम भक्त, रामकृष्ण परमहंस; स्कूल के विद्यार्थी, घर से हिमालया की ओर पलायन कर, अंततः गुरु कृपा से ज्ञान अर्जित कर, अमेरिका में ख्याति प्राप्त, ' परमहंस योगानान्दा', आदि), दर्शाते है कि बिरले ही व्यक्ति समय समय पर धरती पर जन्म लेते हैं - आम जनता को उनके जीवन का सही लक्ष्य दर्शाने हेतु...

    अर्थात 'परम सत्य' तक पहुँचने हेतु जीवन पर्यंत एकाग्रचित्त प्रयास रत रहने के लिए...
    गीता में कृष्ण जी विपरीत परिस्थितियों में समान व्यवहार कर, साथ साथ अपना निर्धारित कार्य संपन्न करते, माया से पार पाने हेतु स्थित्प्रज्ञं (लक्ष्मी समान चंचल, मन पर नियंत्रण कर) रहने का उपदेश दे गए...
    किन्तु, 'आम आदमी', "मैं कम्बल को लात मारता हूँ / किन्तु कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ता" को चरितार्थ करता पाया जाता है - कृष्णलीला में :)...
    "बहुत कठिन है डगर पनघट की..." :)

    जवाब देंहटाएं
  24. बहुत पसंद आई ये बोध कथा.

    जवाब देंहटाएं
  25. 'नवरात्रि के सन्दर्भ में कह सकते हैं कि प्रकृति संकेत करती है कि मानव के जीवन का उद्देश्य क्या है...

    सूर्य-चन्द्रमा को ही माध्यम ले तो कोई भी आँखों वाला देख सकता है कि सूर्य दिन में आता है और जगत को औसतन १२ घंटे प्रकाशमान करता है, और इस का, एक समान गोल और गोरा चेहरा, दिन भर दिख पड़ता है, जबकि पृष्ठभूमि में, अधिकतर साफ़ रहने पर, आकाश नीला...

    किन्तु शाम होते ही सूर्य के अस्ताचल में पहुँचने पर इस का चेहरा लाल हो जाता है जैसे सूर्योदय के समय भी वो दीखता है... आकाश अब, अंतरिक्ष को प्रतिबिंबित करते समान, 'कृष्ण' अर्थात काला दिखने लगता है... और अब सूर्य समान गोल चेहरा केवल चंद्रमा का दीखता है - पूर्णमासी की रात को...
    और यह चेहरा निरंतर परिवर्तनशील है, एक माह चलने वाले चक्र समान, अमावस्या वाली रात से प्रारम्भ कर एक और काली रात तक, इसकी बढ़ती-घटती चन्द्र कला को प्रदर्शित करते, जो इसका सूर्य के प्रकाश से चमकने और उसकी किरणों को वापिस भेज देने के कारण हम पृथ्वी निवासी जीवों को भी देख पाने का सौभाग्य प्राप्त होता है, किन्तु शायद यह भी जानते कि हमें इसका एक ही चेहरा सदैव दीखता है (अर्थात सीता के चरण / चेहरा नहीं किन्तु लक्षमण का देख पाना, और चन्द्रहार नहीं पहचानना रावण द्वारा 'सीताहरण' के पश्चात, यद्यपि बनवास के समय १२ वर्ष से लगभग वो उनके निकट ही था ?!) ...
    किन्तु, क्यूंकि मानव नवग्रहों के सार से बना माना गया है तो 'नवरात्री को माँ के विभिन्न रूपों कि पूजा कर मन को उनके द्वारा अस्थिर न होने देने हेतु, उन नौ दिनों में, और मन रुपी घट को अमृत से पूरा भरने कि आशा कर :)
    "जय जगदम्बा माँ "!




    .....


    ...

    जवाब देंहटाएं
  26. aapki is kahani se hame b gyan mila. sach kaha aagya hone tak vinay ke bhaav se na ruk pata.

    2. kaushal ke sath buddhi aur vivek ka hona b bahut mahatvpoorn hai.

