28 अप्रैल 2011

ईश्वर हमारे काम नहीं करता…

(ईश्वर एक खोज के तीन भाग के बाद यह उपसंहार रूप भाग-4)

ईश्वर हमारे काम नहीं करता

स्बे में जब बात आम हो गई कि उस ईश्वर की बुकलेट का मैने गहराई से अध्यन किया है। तो लोगों ने अपनी अपनी समस्या पर चर्चा हेतू एक सभा का आयोजन किया, और मुझे व्याख्याता के रूप में आमंत्रित किया। अपनी विद्वता पर मन ही मन गर्व करते हुए, मैं सभा स्थल पर  आधे घंटे पूर्व ही पहुँच गया। सभी मुझे उपस्थित देखकर प्रश्न लेकर पिल पडे। सभी प्रश्नों के पिछे भाव एक ही था, उनका स्वयं का निष्कर्म स्वार्थ। बस यही कि ‘ईश्वर हमारे काम नहीं करता’।

मैने कहा आप सभी का समाधान मैं अपने वक्तव्य में अवश्य दुंगा। समय भी हो चुका था मैने वक्तव्य प्रारम्भ किया…
आशान्वित भक्त जनों,
सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ठ कर दूँ कि मैं स्वयं नहीं जानता कि ईश्वर क्या है। किन्तु यह अवश्य जान पाया हूँ कि निश्चित ही जैसा आपने कल्पित किया है  वह ऐसा हरगिज नहीं है। ईश्वर की कल्पना करने में, आपकी मानवीय प्रकृति ने ही खेल रचा है। आपने सभी मानवीय गुण-दोष उसमें आरोपित कर दिए है। अब कल्पना तो तुम करो और खरी न उतरे तो गाली ईश्वर को?

आपने मान लिया जो वस्तुएं या बातें मानव को खुश करती है, बस वे ही बातें ईश्वर को खुश करती होगी। आप पूजा-पाठ-प्रसाद-कीर्तन-भक्ति यह मानकर अर्पित करते है कि वह खुश होगा और खुश होकर आपको बिना पुरूषार्थ के ही वांछित फल दे देगा। जब ऐसा नहीं होता तो आप रूठ जाते है और नास्तिक बन लेते है। पर इन सब बातों से उसे कोई सरोकार नहीं हैं। उसने तो सभी तरह से सशक्त, सुचारू, न्यायिक व क्रियाशील नियम लागू कर छोडे है। एक ऐसे पिता की वसीयत की तरह कि जो गुणवान सद्चरित्र पुरूषार्थी पुत्र होगा उसे उसी अनुसार लाभ मिलता रहेगा। जो अवगुणी दुश्चरित्र प्रमादी होगा उसे नुकसान भोगना होगा। दिखावा या शोर्टकट का किसी को कोई भी लाभ न होगा। प्रलोभन तो उसको चलेगा ही नहीं।

निराकार की कल्पना करके भी आप लोग तो मानवीय स्वभाव से उपर उठकर, ईश्वर की समुचित अभिन्न कल्पना तक नहीं कर पाए। कभी-कभार कर्म पर विश्वास करके भी पुनः आप कह उठते है ‘जैसी उसकी इच्छा’। अरे! वह हर इच्छा से परे है, हर आवश्यक्ता से विरत, हर प्रलोभन और क्रोध से मुक्त। उसने प्रकृति के नियमों की तरह ही अच्छे बुरे के अच्छे बुरे फल प्रोग्रामिग कर छोड दिये है। सर्वांग सुनियोजित महागणित के साथ। कोई वायरस इस प्रोग्राम को जरा भी प्रभावित करनें में सक्षम नहीं। इस प्रकार ईश्वर निराकार निर्लिप्त है्।

