18 मई 2011

आप क्या कहते हैं, धर्म लड़वाता है?


यदि धर्म नहीं होता तो ये झगडे नहीं होते और मनुष्य शान्ति और प्रेम पूर्वक रहते। सारे झगड़ों की जड़ यह धर्म ही है और कोई नहीं। इसे ही पोषित करने में सारे संसाधन व्यय होते है, अन्यथा इन्सान आनंद और मौज में जीवन बिताए। लोग अक्सर ऐसा कहते पाए जाते है।

जबकि धर्म तो शान्ति, समता, सरलता और सहनशीलता आदि सद्गुणों की शिक्षा देता है। धर्म लड़ाई झगडे करना नहीं सिखाता। फ़िर धार्मिकजनों में यह लड़ाई झगड़े और ईर्ष्या द्वेष क्यो? वास्तव में जो सच्चा धर्म होगा वह कभी भी लड़ाई-झगड़े नहीं कराएगा। जो मनुष्य मनुष्य में वैर-विरोध कराए, वह धर्म नहीं हो सकता। यह स्वीकार करते हुए भी उपरोक्त विचार समुचित नहीं लगता। कुछ ऐसे ‘धर्म’ नामधारी मत है जो विपक्षी से लड़ना, युद्ध करना, पशु-हत्या करना, ईश्वर की राह में लड़ने को प्रेरित करना आदि का विधान करते है किन्तु यहाँ हम उन पंथो की बात नहीं करते। क्योंकि उनका आत्म विशुद्धि से कुछ भी लेना देना नहीं है, उनका लक्ष्य भौतिकवाद है। वे तो राज्य, सम्पत्ति, अधिकार, अहंपूर्ति, भोगसाधन की प्राप्ति, उसकी रक्षा एवं वृद्धि की कामना लिए हुए है। मिथ्या मतों में अज्ञान ही प्रमुख कारण है। ऐसे मत दूसरे संयत धर्मानुयायीओं में भी विद्वेष फैलाने का कार्य करते है।

फिर आत्म शुद्धि और सद्भाव धर्म वाले अनुयायी आपस में लड़ते झगड़ते क्यों है प्रश्न उठना स्वाभाविक है। यदि चिंतन किया जाय, तो स्पष्ठ ज्ञात होता है कि सभी झगड़े धर्म के कारण नहीं, बल्कि स्वयं मानव मन में रहे हुए कषाय कलुष एवं अहंकार के निमित होते है। वे धर्म को तो मात्र अपनी अहं-तुष्टि में हथियार बनाते है। उन्हें तो बस कारण बनाना है। यदि धर्म न होता तो वे और किसी अन्य पहचान प्रतिष्ठा को कारण बना देते। वैसे भी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक कारण से झगडे होते ही है। पर उन्हें संज्ञावाची बदनामी नहीं मिलती। संसार में करोड़ों कम्युनिस्ट, धर्म-निरपेक्ष, नास्तिक आदि हैं। क्या उनमें झगड़े नहीं होते? धर्म की अनुपस्थिति में भी वहां झगड़े क्यों? अधर्मी कम्युनिस्टों की ध्येय प्राप्ति का तो साधन ही हिंसा है। यदि उनके जीवन में धर्म का स्थान होता, तो वे हिंसा को आवश्यक साधन न मानते। यही कलुषित इरादों वाले अधर्मी-त्रय, धर्म को निशाना बनाकर अपना हित साधते है। क्योंकि उनके लिए निज स्वार्थ सर्वोपरी है, नीतिमान बने रहना उनके लिए धार्मिक बंधन है, रास्ते का कांटा है। ऐसे में जब इन्हें दिखावटी धार्मिक अहंकारी मिल जाते है, धर्म को निंदित कर उसे रास्ते से हटाने का इनका प्रयोजन सफल हो जाता है।

