धर्म का उद्देश्य, केवल मानव को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि को अक्षय सुख लब्ध करवाने का मार्ग प्रशस्त करना है। मानव के लिये जीवन के अनुकूल सुख भी एक पडाव मात्र है, लक्ष्य तो निश्चित ही शाश्वत सुख है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए जियो और जीने दो का सिद्धांत अस्तित्व में आया है। शान्ति से जीनें और अन्य को भी जीनें देने के उद्देश्य से ही सभ्यता और संस्कृति का विकास हासिल किया गया है। क्योंकि सभ्यता और संस्कार से हम भी आनंद पूर्वक जीते है, और अन्य सभी प्राणियों के लिए भी सहज आनंद के अवसर उपलब्ध करवाते है। यही है धर्म के उद्देश्य की सबसे सरल परिभाषा।
इस उद्देश्य को प्रमाण वाक्य मानते हुए ही धर्म शास्त्रों की व्याख्याओं पर दृष्टिपात करना चाहिए। यदि किसी धर्मोपदेश की व्याख्या सभ्यता और संस्कार के विपरित जाती है तो वह सर्वांग मिथ्या व्याख्या है। जो व्याख्या सभ्यता से पतनोमुख करने का कारण बनकर, पुनः आदिम जंगली संस्कार की ओर प्रेरित करे तो धर्मोपदेश की वह व्याख्या निश्चित ही कुमार्ग लक्षी है। हमने युगों के निरंतर, कठिन पुरूषार्थ और दुष्कर संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही इस उच्च सभ्यता का संधान किया है। उसका मात्र भ्रांत धार्मिक व्याख्याओं से अद्यपतन कैसे स्वीकार किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, हमनें जंगली, क्रूर, विकृत खान-पान व्यवहार को आज शुद्ध, अहिंसक, सभ्य आहार से सुसंस्कृत कर लिया है। यहाँ सभ्यता मात्र स्वच्छ और पोषक आहार से ही अपेक्षित नहीं बल्कि अन्य जीवसृष्टि के जीवन अधिकार से सापेक्ष है। उसी तरह संस्कृति समस्त दृष्टिकोण सापेक्ष होती है। सभ्यता में सर्वांग प्रकृति का संरक्षण निहित होता है। अब पुनः विकृत खान-पान की ओर लौटना धर्म सम्मत कभी नहीं हो सकता।
सभ्यता के विकास का अर्थ आधुनिक साधन विकास नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास है। ऐसे विकसित आधुनिक युग में यदि कोई अपनी आवश्यकताओं को मर्यादित कर, सादा रहन सहन की शैली अपनाता है और अपने भोग उपभोग को संयमित करता हुआ, पुरातन दृष्टिगोचर होता है तब यह आदिम परंपरा की ओर लौटना नहीं, बल्कि सभ्यता के सर्वोत्तम संस्कार के शिखर को छूना है। धार्मिक व्याख्याओं की वस्तुस्थिति पर इसी तरह विवेकशील चिंतन होना नितांत आवश्यक है।
इस तरह विकृति धर्म में नहीं होती, सारा गडबडझाला उसके स्वछंद और प्रमादी व्याख्याकारों का किया धरा होता है। यदि हम उक्त ‘धर्म उद्देश्य’ को प्रमाण लेकर, विवेक बुद्धि से, नीर क्षीर विभाजन के साथ विश्लेषण करेंगे, हेय,गेय और उपादेय का अंतर-भेद करते हुए, उपादेय को ग्रहण करेंगे तभी सत्य के निकट पहूँच सकते है। और तभी हमारे उद्देश्य सिद्ध हो सकते है.
your view is right .i am agree with you .
जवाब देंहटाएंव्याख्याकारों से ही धर्म विस्तार भी पाता है, उदार होता है.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी, मानव मस्तिष्क एक अद्भुत कम्प्यूटर जाना गया है, मानव द्वारा रचित कम्प्यूटर जिसकी तुलना में बच्चों के खिलोने जैसे हैं ... और 'हम' आज यह भी जानते हैं कि सबसे बुद्धिमान व्यक्ति भी आज मस्तिष्क में उपलब्ध अरबों सेलों में से नगण्य का ही उपयोग कर पाता है (प्राचीन किन्तु ज्ञानी 'हिन्दू', जो महाकाल द्वारा गहराई में ले जाए गए, परम सत्य को जान बता गए 'सत्यमेव जयते' और 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' द्वारा कि सृष्टि का रचयिता अजन्मा और अनंत है, शून्य काल और स्थान से सम्बंधित है...