अब आपको प्रश्न होगा कि जब वह एक सिस्टम है या निराकार निर्लिप्त है, तो उसे पूजा,कीर्तन,भक्ति और आस्था की क्या आवश्यकता? किन्तु आवश्यकता उसे नहीं हमें है, मित्रों। क्योंकि वही मात्र गुणों का स्रोत है, वही हमारे आत्मबल का स्रोत है। सभी के मानस ज्ञान गम्भीर नहीं होते, प्राथमिक आलंबन की आवश्यकता तो रहेगी ही। सुफल पाने के लिए गुण अंगीकार करने होंगे। गुण उपार्जन के लिये पुरूषार्थ की प्रेरणा चाहिए होगी। यह आत्मबल हमें आस्था से ही प्राप्त होगा। गुण अपनाने है तो सदैव उन गुणों का महिमा गान करना ही पडेगा। पूजा भक्ति अब मात्र सांकेतिक नहीं, उन गुणों को स्मरण पर जीवन में उतारने के रूप में करनी होगी। गुण अभिवर्धन में चुक न हो जाय, इसलिए नियमित ऐसी पूजा-भक्ति की आवश्यक्ता रहेगी। श्रद्धा हमें इन गुणों पर आसक्त रखेगी। और हमारे आत्मविश्वास का सींचन करती रहेगी। ईश्वर जो भी है जैसा भी है, इसी तरह हमें मनोबल, बुद्धि और विवेक प्रदान करता रहेगा। अन्ततः पुरूषार्थ तो हमें ही करना होगा। सार्थकता इसी श्रद्धा में निहित है। श्रद्धा और पुरुषार्थ ही सफलता के सोपान है।

47 टिप्‍पणियां:

  1. सही बात कही आपने....मैं भी यही मानती हूँ

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  2. अजी किसी बाबा का चित्र बांट देते:)
    बहुत सुंदर विचार आप से सहमत हे जी

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  3. बिलकुल सही है ...एक और अच्छे लेख के लिए आभार आपका !

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  4. इश्वर आराधना का हमारा उद्देश्य मन की शांति से सम्बन्धित ही रहना चाहिये न कि किसी उद्देश्य पूर्ति में सहायता का । आभार सहित...

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  5. हम सब राम और सीता की पूजा करते हैं लेकिन उनके त्‍याग को कोई नहीं अपनाता। मुझे समझ नहीं आता कि ऐसे त्‍यागी महापुरुष से हम क्‍या मांगते हैं और कैसे मांगते हैं? मांगना ही हो तो त्‍याग मांगो उनका आदर्श मांगों और प्रतिदिन स्‍मरण करते हुए वैसा बनने का प्रयास करो। आज जितने भी लोग ईश-वन्‍दना में लगे हैं यदि वे सारे ही प्रभु के गुणों को अपनाना शुरू कर दें तब यह दुनिया स्‍वर्ग हो जाएगी। लेकिन हमने मांग-मांगकर इसे नरक बना दिया है।

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  6. बहुत अच्छा आलेख
    मेरे लिए तो कर्म ही पूजा है

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  7. समस्त पूजा अर्चन में उस दिव्य शक्ति का गुणगान किया जाता है और उससे कुछ न कुछ माँगने का भाव होता है.
    — 'माँगा' सबल और सक्षम से ही जाता है.
    — माँगने की क्रिया अभाव में ही होती है.
    यदि अभाव न हो फिर भी माँग की जाये तो वह या तो 'फरमाइश' होगी या फिर 'हवस'

    अजित जी की टिप्पणी से पनपे कुछ अन्य विचार....
    — 'त्याग' जैसे सामाजिक-नैतिक मूल्य की चाहना तो सम्पन्नों को करनी चाहिए.

    मैंने वेदान्त दर्शन में एक कथा पढी थी. उसमें जो बात मुझे ध्यान रह गयी वह कहता हूँ...... एक बच्चा सबसे पहले अपनी माता की गोदी को चाहता है. यदि उसमें कोई अन्य बैठ जाता है तो उसे दुःख होता है.. बालक कुछ बड़ा होता है वह गोदी का त्याग करता है और किसी खिलौने से मोह करने लगता है... यदि उसी खिलौने को कोई ले लेता है तो वह रोता है.... बालक कुछ और बड़ा होता है वह खिलौने का भी त्याग करता है और घर से बाहर निकल कर मित्रमंडली से जुड़ जाता है.... यदि उस मित्रमंडली को उसे छोड़ना पड़ता है तो उसे दुःख होता है... किन्तु अपने विकास के लिये वह उसका भी त्याग करता है.
    त्याग असल मायनों में वह जो विकास की सीढियाँ चढ़ाए. 'त्याग' का मतलब यह नहीं कि मूलभूत वस्तुओं का भी त्याग कर दिया जाये. भोजन त्यागकर शरीर सुखाया जाये. शीत में वस्त्र का त्याग, ईश्वर प्राप्ति के लिये घर त्यागकर जंगल-जंगल भटकना - हठयोग में जरूर ये बाते स्वीकृत हैं. किन्तु भोजन, वस्त्र, आवास का त्याग करने वाले सच्चे त्यागी नहीं अपितु अपने उद्देश्य को ध्यान में रखकर ग़ैर-जरूरी वस्तुओं से मोह त्यागना ही वास्तविक त्याग है.