अतः इन सभी झगड़ों का मूल कारण मनुष्यों की अपनी मलीन वृति है। कोई किसी को नीचा दिखाने के लिए तो कोई अपनी इज्जत बचाने के लिए। कोई किसी की प्रतिष्ठा से जलकर जाल बुनता है तो कोई इस जालसाज़ी का आक्रमक प्रत्युत्तर देता है। कोई किसी का हक़ हड़पने को तत्पर होता है तो कोई उसे सबक़ सिखाने को आवेशित। अपने इन्ही दुर्गुणों के कारण लड़ता मानव, सद्गुणों की सीख देने वाले धर्म को ही आरोपित करता है। और अन्य साधारण से करवाता भी है।

धर्म एक ज्ञान है, कोई चेतन नहीं कि मानव को जबदस्ती पकड कर उनके दुर्गुणों, कषाय-कलुषिता को दूर कर दे और उनमें सद्गुण भर दे। या फिर आकर सफाई दे कि मानवीय लड़ाई में मेरा किंचित भी दोष नहीं।

आप क्या कहते हैं, धर्म लड़वाता है?

32 टिप्‍पणियां:

  1. सुज्ञ जी,
    क्या परिस्थितियों के कारण धर्म भी बदल जाया करते हैं?

    धर्म समस्त जीव के प्रति दया भाव सिखाता है... किन्तु धर्म-युद्ध में हम लेशमात्र भी अधर्म का साथ देने वालों का वध करते देखते हैं.
    धर्म-युद्ध में जो हाथी-घोड़े पहले शामिल होते थे वे दोनों ही पक्ष के मारे जाते थे...
    मेरे मन में एक प्रश्न उठा है : क्या निर्दोष पशु जो युद्ध में मारे जाते थे .. क्या वह जीव ह्त्या कही जायेगी?

    वर्तमान में मिसाइल हमले में जो निर्दोष लोग और पशु मारे जाते हैं ... क्या उसे जीव ह्त्या कहा जाये?
    .......... आपका चिंतन युक्तियुक्त है... "सभी झगड़ों का मूल कारण मनुष्यों की अपनी मलीन वृति है।" ... चिंतन सही दिशा लिये है.

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  2. क्या कोई ऐसा धर्मं है जिसके अनुयाईयों ने कभी दूसरे धर्मं वालों पर अत्याचार ना करे हों; अपने धर्म को ऊँचा और दूसरे के धर्म को नीचा दिखाने की कोई कोशिश नहीं करी हो; अपना धर्मं छोडकर दूसरे धर्म को अपनाने वालों पर ज़ुल्म न ढाए हों?
    संसार के इतिहास में सबसे अधिक लोग किस कारण मारे गए हैं और मरे जा रहे हैं - धर्मं के कारण.
    आज भी इंसान को इंसान का सबसे घातक दुश्मन सबसे तीव्रता से कौन बनाता है - धर्म.
    क्या धर्म के आडंबर की आड़ लेकर राजनीति और सत्ता के खेल खेलने वालों को कोई रोकता है, जबकि यथार्थ सब जानते हैं? फिर भी उन्हें सर आँखों परा बैठा करा उन्हें महान धर्मानुयायी और मार्गदर्शक कहा जाता है, उनके स्वार्थ की सिद्धी के लिए लोग मर मिटते है. क्या धर्म यही नपुंसकता सिखाता है?
    सच है, धर्म इंसान को इंसान नहीं रहने देता, हैवान बना देता है.

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  3. लड़ने का तो जज्‍बा चाहिए फिर ये धर्म-वर्म क्‍या चीज है.

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  4. सुग्यजी,
    जो लोग अक्सर ऐसा कहते पाए जाते है क्या वे स्पष्ट कर सकतें है क्या की धर्म है किस चिड़िया का नाम ? इस प्रश्न में निहित धर्म से आशय उपासना पद्दति से है या गुण धर्म से ................. सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं हो सकता है ............. जैसे अग्नि का धर्म ताप और जलाना है, जल का धर्म शीतलता और नमी है, सूर्य का धर्म प्रकाश आदि है ...................... इस हिसाब से तो धर्म नहीं होता तो लड़ाई-झगडे कि तो दूर रही सृष्ठी ही नहीं हो .......... और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ?????? ............... इसलिए सुज्ञ जी इन लोगो का यह प्रश्न ही गलत है तो अपन क्यों मूंड-पची करें अपन तो जो मानते आयें है वही मानेंगे की जिसका जो धर्म है अगर उसी पर अटल रहे तो सारी माथापच्ची ही ख़त्म हो जाये :)

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  5. लड़ना एक प्रवृति है ... धर्म तो बहाना है .