जवाब देंहटाएंअन्य साकार, अस्थायी भौतिक रूप, वास्तव में उसके प्रतिबिम्ब अथवा प्रतिरूप हैं जिसमें सौर-मंडल के सदस्य आज साढ़े चार अरब से भी अधिक समय से अनंत शून्य के भीतर अनंत संख्या और आकार में उपस्थित तस्तरिनुमा गैलेक्सीयों में से एक, केंद्र में मोटी और किनारे में पतली हमारी "मिल्की वे गैलेक्सी', के बाहरी ओर विराजमान हैं, इत्यादि... और हमारी पृथ्वी इस सौर-मंडल का एक छोटा सा सदस्य है, एक मिटटी आदि का बना ग्रह है, जिस पर मानव सहित अनंत प्राणी आधारित हैं, यद्यपि तुलना में साबुन के बुलबुले समान अस्थायी किन्तु फिर भी पृथ्वी, वसुधा, अपना अनादिकाल से धर्म निभाते चली आ रही है, मुनि समान मौन! और अज्ञानी और अस्थायी 'व्याख्याकार' मौन की शब्दों द्वारा व्याख्या करने का प्रयास करेंगे तो वो वर्तमान में भी ऐसा ही होगा जैसे अंधों की हाथी के सही वर्णन में असफलता :
धर्म के बरे में आपकी व्याख्या से पूरी तरह से सहमत हुँ! अच्छे लेखन के लिये बहुत बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
हंसराज भाई...बहुत ही सुन्दर विवरण...सुन्दर भाषा...सुन्दर विचार...आपसे असहमति का प्रश्न ही नहीं...
जवाब देंहटाएं"सभ्यता के विकास का अर्थ आधुनिक साधन विकास नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास है। ऐसे विकसित आधुनिक युग में यदि कोई अपनी आवश्यकताओं को मर्यादित कर सादा रहन सहन अपनाता है, और अपने भोग उपभोग को संकुचित करता हुआ पुरातन दृष्टिगोचर होता है तब भी यह आदिम परंपरा की ओर लौटना नहीं, बल्कि सभ्यता के सर्वोत्तम संस्कार के शिखर को छूना है।"
प्रस्तुत कथन में आपने ह्रदय जीत लिया...
प्रकृति ने हर प्राणी को जीवित रहने के लिए स्वभावानुकूल देह-यष्टि व शारीरिक संरचना प्रदान की है.मांसाहारी जीवों को नुकीले नाखून और वैसे ही दाँत दिए हैं.मांसाहारी पक्षियों को नुकीली और मजबूत चोंच तथा तीक्ष्ण पंजे दिए हैं .शाकाहारी प्राणियों की संरचना भी स्वभावानुकूल दी है.मनुष्य स्वयं की शारीरिक संरचना पर विचार करे तो शायद खान-पान का तरीका बदल जाये.धर्म के उद्देश्य को बहुत ही सरल तरीके से समझाने का प्रयास निश्चय ही विचारों में मंथन लायेगा.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और सही लिखा है सुज्ञ जी.
जवाब देंहटाएंसुन्दर चिंतन,सार्थक लेख.
जवाब देंहटाएंयदि व्याख्याकार धर्म का निरूपण वैज्ञानिक ढंग से सर्व भूत हिताय
का सिद्धांत मान कर व्याख्या करें तो उचित होगा.
आपके ब्लॉग पर कई बार कोशिश की टिपण्णी करने की,हो ही नहीं पा रही थी.अबकी बार शायद सफलता मिल जायेगी.