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  8. प्रतुल जी,

    अजित जी नें सुदृष्ट सर्वश्रेष्ठ त्याग की ही बात की है, तृष्णा के मोह से उपर उठकर किया जाय वही 'त्याग' कहलाएगा।

    त्याग और वह भी स्वार्थी? कौनसे 'सच्चे त्याग' की बात कर रहे हैं,बंधु। "मीठा मीठा मम मम और फीक फीका थू"
    मित्र जिन वस्तुओं के साथ जितना गाढा हमारा मोह बंधन होगा, उन्ही वस्तुओं, विचारों का त्याग ही सच्चे अर्थों में उत्तम त्याग की श्रेणी में आएगा।

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  9. सुज्ञ जी,
    शायद मैं अपनी बात स्पष्ट नहीं कर पाया. बीच की एक महत्वपूर्ण बात छूट गयी थी. क्योंकि ए. पार्थसारथी जी द्वारा अनुदित 'वेदान्त दर्शन' पुस्तक के सामने न होने से पूरी तरह बातें एकसाथ याद नहीं आ रही हैं. फिर भी .... कहता हूँ. एक छोटे उदाहरण के द्वारा वे स्पष्ट करते हैं....
    जब किसी छोटे बच्चे के लिये खिलौना निरउपयोगी हो जाता है तब यदि वह उस खिलौने को किसी अन्य जरूरतमंद बच्चे को दे देता है वह उसका त्याग है. खिलौना यदि वह फिर भी अपने पास रखे रहता है तो वह मोह है.
    जब धनवान व्यक्ति जरूरत से अधिक धन को अभावग्रस्त लोगों को दान में देता है तब वह उसका त्याग है.
    ए. पार्थसारथी जी व्यावहारिक त्याग की बात कहते हैं.... सामाजिक जीवन में जिसे आम आदमी भी अपना सकता है. और प्रपंची त्याग से तो शारीरिक दुख ही झेलेगा. यह व्यक्ति का अपने शरीर के साथ अन्याय ही होगा. महर्षि दयानंद सरस्वती जी जो कि स्वयं हठयोग करते थे वे भी 'हठयोग' को शरीर के साथ अन्याय बताकर उसे करने की मनाही करते हैं. किन्तु साधक के लिये वह हठयोग कसौटी भी है. मैं तो केवल चर्चा को गति देने के लिये पार्थसारथी जी के विचारों को अनायास कह बैठा.

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  10. प्रतुल जी,

    (बस इसे पार्थसारथी जी के विचारों पर केवल चर्चा क्रिडा की तरह ही लें।)

    @"जब किसी छोटे बच्चे के लिये खिलौना निरउपयोगी हो जाता है तब यदि वह उस खिलौने को किसी अन्य जरूरतमंद बच्चे को दे देता है वह उसका त्याग है. खिलौना यदि वह फिर भी अपने पास रखे रहता है तो वह मोह है.
    जब धनवान व्यक्ति जरूरत से अधिक धन को अभावग्रस्त लोगों को दान में देता है तब वह उसका त्याग है."

    मुझे तो यह त्याग प्रपंची नजर आता है। बच्चा खिलौना निरउपयोगी होने से पहले जरूरतमंद बच्चे को अर्पण नहीं करेगा, जब सभी दृष्टिकोण से अनुपयोगी प्रतीत होगा दान करेगा। यह त्याग कहां हुआ? त्याग तो तब है जब उसे अनवरत आनंद मिलते हुए भी उस आनंद का हिस्सा किसी उदास की झोली में डाल दे। और प्रसन्नवदन से आनंद त्याग मोल ले ले।
    उसी तरह आवश्यक्ता से अधिक धन वाला जानता हो कि एक करोड की पुंजी में से 100 रुपये के त्याग करने पर मेरा रोम भी नहीं हिलने वाला,100 रुपये का दान करता है तो कैस त्याग? यह बात अलग है कि कोई गरीब 100 का दान पाकर अत्यधिक खुश हो सकता है किन्तु उसकी खुशी के परिमाण से दाता के दान की उत्तमता नहीं बढ जाती। त्याग का व्यवहारिक पक्ष भी यही है।