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  6. मजहब नहीं सीखता आपस में बैर रखना

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  7. जो लड़ रहे हैं वो अपने धर्म को समझते ही कहाँ है ....... बस दंभ में भरे रहते है की हमारा धर्म ऐसा तुम्हारा धर्म ऐसा ...... .....

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  8. सुज्ञ जी ! मुझे लगता है कि धर्मविहीन या धर्मनिरपेक्ष तो कोई हो ही नहीं सकता ......जो लोग धर्मविहीन ( जैसे ब्राज़ील में लगभग ८ % लोग ) या धर्मनिरपेक्ष हैं उनकी जीवन शैली को यदि ध्यान से देखा जाय तो वे भी किसी न किसी धर्म का अनुसरण करते ही हैं. मनुष्य दो प्रकार के धर्मों के बंधन में बंधा है एक है मानवीय धर्म और दूसरा अमानवीय धर्म.....इसे आप आसुरी धर्म भी कह सकते हैं. जो सहज धर्म के विपरीत आचरण करते हैं वे आसुरी धर्म का आचरण करते हैं. जहाँ तक लड़ने का प्रश्न है ....यह एक वृत्ति है , जिसे लड़ना है वह अपने पक्ष में कई तर्क निर्मित कर लेगा .....निर्माण की सहज-सुलभ सामग्री लोक-प्रचलित धर्मों में मिल जाती है. यह उसी प्रकार है जैसे कि न्यूक्लियर एनर्जी का प्रयोग कोई बम विस्फोट के रूप में करता है तो कोई ऊर्जा उत्पादन के लिए . यह उस पर निर्भर करता है जो स्तेमाल कर रहा है.
    प्रतुल जी का प्रश्न विचारणीय है धर्म-युद्धों में होने वाली निरपराध हत्याओं को किस श्रेणी में रखा जाय ? यह किंचित उलझा हुआ प्रश्न है .....उत्तर इतना सरल नहीं है .....पर इतना अवश्य है कि युद्धों में निरीह पशु-पक्षियों की हत्याएं धर्मयुद्धों के साइड इफेक्ट्स में से एक है. अर्जुन ने युद्ध के पहले ही इन साइड इफेक्ट्स के बारे में स्पष्ट चर्चा की थी . तब कृष्ण ने वरीयता के आधार पर अपना निर्णय युद्ध के पक्ष में दिया था . थियोरी ऑफ़ रिलेटिविटी के आधार पर तय किया गया कि कम अन्याय किसमें है ...युद्ध करने में या न करने में !

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  9. धर्म के साथ जब मेरा , हमारा या तुम्हारा शब्द जुड़ता है तभी युद्ध होता है ।

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  10. कुछ धर्मो को छोड कर कोई भी धर्म आपस मे लडना नही सीखाता, हमारे धर्म मे भी निर्दयता बिलकुल नही हे, लेकिन कभी कभार बलि वगेरा के बारे मे पढते हे तो यह भी लगता हे हमारे पंगा पडितो ने ही एक रिवाज बनाया हे, हमे गुम राह किया हे, उस बात को गलत समझाया हे,धर्म नही सीखाता लडना झगडना, लेकिन धर्म का सहारा ले कर लोग लडते हे आपस मे, ओर लडाने वाले अपना अपना लाभ देखते हे, बहुत सुंदर विचार लिखा आप ने, धन्यवाद

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  11. आपकी एक एक बात सही है। लडने वाले धर्म की आड भी ले सकते हैं और धर्म विरोध की। बहाना चाहे जिहाद का हो या माओवाद का, है तो रक्तपिपासा का बहाना ही, उससे धर्म का क्या लेना देना?

