जब सभा भवन में ईश्वर पर परिचर्चा हो रही थी। बाहर से तेज नारों की आवाजें आ रही थी। ‘धर्म के नाम लडना बंद करो’ 'भगवान के नाम पर खून बहाना बँद करो' आदि। सभा खत्म होने पर बाहर देखा काफ़ी लोग थे। ‘दुर्बोध दासा’ सहित ‘निर्बोध नास्ति’, ‘मनमौजी राम’, ‘उच्छ्रंखला देवी’, 'आजादख्याली', 'मस्तमलंग खान' आदि आग बरसा रहे थी। उन्हें प्यार से समझाया कि यहां मात्र ईश्वर पर बात परिचर्चा हो रही है, कोई लडाई-झगडा नहीं है। किन्तु वे सब आरोप के मूड मेँ थे शीघ्र ही बहस पर उतर आए। अपने आप को सेक्यूलर कह रहे थे, कह रहे थे, यद्पि हमें किसी के धर्म से कोई मतलब नहीं है। तथापि जहाँ धर्म की बात होगी हमारी टांग बीच में स्थापित रहेगी ही, यह समझ बना के चलो। हम सभी धर्मों में आपसी शान्ति लानेवाले लोग है। श्रमजीवियोँ के सलाहकार है अपने लिए श्रम की सम्भावनाएँ भी हम ही पैदा करते है हम अपने ही प्रयासों से अपने लिए काम तैयार कर ही लेते है। और उसके बाद हमारा काम होता है समाधान। समझे?
कहीं सभा फ़्लॉप होने की न्यूज न फैल जाय, मैने उन्हें आदर से अन्दर बुलाया और अपनी बात रखने को कहा।
पहले से ही बिफरा दुर्बोध दासा फट पड़ा- ‘ईश्वर है ही नहीं, क्यों तुम लोगो को अन्धविश्वासी बनाने पर तुले हो?’
मै- मैं कहाँ ईश्वर थोप रहा हूँ, यहां पहले से ही सभी ईश्वर मानने वाले लोग है। यह उनकी अपनी मर्जी, अपने ईश्वर पर बात करे, आपको क्या?
मस्तमलंग खान- तुमनें जरूर दूसरो के रहन-सहन, खान-पान पर व्यंग्य किया होगा, मुझे मालूम है।
मैं- किन्तु, रहन-सहन, खान-पान हमारा आज का विषय नहीं था, खान!
निर्बोध नास्ति बोला- सबके अपने अपने ईश्वर है, उन्हें अपने अपने सेपरेट ही रहने दो…, आप क्योँ मिक्सअप करते हो।
मैं- नहीं! कुल मिलाकर सभी के एक 'ईश्वर' है।
मनमौजी चिल्लाया- नही हमारे पूर्वजो ने बडी महनत से विभाजित किया था। तुमने शोषको के ईश्वर को श्रेष्ठ बताया होगा, और किसी बेचारे गरीब के ईश्वर को तुच्छ कहा होगा।
मैं- जब वह एक है, तो उसका एकत्व अपने आप मेँ श्रेष्ठ है।
मनमौजी कुछ याद करते हुए पुनः भडका- तो उनकी किताबों को छोटा बड़ा बताया होगा?
मैं- किताबें तो सबके अपनी क्षमता अनुसार् बालबोध से लेकर डॉक्टरेट (पाण्डित्य) तक अलग अलग श्रेणी की होती ही है, उसमें निम्न उच्च कहने मेँ बुरा क्या है?
मनमौजी को जैसे लू प्वॉईंट मिल गया- तुम लोग कुछ तो उँच-नीच करोगे ही, सीधे बैठ ही नहीं सकते। किसनें तुम्हें हक दिया कि किसी की निम्न छोटी बताओ?, जरा बतलाओ तो आपने किसकी निम्न बतायी। उस ग्रुप को सहानुभुति देना जरूरी है, उन बेचारो को भड़काना निताँत ही आवश्यक है।
मैने देखा इसतरह तो ये लोग किसी भी हद तक जाकर बात बिगाड लेंगे। अब जवाब की जगह, इन्हें ही प्रश्न में घेरते हैं।
मैनें कहा- आप लोग सेक्यूलर है, अधर्मी है धर्म से आपहा क्या वास्ता? धर्म को मानने वाले उसका चाहे जो करे, आप क्योँ दुखी होते है?