    मनुष्य अपशिष्ट पदार्थ का शरीर से त्याग करता है, उसे भी तो त्याग कहते है, लेकिन त्याज्य को त्यागता है कौनसी बडी बात। अब वह माया से वाक्-क्रिडा कर कहे कि मेरा त्याग खेतों में खाद आपूर्ति करेगा मैं महान त्यागी हूँ, कहाँ उचित माना जाएगा।

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  11. सुज्ञ जी,
    मैं यहाँ सामान्य त्याग की बात नहीं कर रहा और न ही शारीरिक दबावों के त्याग की.
    जहाँ तक मैं समझा हूँ पार्थसारथी जी व्यावहारिक त्याग को समझाना चाहते हैं.
    — जैसे कोई बच्चा स्तनपान के अलावा बिना बोतल के दूध नहीं पी पाता... उस स्थिति में वह बोतल से दूध तब तक पिएगा जब तक वह अन्य तरीके (बर्तन) से पीना सीख नहीं जाता.
    जैसे ही वह अन्य तरीके से सीख जाता है वह बोतल के तरीके का त्याग कर देता है.
    — जैसे आप अपनी 'नौकरी' या अपनी आय का साधन (व्यापार) स्वयं की निर्धनता स्वीकार करके किसी जरूरतमंद के लिये त्याग नहीं करेंगे. जैसे कभी राजा हरिश्चंद्र ने किया था. राजा हरिश्चंद्र ने अपनी इच्छा से राजपाट छोड़ा भी नहीं था. वह तो दान में माँगा गया था. बेशक राजा हरिश्चंद्र जी का वह त्याग था लेकिन वास्तविक नहीं था. वह तो वीरता का एक प्रकार था जिसे 'दानवीरता' कहते हैं.
    त्याग अपनी इच्छा से होता है या किया जाता है. जैसे मैंने दुर्गुण विशेष [क्रोध] का त्याग किया. क्योंकि उसका आगमन मुझे अशांत कर देता है.

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  12. प्रतुल जी,

    तब तो मैं समझ ही नहीं पा रहा कि व्यवहारिक त्याग से क्या आशय है। और विशिष्ठ त्याग करना चाहिए या व्यवहारिक त्याग ही?

    पार्थसारथी जी के विचार क्या स्थापित करना चाहते है?

    यही कि सहज हो इतना ही त्याग करना चाहिए, और वही त्याग मात्र उत्तम त्याग है?

    बच्चे का बोतल छोड देना सहज त्याग है।
    आपका क्रोध छोडना पुरूषार्थ भरा त्याग है।

    विचारों को स्थिर कहाँ करना है?

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  13. 'त्याग' नाम के मूल्य की दुहाई देकर सुज्ञ जी आप किस की जेब ढीली कराना चाहते हैं?
    — क्या अम्बानी जैसे अपनी दौलत का त्याग कर बैठें? .. :)
    — बिल गेट्स अपनी अकूत दौलत को अन्ना हजारे जी को दान में देकर हिमालय पर जा बैठे? :))
    — या फिर ठिठुरती ठण्ड में दिगंबर होने का विचार मन में ले आऊँ?.. :))
    आप क्यों पार्थसारथी जी के रथ को रोकने में लगे हैं........ निकल भी जाने दीजिये सवारी को.

    अब लगता है पार्थसारथी जी की पुस्तक (हथियार) को ढूँढ़ना ही पड़ेगा, नहीं तो आप मुझे धोबी पछाड़ मारके ही मानेंगे.

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  14. आयु के हिसाब से बच्चा सहज त्याग ही तो कर पायेगा .... और आप उससे अपेक्षा किस त्याग की करते हैं ?

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  15. पुस्तक बाद में ढूँढूँगा.... हथियार बाद में लाऊँगा.
    उससे पहले वैचारिक कुश्ती ........ कर लेते है.