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  12. सभी झगड़े धर्म के कारण नहीं, बल्कि स्वयं मानव मन में रहे हुए कषाय कलुष एवं अहंकार के निमित होते है। वे धर्म को तो मात्र अपनी अहं-तुष्टि में हथियार बनाते है। उन्हें तो बस कारण बनाना है

    अक्सर मजहब या संप्रदाय को ही धर्म मान लिया जाता है.अमित शर्मा जी ने जो धर्म की परिभाषा की उसके अनुसार सभी का अपना अपना धर्म है और वह उसी पर चलता है.इसी प्रकार अहंकार का भी अपना धर्म होता है जिसका कारण 'अहं' को कोई आकार देना है.अहं यानि मैं को यदि यह आकार देने की कोशिश करें कि मैं सबसे ज्यादा शक्तिशाली हूँ तो वह शक्ति के लिए कुछ भी भला बुरा कर सकता है,इसी प्रकार धन,जायदाद,जमीन,आदि आदि के लिए आकार देने के लिए भी संघर्ष होते रहते है.
    मजहब से अहंकार पोषित होता है या द्रवित यह मजहब की शिक्षाओं पर निर्भर करता है.अद्वैत मत के अनुसार अहं को 'अहं ब्रह्मस्मि' कहकर अहं का आकार विस्तृत करके 'अनन्त सीमा रहित ब्रहम' के रूप में बताया गया है.द्वैत मत के अनुसार 'अहं' को ईश्वर का सेवक,भक्त आदि के रूप में प्रतिपादित कर अहंकार के शमन का प्रयास किया जाता है.दोनों ही मतानुसार 'अहं' के नकारात्मक आकार की उपेक्षा की गई है,जिससे 'आसुरी' दुर्गुणों का प्रक्षालन होकर 'दैवीय' सद्गुणों का विकास हों पाए.यदि मजहब या सम्प्रदाय की सोच वैज्ञानिकता के आधार पर न होकर किसी और आधार पर होगी तो 'अहं' का आकार तदनुसार ही विकसित होगा.फिर हों सकता है कि
    अहं के नकारात्मक आकार का भी पोषण हों और मजहब के कारण ही अनबन लड़ाई झगडें आदि पैदा हों.

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  13. व्‍यक्ति या समाज स्‍वयं के अहम् और मैं ही श्रेष्‍ठ हूँ इस कारण लड़ाई करता है। इसलिए वह कभी अपने धर्म या मत के कारण कभी सामाजिक प्रभाव के कारण स्‍वयं को श्रेष्‍ठ सिद्ध करता है। झगड़ा शाश्‍वत है लेकिन कारण भिन्‍न-भिन्‍न रहते हैं।

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  14. @ “क्या परिस्थितियों के कारण धर्म भी बदल जाया करते हैं? धर्म समस्त जीव के प्रति दया भाव सिखाता है... किन्तु धर्म-युद्ध में हम लेशमात्र भी अधर्म का साथ देने वालों का वध करते देखते हैं. मेरे मन में एक प्रश्न उठा है : क्या निर्दोष पशु जो युद्ध में मारे जाते थे .. क्या वह जीव ह्त्या कही जायेगी?”

    प्रतुल जी,

    धर्म के विषय में ब्लॉगजगत के विद्वान व्याख्याकार श्री अमित जी,श्री कौश्लेन्द्र जी श्री राकेश जी नें धर्म के यथार्थ स्वरूप का पक्ष रखा ही है।
    जैसे अमित जी नें बताया कि धर्म का शाब्दिक अर्थ ही होता है स्वभाव (वस्तु के गुण-धर्म)। प्रत्येक विषय वस्तु का अपना स्वभाव होता है जिसे हम उस वस्तु का धर्म कहते है। यहाँ धर्म का अर्थ मत सम्प्रदाय उपासना विधि तक संकीर्ण न होकर, आत्मा के समग्र गुण-धर्म से है। आत्मा का क्या धर्म है वही वास्तव में उपास्य धर्म है।