आजादख्याली टपका- 'अधर्मी क्यों? धर्म हमारा व्यक्तिगत मामला है, हमारी एक टांग व्यक्तिगत मेँ भी,और एक ऐसी सामाजिक धार्मिक भीड मेँ भी रहेगी। समाज की 'सामुहिक सज्जनता' से हमें कुछ भी लेना देना नहीं है। किंतु निरपेक्ष होने का यह मतलब थोडे ही है कि कोने में जाकर मौन खडे रहेंगे? टांग अडाने का हमारा कर्तव्य है हमारी अभिलाषा रहती है। हमारी नल-नाली सँस्कृति है. अन्याय महसुस करवाना हमारा फर्ज है हमेँ बताना होता है कि 'देख! उसने, तेरे धर्म को उन्नीस कहा।' वर्ना वे बेचारे भोले लोग, कहां उँच-नीच को समझ पाते है। उन्हें हम ही सिखाते-पढाते है तब जाकर उन्हे समझ मेँ आता है कि "धर्म आपस में लड़ाता है"।'
मैने पुछा- आपको धर्मों से किस जन्म की दुश्मनी है?
अब मनमौजी ने कमान सम्हाली- 'यह धर्म नामक अफीम वास्तव मेँ हमारा दमन करता है, हमें अपने मन की करने ही नहीं देता। क्या क्या सपने संजोते है हम कि बस निरंकुश आंधी की तरह बहे, जब जो मन में आया करे, बिन्दास। धर्म तो अक्सर, सज्जनता सभ्यता और संस्कृति का ढोल पीटता रहता है। जरा देखो!- जंगल में पशु कैसे स्वेच्छा विचरण करते है। कोई बंधन नहीं, कोई अनुशासन नहीं। हम भी ऐसे ही स्वछंद विचरना चाहते है। तुम धर्म के चोखिले लोग सफाई ठोकने लगते हो। जब तब धर्म आदर्श जीवन के गुणगान शुरू कर देते हो। इन उपदेशोँ से हमेँ ग्लानी होती है, हमारी तो सारी मन ही मन में रह जाती है। यहाँ कोई भी व्यक्ति आदर्श नहीं होना चाहिए, सभी का समान अध्यःपतन होना चाहिए। साम्य-पतन। जब सभी पतन के निम्न धरातल पर एकसम होंगे तो किसी को भी अपराध-बोध न होगा, यही हमारा लक्ष्य है। 'यह मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे संयत रहना है', ऐसी अनुशासन की बेडियां, यह धर्म ही डालता है। हमें नफरत है संयम से। हमें तो सुनामी की तरह आजादी चाहिए। पता नहीं किसके लिये खाद्य बचाना है, व्रत का महिमामंडन कर कर के, धर्म हमें भूखा मारता है। हमें अनवरत और अबाध चरना है। हमें तो इच्छा के आगे उदर पूर्णता का अवरोध भी मंजूर नहीं'
आजादख्याली नें हां में हां मिलायी- यह धर्म तो हमारे आवेगों और हमारी तृष्णाओं पर लगाम कसता है यह हमारे लोभ लालच का शोषण है।
भय से मैं अन्दर तक कांप उठा, क्या आनेवाली पीढी, श्रेष्ठ सुविधाओं के बीच भी जंगली समान जीवन जिएगी?
इतने में सभागार में रिपोर्टर धुस आए, मनमौजी उसे इंटरव्यूह दे रहे थे- हमनें सभी पक्षों को बडे परिश्रम से मना लिया है, हम पर पूर्ण विश्वास के साथ, सभी नें अपने हथियार डाल दिए है। और यहाँ हमनें शान्ति और सौहार्द कायम कर दिया है।
टीवी का कैमरा हमारे पर केन्द्रित हो, उसके पूर्व ही हमारा खिसक जाना ही बेहतर था, हम तो सटक लिए।
aastha apni apni ...... bahas ki zarurat kya hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूब व्यंग बोध कथा.
जवाब देंहटाएंशानदार. तीखी और निशाने पर...