पता नहीं दो दिन से मैं स्वयं अपने ब्लॉग पर प्रत्युत्तर टिप्पणी नहीं कर पा रहा था। लॉगिन के बाद भी बार बार लॉगिन के लिये कहा जा रहा था। कईं बंधु टिप्पणी नहीं कर पाए। कोई तकनिकि सलाहकार कृपया सहयोग करे।
जवाब देंहटाएं@:"व्याख्याकारों से ही धर्म विस्तार भी पाता है, उदार होता है."
जवाब देंहटाएंराहुल जी,
उस विस्तार और उदारता का क्या लाभ यदि धर्म अपनी मौलिकता और शुद्धता ही खो दे? जैसे आवश्यक दूध भरा कनस्तर, बोझ के कारण खाली कर रिक्त ही ढोया जाय। और दूध की आवश्यकता पूर्ण ही न हो?
विकृति धर्म में नहीं होती, सारा गडबडझाला उसके व्याख्याकारों का किया धरा होता है। यदि हम, ‘धर्म उद्देश्य’ को प्रमाण लेकर, विवेक बुद्धि से, नीर क्षीर अलग कर विश्लेषण करेंगे तो सत्य तथ्य पा सकते है।
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha ... sari gadbadi apni buddhi se nahin sochne ki hai
sahi hai
जवाब देंहटाएंpranam
किसी भी विचार की जितनी अधिक व्याख्या होंगी उतना ही विचार परिष्कृत होता जाएगा। इसी में से अनेकान्तवाद और स्यादवाद का जन्म हुआ। भारत में यह चिंतन प्रक्रिया अनवरत चली है इसलिए धर्म या हमारे अन्दर धारित गुणों का कभी क्षय नहीं हुआ लेकिन जहाँ भी कहा गया कि केवल यह ही सत्य है, वहाँ गुण कम होते चले गए और कट्टरता अधिक हो गयी। हमने पूजा पद्धति को ही धर्म मान लिया और विभिन्न कर्मकाण्डों में लग गए। इसलिए सभ्यता (सिविजाइजेशन) और संस्कृति (कल्चर) दोनों एक दूसरे के पूरक बने रहने चाहिए। यदि आपके पास कल्चर या संस्कृति नहीं है तब आप अपनी सभ्यता को बचा नहीं सकते। आज यही हो रहा है।
जवाब देंहटाएंJC साहब,
जवाब देंहटाएं@"जैसे अंधों की हाथी के सही वर्णन में असफलता"
आपने सही ही फरमाया किसी एकांत दृष्टिकोण से व्याख्या की जाती है। तो सत्य एकांत बनकर मिथ्या हो जाता है। और अनेकांत दृष्टि से जब सभी दृष्टिकोणों का समन्वय किया जाता है तो सत्य सम्पूर्ण हो उठता है।
यही बात अजित जी नें भी कही है।
अजित जी,
जवाब देंहटाएंआपका निष्कर्ष एक दम सही है। मात्र एकांत दृष्टि से कितनी भी अधिक व्याख्या की जाय वह भ्रांति ही पैदा करती है जब तक कि सभी दृष्टि से विचारों का समन्वय नहीं किया जाता। यह अनेकांतवाद, सापेक्षतावाद भी है। सभी अपेक्षाओं से कहे गये कथन पर विचार किया जाता है। उसी से विचार परिष्कृत होते है। और व्याख्याओं का एकांत आग्रह ही कट्टरता का कारण है।
कुछ शाश्वत मूल्य सभी युगों में धारण करने योग्य हैं और वे मूल्य ही धर्म का मूल हैं।
जवाब देंहटाएंajit gupta जी की टिपण्णी से सहमत हुं, उसे मेरी टिपण्णी भी माने, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंधर्म को व्याख्याकार ही दूषित करते हैं।
जवाब देंहटाएंआपका निष्कर्ष सही है।
बड़ा मुश्किल है धर्म का उद्देश्य जान पाना मेरे लिए
जवाब देंहटाएंधर्म पर सार्थक पोस्ट!!!
जवाब देंहटाएंBahut hi accha aur satya likha hai. Agar manushay apne dharm ko samajhkar uska sahi palan kare toh uska jeevan sarthak ho jata hai. if someone is interested in knowing more about spirituality read my blog at hhtp://www.kalyanpuja.com
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