    व्यवहार से तो असंख्य धर्म है। जैसे राज-धर्म, परिवार-सुरक्षा-धर्म, परिवार-पोषण-धर्म, युद्ध में युद्ध-धर्म, कार्यस्थल पर कार्य-धर्म आदि आदि। यहाँ आशय कर्तव्य-बोध होता हैं।

    इसलिए सनातन आत्मिक धर्म और व्यवहार धर्म में भेद चिंतन करना होगा। और जैसा कौश्लेन्द्र जी ने कहा सापेक्षता के सिद्धान्त का उपयोग करना होगा। युद्ध में परिस्थिति अलग है क्योंकि युद्ध-धर्म की अपेक्षा विजय है, उस अपेक्षा से विजय के अनुरूप विधान युद्ध-धर्म होंगे। हर परिस्थिति का अपना धर्म होगा।

    ‘युद्ध में हिंसा’ के विषय में हम किस आशय से चिंतन कर रहे है उस पर निर्भर है। हम ‘आत्मिक-धर्म’ के परिपेक्ष्य में चिंतन करेंगे तो निश्चित ही वहाँ होनें वाली हिंसा को अनावश्यक हिंसा ही कहेंगे। और अगर वहीं जब ‘युद्ध-धर्म’ की अपेक्षा से चिंतन करेंगे तो वह हिंसा, विवशता की सम्भावना दृष्टिगोचर होगी। यह सापेक्षता है, विरोधाभास नहीं।

    महापुरूषो द्वारा कृत युद्ध में अधर्म के नाश को दर्शाने के लिए अधर्मी का वध अवश्य दिखाया गया है, पर कहीं भी यह उपदेश नहीं है कि तुम अनुसरण करो। मेरे विचार से वहाँ आशय मात्र इतना है कि अधर्म का परिणाम बुरा है। अधर्मी का विनाश होता है। श्री राकेश जी नें कहा ही है-” जिससे 'आसुरी' दुर्गुणों का प्रक्षालन होकर 'दैवीय' सद्गुणों का विकास हों पाए.

    भारतीय संस्कृति में ‘धर्म-युद्ध’ शब्द है ही नहीं, यह ‘जेहाद’ की प्रतिक्रिया स्वरूप गढा गया शब्द है। हमारे धर्म-संस्कृति के शास्त्रों में आए युद्ध वर्णन सहज घटनाओं के वर्णन है, धर्म-सिद्धांत नहीं। उन युद्ध वर्णन के माध्यम से हमें नैतिकता और व्यवहार में सामंजस्य की सीख दी गई है। फ़िर वह चाहे देव-दानव युद्ध हो या महाभारत युद्ध। श्रीमद्भागवत गीता भी ‘धर्म में युद्ध’ का उपदेश नहीं, ‘युद्ध क्षेत्र में जाकर भी धर्म’ का उपदेश है।

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  15. @क्या कोई ऐसा धर्मं है जिसके अनुयाईयों ने कभी दूसरे धर्मं वालों पर अत्याचार ना करे हों;

    aksd साहब,

    आपकी बात से स्पष्ट है 'धर्म के अनुयायी' तो दोष धर्म को क्यों? सच्चाई जानकर भी आप कहते है-"धर्म इंसान को इंसान नहीं रहने देता, हैवान बना देता है." यह तो सरासर अनुयायी की कुटिलता धर्म पर थोपने का प्रयास है।

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  16. राहुल जी,
    सही कहा, बस लड़ने वालों को लड़ने का बहाना चाहिए।

    अमित जी,
    सही है, जिस वस्तु या विचार का जो धर्म है उसे उसी रूप में मानें, उसे विकृत न करें।

    रश्मि प्रभा जी,
    सत्य है, लड़ना आदिम प्रवृति है,और इसका कारण दूसरों को बनाकर जस्टीफाई करना भी।