    3.raja ka chitr banana sakratmakata darshata hai jisme vivek ka aur buddhi ka pryog hua to samasya ka samaadhan bhi ho gaya.

    aabhar.

    जवाब देंहटाएं
  27. प्रेरणात्‍मक विचार लिये उत्‍तम प्रस्‍तुति|
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं|

    जवाब देंहटाएं
  28. सुज्ञ जी!
    पहले भी कहा है कि यहाँ आकर जो ज्ञान प्राप्त होता है जो शान्ति मिलाती है वह बस आपकी पोस्ट के साथ साथ विद्वज्जनों की टिप्पणियों को पढकर ही जाना जा सकता है!!

    जवाब देंहटाएं
  29. हिन्दू मान्यतानुसार, भगवान् की दृष्टि में सभी भले-बुरे, गोरे-काले, लम्बे-छोटे, आदि आदि सभी बराबर हैं! जिस कारण यह भी कहा जाता है कि भगवान् सभी को एक ही आँख से देखता है, अर्थात वो भी 'संयोगवश' आपकी कहानी के राजा समान काना है...
    और 'संयोगवश' हरि विष्णु / कृष्ण के सुदर्शन चक्र समान, चक्र-वात / हरिकेन के केंद्र को भी 'आँख' कहा जाता है :)...

    किन्तु मानव भगवान् का प्रतिरूप होते हुए भी 'दृष्टि दोष' के कारण (दो बहिर्मुखी आँखों में समन्वय न होने से, और 'अंतर्मन की आँख', अथवा 'शिव की तीसरी आँख' बंद होने के कारण), भटक जाता है... जो काल के कलियुग की ओर निरंतर प्रगतिशील होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति में मानसिक द्वन्द को, 'महाभारत', अथवा परोपकारी देवता और स्वार्थी राक्षसों के बीच निरंतर चलते युद्ध समान, बढ़ावा देता है...

    जवाब देंहटाएं
  30. अत्यंत प्रेरक और ज्ञानवर्धक कथा.
    उत्तम टिप्पणियों के लिए टिप्पणीकारों का भी बहुत-बहुत धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  31. व्यक्ति का अहम् उसे संपूर्णता को नहीं देखने देता। शिष्य ने गुरु से जो शिक्षा ली वह अपूर्ण थी...क्योंकि अभी उसमें समर्पण नहीं उमगा था...लेकिन अपने अहम् वश वह शिष्य गुरु को छोड़ गया...लेकिन विकट परिस्थिति में उसे अपनी सीमाओं का ध्यान आया और वह पुन: गुरु के पास गया...गुरु ने उसे पुन: राह दिखाई...व्यक्ति का अहम् ही है जो उसे संपूर्ण को देखने में बाधा बन जाता है।

    एक अच्छी बोध कथा प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद!!!

    जवाब देंहटाएं
  32. हम अपने निजी अनुभव से भी जानते हैं की कोई भी ज्ञान गुरु / गुर्वों के माध्यम से ग्रहण करले, १०0 में से १०० नंबर भी प्रति वर्ष ले कर जो कोई भी उस काल में उच्चतम पदाई उपलब्ध हो तो वो काफी नहीं होता, क्यूंकि जब कोई भी ग्रहण की हुई विद्या को उदरपूर्ति हेरू उपयोग में लाता है तो स्कूल/ कॉलेज से प्राप्त ज्ञान संभव है काफी नहीं होता... हर व्यक्ति जीवन भर कुछ न कुछ नया सीखता चला जाता है, और कोई भी नहीं कह सकता किसी समय भी कि उसे सब कुछ आ गया है...और केवल मूर्ख/ अज्ञानी ही ऐसा कहेगा, क्यूंकि कृष्ण भी कह गए कि हर गलती का कारण अज्ञान ही होता है, और केवल वो ही, विष्णु के अष्टम अवतार / योगेश्वर भी होने के कारण, परम सत्य, अमृत त्रिपुरारी शिव को जानते हैं (सत्यम शिवम् सुन्दरम! और 'क्षत्रिय', धनुर्धर राम और ज्ञानी 'ब्रह्मण' रावण दोनों ही शिव के परम भक्त थे, किन्तु दोनों में श्रेष्ट सीतापति राम ही थे, दशानन नहीं!)...
    और यद्यपि बहुरूपी कृष्ण को (जो हमारी गैलेक्सी के प्रतिरूप हैं) पृथ्वी पर तीनों लोक में पाने को शेष कुछ नहीं रह गया है, फिर भी वो हर क्षण कर्म किये जा रहे हैं (गैलेक्सी को घुमा रहे हैं, जिसके भीतर हमारा सौर -मंडल भी अवस्थित है, जिसका राजा धनुर्धर सूर्य अथवा राम हैं, और हम भी हैं!), क्यूंकि वो रुके तो सब सृष्टि रुक जायेगी और नष्ट हो जायेगी!

