10 जुलाई 2011

जीवन की सार्थकता






प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से जीवन को सार्थक बनाना चाहता है। यह बात अलग है कि उसका जो भी तरीका है, उससे जीवन सार्थक होता है या नहीं?

प्रायः बहिर्मुख-मानव भोग-उपभोग की विपुलता में ऐन्द्रियिक विषयों के सेवन में ही मानव-जीवन की सार्थकता देखता है, किन्तु अन्तर्मुख मानव इन भोगोपभोग में जीवन का दुरूपयोग देखता है और उदारता, दान, दया, परोपकार आदि उदात्त भावों के सेवन में जीवन का सदुपयोग अनुभव करता है।

वस्तुतः मनुष्य जीवन की सार्थकता अपने जीवन को सु-संस्कृत, परिष्कृत, विशुद्ध और परिमार्जित करने में है। इन्ही प्रयत्नो की परम्परा में मन वचन और काया से ज्ञान दर्शन चरित्र की आराधना ही प्रमुख है। मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।

38 टिप्‍पणियां:

  1. मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।

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  2. वस्तुतः मनुष्य जीवन की सार्थकता अपने जीवन को सु-संस्कृत, परिष्कृत, विशुद्ध और परिमार्जित करने में है।

    बहुत सुन्दर बात कही ... सार्थक लेख

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  3. अलबेली प्रस्तुति |
    प्रसन्न हुआ मानस ||
    आभार |

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  4. भोगोपभोग में जीवन का दुरूपयोग देखता है और उदारता, दान, दया, परोपकार आदि उदात्त भावों के सेवन में जीवन का सदुपयोग - सत्य वचन!

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  5. प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से जीवन को सार्थक बनाना चाहता है। यह बात अलग है कि उसका जो भी तरीका है, उससे जीवन सार्थक होता है या नहीं?"

    एकदम सही कहा आपने ..हम अपने जीवन को कैसे सार्थक बनाए यह हम पर ही निर्भर हैं ..

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  6. वस्तुतः मनुष्य जीवन की सार्थकता अपने जीवन को सु-संस्कृत, परिष्कृत, विशुद्ध और परिमार्जित करने में है। aur satat prayatn se , kumhaar kee tarah hi yah sambhaw hai

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  7. मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।


    सब कुछ समेटे है यह एक पंक्ति..... सुंदर विचार

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  8. मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।
    bahut sarthak bat kahi hai.ye ho jaye to fir kya kahne.aabhar.

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  9. सुज्ञ जी सुन्दर व सार्थक विचार प्रस्तुत किये हैं आपने.
    जीवन को सैदेव उन्नत व उत्तम बनाने के लिए हमें प्रयासरत रहना चाहिये.

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  10. 'परिवार' में कई स्वभाव के लोग रहते हैं.. दो या तीन पीढ़ियों के लोग रहते हैं... दोनों-तीनों पीढियों की सोच में काफी अंतर मिलता है...
    कहीं-कहीं सादे जीवन के हिमायती पति से अधिक 'पत्नी' ऐश्वर्य और भौतिक सुख को प्रधानता देती दिखती है.. तो कहीं परम्परावादी पत्नी की सोच पर भौतिकवादी सोच का पति हावी रहता है.
    दादा-पोते, पिता-पुत्र के बीच भी ....... दैनिक जीवन में खान-पान और पहनावे को लेकर ढेरों मतभेद देखने में मिला करते हैं.
    बड़े-बूढ़े समझाते-समझाते थक जाते हैं लेकिन आधुनिक सोच के बच्चों को 'सादे जीवन और उच्च विचार' वाले सूत्र दकियानूसी लगते हैं.

    आज आधुनिक सोच का ठेका नयी पीढ़ी के पास है... ऐसा उनका (पहली पीढ़ी का) मानना है.
    आज अच्छे संस्कारों का ठेका पुरानी पीढ़ी के पास है .... ऐसा उनका (दूसरी या तीसरी पीढ़ी का) मानना है.