    दीपक सैनी जी,
    'मजहब नहीं सीखता आपस में बैर रखना' बस इन पंक्तियों को गहराई से समझने की ही बात है।

    डॉ॰ मोनिका शर्मा जी,
    एकदम सार्थक है आपकी बात, अपने धर्म को श्रेष्ठ बताना तो उपरी दिखावा है बस इसी बहाने अपनी नस्ल को श्रेष्ठ सिद्ध करने का अहंकार है।

    कौशलेन्द्र जी,
    सटीक कथन है "लड़ाई …निर्माण की सहज-सुलभ सामग्री लोक-प्रचलित धर्मों में मिल जाती है." क्योंकि इन मत-सम्प्रदाय-उपासना पद्धत्ति्यों में मनुष्य को श्रेष्ठता के अभिमान, स्वाभिमान और उनको चेंलेंज करने की पर्याप्त उपजाउ भूमि मिल जाती है।

    रजनीश तिवारी जी,
    आपने सही कहा सर्वजगत जीव हित में कहे गए धर्म पर जब एकाधिकार की बात होती है, प्रतिकार या विरोध वहीं शुरू हो जाता है।

    राज भाटिय़ा जी,
    सारगर्भित वचन है, पौंगा पंडित आते है, उपदेशों को तोड़-मरोड़ कर कुरिति गढ जाते है,खामियाजा आनेवाली नस्लें भुगतती है। कोई सुधारवादी महापुरूष आता है, बाद की नस्लें उसे नहीं मानती। क्यों कि बुराई का व्यसन भी छूटता नहीं।

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  17. अनुराग जी,
    आभार, आप तो लेख का भाव ही लेकर सार प्रकट कर देते है। और लेख के प्रति पठाकों की दुविधा दूर कर देते है। प्रोत्साहन के लिए भी आभार।

    राकेश कुमार जी,
    आपके जैसे गहन विचारक का सामिप्य ही सुखद पहलु है। अहंकार का सार्थक विश्लेष्ण- -"अद्वैत मत के अनुसार अहं को 'अहं ब्रह्मस्मि' कहकर अहं का आकार विस्तृत करके 'अनन्त सीमा रहित ब्रहम' के रूप में बताया गया है.द्वैत मत के अनुसार 'अहं' को ईश्वर का सेवक,भक्त आदि के रूप में प्रतिपादित कर अहंकार के शमन का प्रयास किया जाता है.दोनों ही मतानुसार 'अहं' के नकारात्मक आकार की उपेक्षा की गई है,"

    अजित जी (दीदी),
    सत्य निष्कर्ष है कि "श्रेष्‍ठ सिद्ध करने का झगड़ा शाश्‍वत है,और कारण अहंकार रूप मान-कषाय है"

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  18. सुज्ञ जी ! "धर्म-युद्ध" से प्रतुल जी का आशय " धर्म रक्षार्थ किया जाने वाला युद्ध" रहा होगा. जिहाद का अर्थ जो भी रहा हो पर वर्त्तमान में तो जिहाद का आशय धर्म प्रचार के लिए किया जाने वाला युद्ध ही है. दोनों में धरती-आकाश का अंतर है.

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  19. सुज्ञ जी, क्षमा करना 'मैं' आप के ब्लॉग में सबसे देर में आया हूँ... मेरी अवस्था वैसी ही है जैसी उस दृष्टा की होती है जो सिनेमा हॉल में फिल्म आरंभ हो जाने के बाद किसी समय प्रवेश करता है... यदि पडोसी से पूछ हमें पता चलता है कि फिल्म 'अभी अभी' आरम्भ हुई है तो 'हम' उतनी चिंता नहीं करते और शांत हो अपनी ज्ञानेन्द्रियों को रुपहले पर्दे पर तन्मयता पूर्वक केन्द्रित कर देते हैं, अन्यथा जो दृश्य हमारे सामने आते जा रहे होते हैं उनका आनंद नहीं उठा पाते...शायद हमें चैन तभी मिले जब हम किसी दिन समय से पहले पहुँच, आने वाली फिल्मों के ट्रेलर आदि भी देख, शांत मन से पूरी फिल्म देख उसका आनंद उठा सकेंगे... दस वर्ष पश्चात यद्यपि शायद हम उस फिल्म के विषय में पूछने पर कहेंगे कि वो 'अच्छी' थी/ 'साधारण' थी / 'बोर' थी,,, जो मानव मस्तिष्क की कार्य-विधि दर्शाता है, यानि केवल 'सत्व' अथवा 'सत्य' को धारण करना ("सत्यम शिवम् सुन्दरम" / 'सत्यमेव जयते',,, आदि)...