    त्याग के भाँति-भाँति के नाम दिये जा सकते हैं...... लेकिन क्षमतानुसार और योग्यतानुसार त्याग भी भिन्न हो जाते हैं.
    ... कोई राम, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, सीता आदि के जीवन को अपने आचरण में कैसे उतार सकता है... कुछेक बातों को ही अपना सकता है.
    — एक झोपड़ी में रहने वाला राम, बुद्ध और महावीर की तरह राजपाट का त्याग नहीं कर सकता और न ही ऐश्वर्य में पल रहे बीबी-बच्चों को पलता देख अपने अभावग्रस्त बीबी-बच्चों को छोड़कर जा कसता है. कोई समझदार गरीब गृहस्थी भूलकर भी उनके गृह-त्याग को नहीं अपनाएगा.

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  16. नहीं प्रतुल जी,

    मैं खुद दुविधा में फस गया हूँ,
    अम्बानी बिल गेट्स अपनी पूरी दौलत का त्याग करे, तब भी दानी कहुं पर त्यागी नहीं। दोनो हिमालय चले जाय तब भी सन्यासी कहुं पर त्यागी नहीं

    हां बिना खेद बिना मजबूरी महसुस किये वे ऐसा करे तो ही त्यागी कहुँ। बोलो क्या कहते हो????

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  17. प्रतुल जी,
    @@लेकिन क्षमतानुसार और योग्यतानुसार त्याग भी भिन्न हो जाते हैं.

    सहमत, पूर्ण सहमत!! त्याग, तप, दान और श्रम योग्यता और क्षमता अनुसार ही होने चाहिए। पर एक झोल हैं यहां प्रमादी अक्सर इसका बहाना कर बच निकलते है।

    जो कार्य महापुरूष कर सकते हैं उस काम को करने की क्षमता सम्भाव्य है। बस मनोबल ही चाहिए। निशंक प्रत्येक नहीं कर सकता, पर सम्भव अवश्य है। इसी लिये तो इतने ही महापुरूष हुए। बाकी के अनंत तृष्णा, मोह, माया, लोभ, क्रोध, मान मत्सर आदि में बिता गुमनाम हो गये।

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  18. पिताजी द्वारा बुला लिये जाने के कारण आपकी अग्रिम टिप्पणियाँ नहीं पढ़ पाया था और बिना जाने टिपिया गया. ....... अब एक घंटे बाड़ा लौटता हूँ.

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  19. प्रतुल जी,

    गुणों का अवमूल्यन कितना भी हो जाय, स्थापना तो श्रेष्ठ शुद्ध गुणो की ही करनी चाहिए।

    100 किलो उठाने की क्षमता थी, वृद्ध्त्व आया, शक्ति क्षीण हो गई, आज 20 किलो ही उठा पाते है, ठीक है, 20 किलो ही उठाओ, पर स्थापित तो यह करो कि मनुष्य की 100 किलो उठाने की क्षमता है। न कि हम स्वयं क्षीण है अतः सभी को क्षीणता-बोध से ग्रसित कर अपनी सहजता के लिये 20 किलो की स्थापना कर दें।

    अगर ऐसा मायावी कार्य किया तो भविष्य में राम, बुद्ध, महावीर कैसे होगा?

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  20. प्रतुल जी उवाच -"जैसे मैंने दुर्गुण विशेष [क्रोध] का त्याग किया. क्योंकि उसका आगमन मुझे अशांत कर देता है".

    विप्र गणों ! बड़ा ही अच्छ विषय उठाया है आपने ....एक विषय और मिल गया.
    वशिष्ठ जी ! क्रोध का त्याग यदि हम नहीं करेंगे तो हमें उसका दंड भोगना पडेगा ....यह एक समझदार व्यक्ति की विवशता है कि उसे क्रोध त्यागना पडेगा. सुज्ञ जी ने जिस त्याग की बात की है उसमें कोई विवशता नहीं है.........कोई दबाव नहीं है .......उस त्याग में दूसरों के कल्याण की भावना निहित है.....क्रोध को त्यागने में तो हमारा स्वार्थ है ...परोपकार कहाँ ?
    पुस्तक के पीछे मत पड़िए विप्र जी ! वह हमारे विचारों को बाँध देती है ...एक सीमा रेखा खींच देती है .....पुस्तक तो वह पत्थर है जिस पर हमें बुद्धि को रगड़कर धारदार बनाना है. उससे अधिक उसका उपयोग नहीं ...बल्कि वही उसका एक मात्र उपयोग है. कबीर अपने युग के अनेकों विद्वानों से बहुत आगे थे ......न पढ़े ...न लिखे .....फक्कड़ .........सुज्ञ जी की मंडली में फक्कड़ बन कर आना होगा.