    जवाब देंहटाएं
  33. बहुत बढि़या ।

    जवाब देंहटाएं
  34. हमारी 'अनपढ़' किन्तु 'विदुषी' माँ कहा करती थी कि पेट भर जाए मगर आँख नहीं भारती :)

    जवाब देंहटाएं
  35. सुज्ञ जी,आपके व आपके समस्त परिवार के स्वास्थ्य, सुख समृद्धि की मंगलकामना करता हूँ.दीपावली के पावन पर्व की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.
    दुआ करता हूँ कि आपके सुन्दर सद लेखन से ब्लॉग जगत हमेशा हमेशा आलोकित रहे.

    जवाब देंहटाएं
  36. बहुत अच्छा सकारात्मक सन्देश लिए प्रेरक कहानी,बधाई !
    कथा का बोध पढना ही अपने आप में विवेक को बल देता है

    आपको और आपके परिवार को दीपावली की मंगल शुभकामनाएँ !

    जवाब देंहटाएं
  37. सभी को दीपावली की शुभ कामनाएं! तमसोमा ज्योतिर्गमय!

    जवाब देंहटाएं
  38. सुज्ञ भैया - दीपावली की शुभकामनाएं, और आज भैयादूज के अवसर पर बहन का चरणस्पर्श और प्रणाम स्वीकारें | अपनी बहन पर हमेशा आशीर्वाद बनाये रखें :) |

    जवाब देंहटाएं
  39. •आपकी किसी पोस्ट की हलचल है ...कल शनिवार (५-११-११)को नयी-पुरानी हलचल पर ......कृपया पधारें और अपने अमूल्य विचार ज़रूर दें .....!!!धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  40. बहुत सुन्दर बोध कथा....
    विषम परिस्थितियों का धैर्य से ही सकारात्मक समाधान प्राप्त किया जा सकता है...
    सुन्दर शिक्षा... सादर...

    जवाब देंहटाएं
  41. कृपया पधारें। http://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html

    जवाब देंहटाएं
  42. बहुत दिनों से इस ब्लॉग पर आपकी नई पोस्ट नही आई है.
    आपके सद् लेखन का इंतजार है.
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर भी आपका इंतजार है.

    जवाब देंहटाएं
  43. कला मन में होती है;हाथ और रंग तो माध्यम मात्र हैं। चीज़ों को उसकी सम्पूर्णता में देखना ही गुरूता है।

    जवाब देंहटाएं
  44. सुज्ञ जी, आपसे ब्लॉग जगत में परिचय होना मेरे लिए परम सौभाग्य
    की बात है.बहुत कुछ सीखा और जाना है आपसे.इस माने में वर्ष
    २०११ मेरे लिए बहुत शुभ और अच्छा रहा.

    मैं दुआ और कामना करता हूँ की आनेवाला नववर्ष आपके हमारे जीवन
    में नित खुशहाली और मंगलकारी सन्देश लेकर आये.

    नववर्ष की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.

    जवाब देंहटाएं
  45. बहुत सुन्दर प्रस्तुति|

    आपको और परिवारजनों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ|

    जवाब देंहटाएं
  46. बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक,आभार के साथ नये
    वर्ष की शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
  47. आपको सपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ|

    जवाब देंहटाएं

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...