    मानव जीवन को भी हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने भी 'प्रभु की माया' कह सब गलतियों का कारण योगियों, सिद्ध पुरुषों, के माध्यम से 'अज्ञान' को दर्शाया... वास्तव में 'वर्तमान' और 'भविष्य' को भी उन्होंने 'भूत' ही जाना - भूतनाथ शिव का भूत, निराकार अजन्मे और अनंत शक्ति रूप का इतिहास, एक शून्य काल और स्थान से सम्बंधित शक्ति की शून्य से अनंत साकार तक की उत्पत्ति की उसके मन में ही अनुभूति का आनंद विभिन्न माध्यमों, पशुओं की आँखों से, शून्य काल में देखना :)

    उसकी पशुओं में सर्वश्रेष्ठ कृति मानव का धर्म इस कारण 'आत्मा' को 'परमात्मा' (त्रिनेत्र धारी शिव) में 'कुंडली जागृत कर' मिलाना जाना गया, यानि अपनी आतंरिक 'तीसरी आँख' खोल असत्य को भस्म करना!...सुनने में सरल प्रतीत होता है ना ? :)

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  20. suj ji aap kahate kuchh aur hai aur jatate kuchh aur hai , majahab nahi sikhata aapas me bai rakhana

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  21. aap ki upar ki gai tippadi ko ham samajh rahe hai ki aap kis or isara kar rahe hai ham kya yaha sabhi log samajh rahe hai agr kisi ke baare me jante nahi hai to uske bare me mat likha kare pahale aap sare dharamo ka bariki se adhyan kare fi jakar aisi blog post kare pahale aap apne pure ved ko padhiye mujhe lagata hai aap ko taalim ki sakht jarurat hai aap kachhe hai

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  22. suj ji mai aap ki bhot logo ke blog par hinsa purwak likhe gaye coments padha mujhe gussa nahi aap par taras aaraha hai aap andar se to bhot kattar hai mgr us kattarta ko aap aise pesh karate hai jaise dal me namal ki insan khana bhi khale aur............

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  23. duniya ki jitni bhi dharam hai koi dharam hinsa nahi sikhati hai sabhi dharam ahinsa ki pujari hai chahe wo islam ho ya sanatan ho ya isaiyat ho ya jo bhi dharam hai gharm to jodna sikhati hai todna nahi dharam kahati hai sache raste par chalo.

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  24. इरशाद जी क्षमा चाहता हूँ सुज्ञ जी से उत्तर नहीं मिल रहा... बुरा न मानें तो मैं कोशिश करूं ? ...

    जो संसार कभी 'महाभारत' होता था पूर्व के नियंत्रण में (जिस दिशा में सूर्योदय होता है), आज वो पश्चिमी देश के अंतर्गत 'महा अमेरिका' हो गया है, जो 'पाकिस्तान' के भीतर उनसे बिना पूछे आ 'ओसामा' को मार गया, जबकि 'ओबामा' ध्रितराष्ट्र समान अपने 'सफ़ेद महल' में बैठ टीवी में उस दृश्य को लाइव देख रहे थे - और अन्य सभी बाद में अपने अपने टीवी में देख दंग रह गए !
    शायद यह सूर्यास्त के निकट होने के संकेत हों...