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  21. कौशलेन्द्र जी,

    आप आए, बडी खुशी हुई! चलो दो से भले तीन! आनंद तिगुना।

    बडी मस्त बात कही…।

    पुस्तक तो वह पत्थर है जिस पर हमें बुद्धि को रगड़कर धारदार बनाना है. उससे अधिक उसका उपयोग नहीं ...बल्कि वही उसका एक मात्र उपयोग है।

    प्रतुल जी भी जानते है। मेरी नस नस ;))

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  22. ठीक है आप लोग आइये एक घंटे बाद ...तब तक मैं भी ईश्वर से लड़ कर आता हूँ ...ये क्या बात हुयी कि इतनी पूजा...अर्चना.....फूल-माला......मिठाई.....मनौती .....दान दक्षिणा के बाद भी भक्त का काम नहीं किया ?......सरासर बेईमानी ....हमारे छत्तीसगढ़ में आजकल यही होने लगा है ...पैसा देने के बाद भी काम नहीं होता. लोग शिकायत करेंगे ही. हमें ईश्वर के विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी ......नहीं तो फिर आन्दोलन ...हड़ताल ...आत्मदाह ...सब करना होगा.
    ईश्वर हमारे अधिकारी जी का नाम है और भक्त हमारे कम्पाउण्डर का .... ....बेचारा कई साल से परेशान है अभी तक रेग्युलर नहीं हुआ. भक्त बड़ा दुखी है ...ईश्वर भी दुखी है क्योंकि इतनी रिश्वत खोरी के बाद भी बीमार रहता है ....उसे डायबिटीज भी है.

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  23. कौशलेन्द्र जी,

    यह तो शानदार लघु-कथा है, थोडी और ऊन्नत कर पोस्ट कर दिजिए।

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  24. प्रतुल जी,

    @... कोई राम, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, सीता आदि के जीवन को अपने आचरण में कैसे उतार सकता है... कुछेक बातों को ही अपना सकता है.
    — एक झोपड़ी में रहने वाला राम, बुद्ध और महावीर की तरह राजपाट का त्याग नहीं कर सकता और न ही ऐश्वर्य में पल रहे बीबी-बच्चों को पलता देख अपने अभावग्रस्त बीबी-बच्चों को छोड़कर जा कसता है. कोई समझदार गरीब गृहस्थी भूलकर भी उनके गृह-त्याग को नहीं अपनाएगा.

    प्रतुल जी,

    राम जैसा चरित्र और मर्यादा कदाचित आज हम न अपना सकें, और आज बनते अनुसार किंचित अपनाएं। लेकिन जो शिथिल न्यून मर्यादा हमनें अंगीकार की हैं वह सर्वोत्तम श्रेष्ठ मर्यादा नहीं है यह स्वीकार करना और श्रेष्ठ कौनसी है तो वह राम सरीखी होती है यह स्थापित करते रहना। शुद्ध श्रेष्ठ गुणों का संरक्षण है। अन्यथा हमारी शिथिलता
    उत्तम गुणों का क्षरण कर देगी।
    राम के समकालिन ऐसा उत्तम चरित्र सहज होगा, आज हम मात्र यह कहते सर्वांग राम जैसा चरित्र नहीं अपनाया जा सकता, बस कुछ अपनाया जा सकता है। आने वाले समय में ऐसा होगा कि मर्यादापुरूषोत्तम? पूरी की पूरी गप्प ऐसा कोई हो भी सकता है भला? गुणों का क्षरण या पतन इसी भांति होता है।

    इसलिये मैं मानता हूँ, भले श्रेष्ठ गुण मैं अपना न सकुं, अपनी कमजोरी से पाल न सकुं, व्याख्या, प्रस्थापना और महिमामंडन तो मै श्रेष्ठ सर्वोत्तम गुणों का कर सकता हूँ, और मुझे करना भी चाहिए।

    जैसे मुझे हिंसा न मन से, न वचन से और न काया से। न करनी,न करवानी, न करने वाले का अनुमोदन करना। तभी पूर्ण अहिंसा है।
    किन्तु मैं मात्र काया से छोड पाया, मन व वचन से त्याग नहीं कर पाया। और करना व करवाना छोड पाया कर अनुमोदन रोक नहीं पाया।
    इतना अहिंसा का पालन करते हुए भी यदि कोई वास्त्विक अहिंसा का पूछे तो मेरी वाली अहिंसा सम्पूर्ण नहीं है यह स्वीकार करते हुए, मुझे उसे बताना ही चाहिए कि तीन करण तीन योग से पालन की गई अहिंसा ही सही अहिंसा है।