    आज भी घर के बुजुर्ग इस उम्मीद में रहते हैं कि कभी तो नयी पीढ़ी को समझ आयेगी कि 'मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।'

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  11. प्रतुल जी,

    समस्या यहाँ अपेक्षा ही बन जाती है। सादा जीवन उच्च विचार जिस पीढी का सिद्धान्त है उसे स्वयंमेव निस्वार्थ पालन करना चाहिए न कि मात्र अगली पीढी को पलवाने के लिए ही तत्पर रहना चाहिए। चरित्र स्वयं श्रेष्ठ उदाहरण होता है। अगली पीढी वहीं से सबक ग्रहण करती है। कोरे उपदेशों से नहीं। उत्तम वस्तु तो अन्ततः स्वीकार की जाती है। और मानवीय स्वभाव व्यक्तिगत होता है। जब भी परिवर्तन के योग्य काल व परिस्थिति अनुकूल बनती है। परिवर्तन अवश्य आता है।
    नई पीढी तक संस्कृति की बस जानकारी पहुँचनी चाहिए, फोर्स कदापि नहीं। अन्ततः उम्मीद सफल होती ही है कि"मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।"

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  12. जीवन की सार्थकता पर आपका यह आलेख बेहद सुन्दर लगा|
    "बहिर्मुख-मानव भोग-उपभोग की विपुलता में ऐन्द्रियिक विषयों के सेवन में ही मानव-जीवन की सार्थकता देखता है, किन्तु अन्तर्मुख मानव इन भोगोपभोग में जीवन का दुरूपयोग देखता है और उदारता, दान, दया, परोपकार आदि उदात्त भावों के सेवन में जीवन का सदुपयोग अनुभव करता है|" बहतरीन पंक्तियाँ...

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  13. उत्तम विचार...शानदार पोस्ट...बधाई.


    _______________
    शब्द-शिखर / विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती 'आस्था'

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  14. मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।...
    A great message in this post
    Thanks for sharing !!

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  15. सादा जीवन उच्च विचार जिस पीढी का सिद्धान्त है उसे स्वयंमेव निस्वार्थ पालन करना चाहिए न कि मात्र अगली पीढी को पलवाने के लिए ही तत्पर रहना चाहिए। चरित्र स्वयं श्रेष्ठ उदाहरण होता है। अगली पीढी वहीं से सबक ग्रहण करती है। कोरे उपदेशों से नहीं। उत्तम वस्तु तो अन्ततः स्वीकार की जाती है। और मानवीय स्वभाव व्यक्तिगत होता है। जब भी परिवर्तन के योग्य काल व परिस्थिति अनुकूल बनती है। परिवर्तन अवश्य आता है।
    नई पीढी तक संस्कृति की बस जानकारी पहुँचनी चाहिए, फोर्स कदापि नहीं। अन्ततः उम्मीद सफल होती ही है कि"मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है।"

    ---------

    इतनी सार्थक पोस्ट पर उपरोक्त टिपण्णी 'सोने पर सुहागे' के समान है.
    अतिसुन्दर

    .

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  16. अनुकरणीय सार तत्व परोसा है आपने जीवन का हमारे होने का .परिष्करण और सुसंस्कृत होना ही जीवन की सार्थकता है सिविलिती का प्रक्षेपण है किसी समाज की ,वहां के रहवासियों की .
    कृपया प्रोफाइल में "रूचि के आगे -लिखे "अध्ययन "शब्द का शुद्ध रूप लिख लें "गलती से ,चूक से कलम की अध्यन लिखा गया है .सुसंस्कृत और इस अभिजात्य के लिए मुआफी चाहता है बन्दा ज़नाब -ऐ-आला से .

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  17. सुज्ञ जी! आपके ब्लॉग पर आने पर एक अद्भुत स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होती है!!स्वयं को मैं (सलिल) सदा अज्ञानी समझता हूँ.. आपके आलेख टिप्पणियों से परे हैं..

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  18. अगर मैं कोई नया ब्लोगर होता..... तो सोचता ....इस ब्लॉग को फोल कैसे किया जाए ? :)

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  19. सुधार ---
    इस ब्लॉग को फोलो(अनुसरण ) कैसे किया जाए ? :)

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  20. गौरव जी,

    किसी समस्या से 'अनुसरण करें' वाला विजैट नहीं दिख रहा। ब्लॉगर से ही शायद समस्या है।
    वह ठीक हो जाएगी।

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  21. लेकिन आपका ब्लॉग आपनें प्राईवेट कर दिया है और हमें सदस्य भी नहीं बनाया?