    हिन्दुस्तान में सारे प्राणी धरती के, 'वसुंधरा' के, परिवार के सदस्य माने गये, यानि गधे घोड़े सारे हमारे रिश्तेदार ! वो भी तो कभी कभी हमें दुलत्ती मार देते हैं, भले ही हम अधिकतर उन्हें चाबुक आदि से मारते चले आये हैं (मच्छर, सूक्ष्माणु को यदि अनदेखा करदें तो, जिनसे हमारी लड़ाई निरंतर चलती आ ही रही है और हम अधिकतर नाकाम ही रहते हैं!)... डार्विन इसे प्राणीयों की उत्पत्ति हेतु प्राकृतिक संघर्ष कह गए :)

    "खुदा की मर्ज़ी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता", और "बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी?" भी कुछ कहावतें हैं ! क्या हम और आप, किसी भी धर्म के मानने वाले, यदि उसका समय आ गया हो तो क्या हिम युग को आने से रोक पायेंगे, क्यूंकि वो तो प्रकृति का नियम है ?

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  25. JC जी,

    आप ने स्थिति को सही परिपेक्ष्य में रखा। आभार!!

    मैं नहीं चाहता था जनाब इरशाद अहमद के एक तरफ़ा दृष्टिकोण पर कोई प्रतिक्रिया की जाय।

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  26. जनाब इरशाद अहमद साहब,

    आप अपनी जगह से सही हो सकते है कि मैं लिखता कुछ और हूँ और जताता कुछ और………क्योंकि आपके पास एक विचारधारा विशेष का चश्मा है। आप उसी संदर्भ से चीजों को देखेंगे।
    और आप यह भी निश्चित कर देंगे कि मेरे पास सभी धर्मों की तालीम नहीं है। पर आश्चर्य है मेरे तथ्यों को झूठलाने के लिए आपको किसी तालीम की आवश्यकता ही नहीं?? कमाल है?

    यह तो मैं भी जानता हूँ और कहता भी हूँ कि कोई 'धर्म'हिंसा नहीं सिखाता। बस उसका मनमाफ़िक अर्थ करने वाले ही हिंसा का प्रयोजन स्थापित करते है। मानने वाले हिंसा करते है यह एक सच्चाई है, तो यह प्रेरणा आखिर आती कहाँ से है? आप तो आलीम है बता सकते है।
    सौहार्द पूर्ण चर्चा में मैने कभी वचन-हिंसा नहीं की है। आप एक भी टिप्पणी लाकर दिखाईए। हाँ कुतर्कों के सामनें मैने स्पष्ठ व तीखी बात रखी होगी। जो आपके एक तरफ़ा दृष्टिकोण को नागवार गुजरी हो।

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  27. 'मजहब नहीं सीखता आपस में बैर रखना

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  28. आपका चिंतन युक्तियुक्त है... "सभी झगड़ों का मूल कारण मनुष्यों की अपनी मलीन वृति है।" ... चिंतन सही दिशा लिये है.

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  29. दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप ।
    जहां क्षमा तहाँ धर्म है, जहां दया तहाँ आप ॥
    ----- ॥ कबीर ॥ -----

    कबीर दास जी कहते हैं कि : -- दया धर्म की जड़ है
    जहां धर्म का वास होता है, क्षमा भी वहीँ होती है
    और जहाँ दया होती है वहां स्वयं परमात्मा होते हैं ॥

    "पशुओं का कोई धर्म नहीं होता फिर भी वे लड़ते हैं ।
    चूँकि उनमे धर्म का वास नहीं होता अत: उनमें दया
    और क्षमा के लक्षण भी विलुप्त होते हैं"

    अर्थात :-- "लड़ना जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है
    और धर्म से दया व क्षमा के भाव उत्पन्न होते हैं"

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अहा!! गजब!!

      आपने तो चार पंक्तियों में दया, क्षमा और अहिंसा को परिभाषित कर दिया।

      स्पष्ट प्रस्तुति के लिए आपका बहुत बहुत आभार!!

      हटाएं

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