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  25. सुज्ञ जी ! एवं वशिष्ठ जी !
    पहले तो हम यह विचार करें कि लोग त्याग करते क्यों हैं ? उत्तर है प्रसन्नता के लिए...किन्तु इससे त्याग का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता.
    क्रोध करने से रक्तचाप का रोगी हो गया ....इस कारण वैकल्यता और बढ़ गयी ......चिकित्सक ने कहा क्रोध का त्याग करना पडेगा ...अन्यथा ब्रेन हेमरेज हो सकता है ......इस मनोविकार पर नियंत्रण के लिए क्रोध का त्याग कर दिया .......पर त्याग नहीं हुआ यह ......स्वलाभ हेतु ...स्व कल्याण हेतु किया गया एक आवश्यक कृत्य हुआ यह तो.
    तम्बाखू खाने से मुहं का कैंसर होता है ...भयभीत हो कर तम्बाखू का त्याग कर दिया. यह त्याग नहीं ...एक कुटैव से पीछ छुड़ाना हुआ. इससे स्वयं का तो हित हुआ पर पड़ोसी का नहीं .....हो सकता है कि पड़ोसी की ही दूकान से लेता हो ...तो इस त्याग से पड़ोसी का घाटा हो गया.
    भोजन अधिक बन गया ....बच गया .....सोचा .....फेकने से अच्छा है कि किसी ज़रुरतमंद को दान दे दिया जाय. यह भोजन की उपयोगिता का निर्णय हुआ..त्याग नहीं....दान भी नहीं. केवल भोजन से मोह के कारण उसकी सदुपयोगिता भर.
    पत्नी से विवाद हो गया. क्रोध में आ कर घर का त्याग कर दिया.....नहीं....त्याग यह भी नहीं हुआ ....तात्कालिक बुद्धिनिर्णीत पारिवारिक समस्या का एक समाधान भर.
    यह अब मेरे काम का नहीं रहा ......इसलिए त्याग कर दिया .....यह अनुपयोगी वस्तु से मुक्ति पाना हुआ ...त्याग नहीं. फिर आखिर किस त्याग की बात की जा रही है ?
    विवाद हो रहा था पद को लेकर ..इसलिए राष्ट्र हित में पद का त्याग कर प्रतिद्वंदी को दे दिया ...जिस पर हमारा अधिकार था ...जो हमारे द्वारा अर्जित था ......वह दूसरे को दे दिया ......यह त्याग हुया.
    जो हमारा अतिप्रिय है ...जिसके बिना हम एक पल रह नहीं सकते थे ...पर आज ....जिसकी आवश्यकता हम से अधिक दूसरे को है .....इसलिए प्रसन्नतापूर्वक दूसरे को दे दिया ..हाँ ! अब यह त्याग हुआ. त्याग में पहला घटक है - स्व उपार्जिता, दूसरा घटक है -जिसका त्याग किया जा रहा है उसके प्रतिप्रेम होना, तीसरा घटक हुआ स्वयं से अधिक दूसरे की आवश्यकता का विचार और चौथा घटक हुआ जनकल्याण का विचार.
    तो इसका अर्थ यह हुआ कि त्याग की कई परिस्थितियाँ होती हैं .....परिस्थितियों के आधार पर उनकी कई कोटियाँ होती हैं और कोटियों के आधार पर उनकी श्रेष्ठता का निर्णय होता है.

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  26. कौशलेन्द्र जी,

    जय हो, सुपरिभाषित!!

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  27. सुज्ञ जी
    चाहता था आपसे बतिया लूँ लेकिन कौशलेन्द्र जी को ध्यान से पढ़ गया अरे वे तो त्याग की आत्मा के दर्शन करा गये.
    इतना सुन्दर विश्लेषण ...... कमाल है. इतना सूक्ष्म चिंतन ......... धन्य हुआ पढ़कर...