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  22. सुज्ञ जी ने तो उलझा दिया :)
    [कहने को बहुत..बहुत...बहुत कुछ है पर वो शब्द कहा से लाऊं जो जज्बात मेरे बयान कर सके , हर बार की तरह मेहनत मित्रों को ही करनी पड़ेगी समझने के लिए ]

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  23. गौरव जी,
    मेरा मात्र इतना ही कहना था कि आपने अपना ब्लॉग सीमित और रजिस्टर पाठकों के लिए सुलभ कर रखा है। जिसे लॉग-इन करने पर ही पढा जा सकता है यदि ब्लॉग लेखक नें अनुमति प्रदान की हो। अतः मेरा अनुरोध था कि हमें अनुमति प्रदान करें।

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  24. आपकी बात बिलकुल सही है सुज्ञ जी......दरअसल मैं खुद भी सोच रहा हूँ की ये मेसेज क्यों आ रहा है ?
    तभी तो मैंने ये स्पष्टीकरण प्रोफाइल पर लगाया है
    [ब्लॉग पर मेसेज आ रहा है की ये केवल आमंत्रित पाठकों के लिए हैं जबकि मैंने उसे सिर्फ अपनी खुद की डायरी के रूप में रखा है ]

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  25. @अतः मेरा अनुरोध था कि हमें अनुमति प्रदान करें।

    क्यों शर्मिन्दा करते हैं सुज्ञ जी :(

    आप जैसे मित्रों की टिप्पणी से तो हर लेख को पूर्णता मिलती है.और हर टिप्पणी सहेज कर रखने योग्य होती है .. हम जैसे लोग तो टिप्पणी ढूढ़ ढूंढ कर पढ़ते हैं :)

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  26. आप मित्रों के स्नेह के लिए मैं आजीवन आभारी रहूंगा .... इसीलिए सहेज कर रखा है सबकुछ .... सुरक्षित.... अपने पास,

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  27. यह आपका बडप्पन है गौरव जी।

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  28. एक अनुरोध मेरा भी
    इसी प्रकार अपना स्नेह एवं आशीष बनाये रखियेगा ..लेखाशास्त्र की भाषा में ....ब्लॉग जगत से अर्जित यही इनटेंजीबल एसेट्स (अमूर्त संपत्ति) है मेरे पास

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  29. thora bilamb se ana ....... isliye, ke post ke saath tippani ka bhi gyan loon ..............

    pranam.

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  30. भौतिकता सुविधा दे सकती है,सुख नहीं.सुख खरीदा भी नहीं जा सकता.दूसरों के लिये दु:ख उठा कर सुख की अनुभूति जिसने कर ली,जीवन सार्थक हो गया.

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  31. सुज्ञं जी, बहुत अच्छे विचार!

    अब 'संन्यास आश्रम' में पहुँच, पीछे, अपने भूत में, देखते हुए बचपन से ब्रिटिश राज की नयी दिल्ली (प्राचीन इन्द्रप्रस्थ) में रहते हुए वर्तमान पीढ़ी की तुलना में अपने को भाग्यवान मानता हूँ कि 'हमें' अपना बचपन कहीं बेहतर गुजरा प्रतीत होता है,प्रकृति के माध्यम से भी, पुस्तकों की तुलना में, अधिक ज्ञान पाते...

    क्यूंकि बचपन में हर व्यक्ति प्राकृतिक तौर पर 'बहिर्मुखी' होता है और आयु के साथ किन्तु वो 'अंतर्मुखी' अधिक हो जाता है, जिस आधार पर अब कह सकता हूँ कि मानव जीवन आकाश में उडती रंग-बिरंगी पतंगों समान समझा जा सकता है, जिसकी डोर विभिन्न पतंग उड़ाने वालों के हाथ में होती प्रतीत होती है, जो शायद प्रतिबिंबित करता है कि 'हमारी' सबकी डोर वास्तव में किसी अदृश्य शक्ति के हाथ में है... किन्तु अज्ञानतावश, द्वैतवाद के कारण, 'करूं / न करूं' वाली स्थिति छोटे से छोटे विषय पर भी बन जाती है - टिप्पणी लिखूं तो कोई समझेगा ही नहीं / किन्तु नहीं लिखूं तो 'मेरे' विचार किसी को पता ही नहीं चलेंगे!... इत्यादि, अनंत शब्द फव्वारे से दबाव के कारण निकलते बूंदों समान जोर मारते हैं, किन्तु कहा गया है कि 'समझदार को इशारा ही काफी होता है' इस लिए मन रुपी घोड़े की लगाम खींच लेनी पड़ती है / फव्वारे के मुंह पर डाट लगानी पड़ती है (मौन मोहन समान ? :)

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  32. मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है..
    bahut badiya saarthak prastuti!

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  33. आदरणीय सुज्ञं जी
    नमस्कार !
    ......जीवन को सैदेव उत्तम बनाने के लिए हमें प्रयासरत रहना चाहिये.

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