चिंतन के चटकारे
- साधारण मानव पगडंडी पर चलता है। असाधारण मानव जहाँ चलता है वहाँ पगडंडी बनती है।
- पदार्थ त्याग का जितना महत्व नहीं है उससे कहीं अधिक पदार्थ के प्रति आसक्ति के त्याग का है। त्याग का सम्बंध वस्तुओं से नहीं बल्कि भावना से है।
- इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के समय मन में दुःस्थिति का पैदा होना सामान्य हैं। किन्तु मन बड़ा चंचल है। उस स्थिति में चित्त स्थिर करने का चिंतन ही तो पुरूषार्थ कहलाता है।
- मन के प्रति निर्मम बनकर ही समता की साधना सम्भव है।
- सत्य समझ आ जाए और अहं न टूटे, यह तो हो ही नहीं सकता। यदि अहं पुष्ट हो रहा है तो निश्चित ही मानिए सत्य समझ नहीं आया।
- किसी भी समाज के विचारों और चिंतन की ऊंचाई उस समाज की सांस्कृतिक गहराई से तय होती है।
- विनयहीन ज्ञानी और विवेकहीन कर्ता, भले जग-विकास करले, अपने चरित्र का विकास नहीं कर पाते।
- समाज में परिवर्तन ऊँची बातों से नहीं, किन्तु ऊँचे विचारों से आता है।
- नैतिकता पालन में 'समय की बलिहारी' का बहाना प्रयुक्त करने वाले अन्ततः अपने चरित्र का विनाश करते है।
चिंतन के सार्थक स्वर
जवाब देंहटाएंजीवव के कटु सत्य से अवगत कराने हेतु आपका ध्न्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक चिन्तन्……………हर लफ़्ज़ सत्य को दर्शाता हुआ।
जवाब देंहटाएंअमृत-कण!!!
जवाब देंहटाएंEach and every word unleasing a great meaning.
जवाब देंहटाएंNice post
गहरी पैठ .
जवाब देंहटाएंकाश आप का यह चिंतन हम सब आत्म सात करते, बहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंgahre chitan se yukt rachna
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर विचार
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सुन्दर विचार ..मनन करने योग्य
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ...सार्थक विचार
जवाब देंहटाएंसत्य वचन!
जवाब देंहटाएं'अनंत वाद' का कारण, जीव की उत्पत्ति हेतु, देवताओं के 'अमृत' प्राप्ति के उद्देश्य से बृहस्पति की देख-रेख में चार चरणों में देवता और राक्षशों के 'सागर मंथन' को कहा जा सकता है...
यद्यपि हर व्यक्ति भीड़ में भी अपने को अकेला महसूस करता है, क्या होता यदि व्यक्ति अकेला ही होता? उसका मन स्थिर नहीं रह पाता क्यूंकि आप की सफ़ेद कमीज़ से अपनी कमीज़ को कम सफ़ेद पाने का प्रश्न ही नहीं उठता !
उत्पत्ति को दर्शाती हिन्दू कथाओं आदि में कहा जाता है कि आरम्भ में अर्धनारीश्वर शिव अकेले थे (एकान्तवाद?)... फिर उनकी अर्धांगिनी सती के अपने पिता द्वारा शिव की निंदा करने से उनके द्वारा पूजा हेतु बनाये गए हवन कुण्ड में कूद कर आत्महत्या कर लेने पर शिव ने क्रोधित हो सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर रख तांडव नृत्य किया... पृथ्वी के टूट जाने की आशंका से भयभीत हो देवता विष्णु के पास गए और उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से शिव के क्रोध का कारण सती के मृत शरीर के ५१ (?) टुकड़े कर दिए जो हिमालय श्रंखला पर विभिन्न स्थान पर गिर गए, (शक्ति-पीठ कहलाते हैं), और शिव शांत हो गए (कहावत, "न रहेगा बांस / न बजेगी बांसुरी!)... और फिर कालान्तर में सती के ही एक रूप पार्वती से शिव का विवाह हो गया ! शिव-पार्वती के पहले पुत्र कार्तिकेय को भौतिक रूप से शक्तिशाली शरीर वाला दर्शाया जाता है और उन्हें पार्वती का स्कंध (दांया हाथ?) भी कहा जाता है... किन्तु शिव संहार-कर्ता होने के कारण (अमृत प्राप्ति हेतु?) पार्वती ने फिर गणेश को जन्म दिया, किन्तु शनि ने जन्म के पश्चात उसका सर काट दिया जिसकी जगह पार्वती के कहने पर शिव ने हाथी का सर लगा दिया, और शिव ने शिशु को पुनर्जीवित कर दिया ! और यद्यपि कार्तिकेय बड़ा था, शक्तिशाली था, अपने मोर वाहन में तीव्र गति से उड़ता था, दूसरी ओर क्यूंकि गणेश माता-पिता दोनों की परिक्रमा करता था, अपने मूषक वाहन में विलंबित गति वाले गणेश को पृथ्वी का राज सौंप दिया गया ! आदि आदि...(कहानियाँ सांकेतिक भाषा में पृथ्वी, चन्द्र, शुक्र, मंगल को क्रमशः शिव, पार्वती, कार्तिकेय, गणेश दर्शाती हैं !)
सारे कथन अच्छे लगे.
जवाब देंहटाएंअच्छे सुभाषित। आभार।
जवाब देंहटाएंहर शब्द जीवनदायी ....हर बात जीवन में अपनाने योग्य ...आपका आभार
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा है आपने ।
जवाब देंहटाएंएक एक लाइन, विचार मंथन के लिए काफी है ...आभार भाई जी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर, ज्ञानवर्धक और विचारणीय सूक्तियाँ, आभार!
जवाब देंहटाएंविचारणीय और अनुकरणीय । अनमोल बातें ।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक...
जवाब देंहटाएंसार्थक व उत्तम चिंतन...
जवाब देंहटाएंमननीय !
जवाब देंहटाएंअनमोल सूक्तियां.दिशाहीन होते वर्तमान के लिए अति आवश्यक.
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