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  28. सुज्ञ जी,
    आपने '१०० प्रतिशत का बखान करो' के पक्ष में बात कही. कुछ हद तक सहमत हूँ किन्तु
    मेरी एक व्यंग्य कथा की व्यंग्य सीख है : "बीस हो तो अस्सी दिखो." क्या इस बात का समर्थन तो नहीं हो रहा.
    मतलब कम योग्य होने पर भी पूरी योग्यता का प्रदर्शन करो.
    क्षमतानुसार कम त्याग कर पाने का माद्दा हो तो भी बात सम्पूर्ण त्याग की करनी चाहिए.

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  29. प्रतुल जी,

    आपने '१०० प्रतिशत का बखान करो'

    नहीं प्रतुल जी मेरा आशय वह नहीं है, मैं प्रदर्शन की बात नहीं कर रहा। मैं तो उल्टा कह रहा हूं अगर हम कुछ कम है तो स्वीकार करो, अधूरे है तो कहो यह अधूरा है, सम्पूर्ण सच्च का गोपन मत करो, हमारे अधूरे पालन को सम्पूर्ण का दिखावा न करो न मानो। और इमानदारी से बता दो सम्पूर्ण सत्य क्या है। व्याख्या करो बखान नहीं।

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  30. कौशलेन्द्र जी तो दर्शन-शास्त्र के प्रकांड विद्वान है!!

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  31. कईं इन्स्टिट्यूट द्वारा 'व्यक्तित्व विकास' का प्रशिक्षण होता है। वहां यही नियम होता है-"बीस हो तो अस्सी दिखो." यह उन प्रोग्रामों की आवश्यकता ही होती है। वह दिखावे का ही प्रशिक्षण है तो उसी के समर्थित नियम होंगे।

    लेकिन इन मामलों में संस्कृति के संरक्षण का उद्देश्य होता है।

    यहां भी कोई मान-भूखा बाबा अपने मर्केटिंग उद्देश्य से अपने त्याग को बढा चढा कर कहे वह अलग बात है।

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  32. सुगी जी यहाँ आकर,आपके सुन्दर विचार के साथ साथ एनी मनीषियों का विमर्श भी प्राप्त होता है.. अद्भुत ज्ञान गंगा में स्नान कर आत्मा तृप्त हो जाती है.. आभार!!

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  33. ई हमरा नाम सुगी काहे कह दिए है, बर्थ-डे ब्वॉय बिहारी बाबू? आज हमरा सुज्ञ भी एक साल का हुइ गवा।

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  34. ए भाई सुगी जी ! हमरा के नईं खे पता के ई नमवा बिहारी बाऊ काहे धइलन...बाकी प्यार बहुत झलकत बा, एकदम चौबीस कैरेट बाला ........ अब त हमहूँ सूगीये जी कहब.
    ना भाई सुगी जी ! अइसन मत कहीं ....परकांड त बहुत भारी सब्द हो गइल बा. हमरा खातिर अइसन भाव .....ई त राउर गुन गराहकता बा ....बस इहै बिनती बा के बिमर्स करत रहीं ......आ सनातनधर्म के अलख जगात रहीं....

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  35. बहुत ही बढ़िया आलेख .....चिंतन को प्रेरित करता हुआ
    टिप्पणियों में भी अच्छा विमर्श दिख रहा है...पर बाद में उसे पढ़ती हूँ...आभार

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  36. बहुत सुन्दर विमर्श ...ज्ञानवर्धन हुआ।
    आभार।

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  37. पुरूषार्थ हमें ही करना होगा ....

    सत्य तो यही है .... जीवन का अकाट्य सत्य .....

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  38. चारो कड़ियाँ पढ़ी मगर इस पर आये एक भी कमेंट नहीं पढ़ा पाया हूँ।
    ईश्वर के संबंध में नीर क्षीर विवेक ही है यह चर्चा। पहली, दूसरी कड़ी तीसरी, चौथी की तुलना में अधिक रोचक ढंग से अपनी बात रखती है
    लेकिन चर्चा उत्तरोत्तर गहन होती जा रही है। आगे की कड़ियों का इंतजार रहेगा।..आभार।

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  39. देवेन्द्र जी ने सही कहा , चर्चा उत्तरोत्तर गहन होती जा रही है। मुझे भी आगे की कड़ियों का इंतजार रहेगा।.

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  40. be-lated happy birthday to SUGYA.aap ki umar lambi ho bhagvan se yahi prathna hai.

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  41. कर्म के बिना फल सम्भव ही नहीं|धन्यवाद|

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