जवाब देंहटाएंईश्वर के ऊपर भिन्न भिन्न विचार,भिन्न भिन्न मत,बहसें भी होती ही रहेंगी.पर कबीरदास जी तो कह गए हैं
जवाब देंहटाएं'जिन खोजा तिन पाइयाँ,गहरे पानी पैठ'
परन्तु पानी में उतरना ही कठिन है,फिर गहराई में जाना ,बाप रे बाप!
खुदी को खोना कौन पसंद करता है.
सुज्ञ जी मेरे ब्लॉग पर दर्शन नहीं हो रहें हैं आपके.
बहुत सुंदर लेख , अति सुंदर विचार
जवाब देंहटाएंसही है ...शुभकामनायें आपको भाई जी !!
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी ! जब सभा भवन में ईश्वर पर परिचर्चा हो रही थी और आप अन्दर व्यस्त थे....बाहर मुझे कुछ लोगों ने घेर लिया था.....उनका कहना था कि यह सुज्ञ नामक प्राणी तो ईश्वर को एक बता रहा है फिर हमारे डिपार्टमेंट वाले ईश्वर का क्या होगा ? इस तरह तो बड़ी गड़बड़ हो जायेगी .....मरने के बाद अभी तो सब लोग अपने अपने डिपार्टमेंट वाले ईश्वर के पास जाते हैं ...ईश्वर के एक हो जाने से तो सबको एक ही डिपार्टमेंट में जाना पडेगा.......
जवाब देंहटाएंएक सेक्यूलर जी बोले- कुछ नहीं ये इन लोगों की चाल है सारा पावर एक ईश्वर के पास केन्द्रित कर देना चाहते हैं ...जबकि हम लोग शक्ति के विकेंद्रीकरण की बात पोलित ब्यूरो में करते करते थक चुके हैं .....नंबर वन तो ईश्वर है ही नहीं ...चलो लोकतंत्र है तो पब्लिक के कहने से मान लेते हैं पर तब हर कम्यूनिटी का अलग-अलग ईश्वर कर देने में ही भलाई है ....नहीं तो ये लोग मरने के बाद भी चैन से नहीं बैठेंगे ...वहां भी लड़ेंगे..
कौशलेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंआप भी क्या? बस समाचार दे देना था 'नरक के यातना संसाधनो का समान बंटवारा नहीं हो रहा है, और कुछ समृद्ध नारकी उसका अधिक उपभोग कर रहे है' बस वह रेली चली जाती। और मारकस,लेनिन,माओ आदि से उनकी मुलाकात भी हो जाती। आपकी जान छूटती।
बात ईश्वर की हो, वहां श्रद्धापूर्वक राम-राम.
जवाब देंहटाएंसबको सन्मती दे भगवान।
जवाब देंहटाएंईश्वर सबको सद्बुद्धि दे
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही लिखा है आपने ... सार्थक ।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक व्यंग है सही मे एक बोधकथा की तरह शिक्षा दे गया व्यंग। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंati sundar prshnsniy bdhaai ho . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंजो धारण करने योग्य हो,वही धर्म।
जवाब देंहटाएंकुमार जी,
जवाब देंहटाएंबस धारण उसे ही करें जो आत्मोन्नती में हितकर हो।
सबको सन्मति दे भगवान.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी क्या कहूँ ‘दुर्बोध दासा’ ‘निर्बोध नास्ति’ ‘मनमौजी राम’ आजादख्याली राम मस्तमलंग खान आदि लोगों में कहीं न कहीं खुद का अक्स पाता हूँ. :-))
जवाब देंहटाएंदीप जी,
जवाब देंहटाएंयह तो एक विचारधारा है, न्यूनाधिक सभी में उपस्थित होती है। विचार परिमार्जित होते है,तो विचारधाराएं भी नियोजित होने लगती है। अक्स तो वैसे भी भ्रम है, छायाएं बनती बिगडती है।
वाह वाह! मजा आ गया पढ़कर
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सुंदर कथ्य..... सही सोच ज़रूरी है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया व्यंग्य है...
जवाब देंहटाएंमनमौजी जी क्या कहने... व्यंगात्मक रुप मेँ अच्छी प्रस्तुति.
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