(हमने देखा पिछ्ली दो कडियों में, जिसमें पहली तो ईश्वर को लेन देन का व्यापारी समझ,अटल नियम विरूद्ध मांगने का परिणाम नास्तिकता आता है। और दूसरी में जो अधिक बुरे कर्मो में रत हो उसे इतना ही अधिक डराना आवश्यक नियम महसुस होता है। अब आगे…)
(ईश्वर एक खोज-भाग…3)
ईश्वर को देख के करना क्या है?
ईश्वर को देख के करना क्या है?
कस्बे के वाम छोर पर मजदूरों की बस्ती है, उसी के सामने एक सम्भ्रांत इलाका है बीच से सडक गुजरती है। सडक के उस पार ‘दुर्बोध दासा’ का बंगला है। दुर्बोध दासा, हर रात मजदूर को उनके हित में भाषण अवश्य देते है। बंगले के पास ही उनकी अपनी पान की दुकान है। मजदूर कॉलनी के सभी लोग उनके ग्राहक है। गरीब और रक्त की कमी से पीडित मजदूरों को दुर्बोध दासा नें ‘कत्था खाकर मुंह लाल’ रखने के नुक्खे का आदी बना दिया है। पान में कोई ‘शोषणविरोध’ की कडक सुपारी डालते है जिसे चुभलाते जाओ खत्म ही नहीं होती। यह चुभलाना मजदूरों को भी रास आने लगा है। आभासी लालिमा प्रदान करता यह पान मजदूरों में लोकप्रिय है। दुर्बोध दासा ने पान पर ही यह बंगला खडा किया है।
आज कल उनके ग्राहकों की संख्या कम होने लगी है, रात कॉलोनी से ढोल, तांसे, मजीरे और भजन की स्वर-लहरिया आती है, उनका भाषण सुनने भी अब लोग प्रायः कम ही आते है। पान का धंधा चोपट होने के कगार पर है। दुर्बोध दासा की आजीविका खतरे में है, उन्होंने पुछ-ताछ की तो पता चला आज-कल लोग उस ‘ईश्वरीय ऑफिस’ जाने लगे है। दुर्बोध दासा को यकीन हो गया, जरूर वे सभी मजदूर वहाँ अफीम खाते है।
उनके खबरियों से उन्हे सूचना मिली कि मैं ही उस कार्यालय का दलाल हूँ। दो-चार लोगों के मामले निपटाने के लिये मुझे वहां आते जाते देख लिया होगा। दुर्बोध दासा गुस्से से लाल झंडे सम बने, मेरे पास आए और ‘ईश्वर का चमचा’, ‘ईश्वर का दलाल’, ‘अफीम का धंधेबाज़’ नारे की लय में न जाने क्या क्या सुनाने लगे। मैने उन्हें पानी पिला पिला कर…… शान्त किया और आने का कारण पूछा।
वे लगभग उफनते से बोले- देख बे आँखो वाले अंधे, ‘ईश्वर विश्वर कुछ नहीं होता, क्यों लोगों को झांसा दे रहा है तूं? और इस धर्म-अफ़ीम का गुलाम बना रहा है। मैने सफाई देते कहा –मैने किसी को भी प्रेरित नहीं किया सदस्य बनने के लिये, लोग स्वतः जाते होंगे। दुर्बोध दासा बीच में बात काटते हुए फिर उबले- ‘ कौन होते हो तुम उन्हें यथास्थितिवाद में धकेलने वाले?, यह हमारा काम है पर दूसरे तरीके से। तुम्हे मालूम नहीं, तुम लोग जिस ईश्वर को अन्नदाता कहते हो, उसका वैचारिक अस्तित्व ही हमारे जैसे लाखों लोगों के पेट पर लात मारता है। जानते हो जो पान की दुकान लोगों के होठों पर लाली लाती थी, आज बंद होने के कगार पर है। मुझे बोलने का अवसर दिए बिना ही छूटते ही प्रश्न किया- क्या तुमने ईश्वर को देखा है?
मैने कहा -दुर्बोध जी! मैं ईश्वर का प्रचार नहीं कर रहा, ईश्वर है या नहीं इस बात से न तो हमें या न ईश्वर को कोई फर्क पडता है। लेकिन जो बडी वाली नियमावली मैं लेकर आया था, और जिसका मैंने अध्यन किया है, उसमें ईश्वर ने भी अपने होने न होने की चर्चा को कोई महत्व नहीं दिया है। इसमें तो सभी अटल प्राकृतिक नियम है। और जीवन को सरल, सहज, शान्त, सन्तोषमय बनाने के तरीके मात्र है। सच्चा आनंद पाने का अन्तिम उपाय है। लोग अगर श्रद्धा के सहारे स्वयं में आत्मबल का उत्थान करते है तो आपको क्या एतराज है। चलो आप लोग ईश्वर को मत मानो पर जो उसनें गुणवान बननें के उपदेश और उपाय बताएं हैं उस पर चलने में क्या आपत्ति है? उसके निर्देशानुसार सार्थक कंट्रोल में जीवन जीनें से क्या एतराज है। आत्मसंयम को अफीम संज्ञा क्यों देते हो।
दुर्बोध दासा अपने गर्भित स्वार्थ से उँचा उठकर न सोच पाया। मनमौज और स्वार्थ के खुमार में झुंझलाता, हवा को गालियाँ देता चलता बना।
सुंदर बात कही आपने। बधाई।
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देखिए ब्लॉग समीक्षा की बारहवीं कड़ी।
अंधविश्वासी आज भी रत्नों की अंगूठी पहनते हैं।
चलिये आगे देखे क्या होता है..
जवाब देंहटाएंbahut hi sunder.... keep it up
जवाब देंहटाएंआगे आगे देखते हैं होता है क्या.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ...अच्छी श्रृंखला
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक कड़ियाँ चल रही है.... बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पढ कर ही नशा हो गया ईशवर का.धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुंदर बात कही आपने।
जवाब देंहटाएंगौतम बुध से एक बार किसी संत ने पूछ लिया "क्या आप ने इश्वर को देखा hai "
जवाब देंहटाएंगौतम बुध ने कहा इश्वर को आप देख नही सकते वो अनंत सत्ता kaise देख सकते हो "और देख कर करना भी क्या hai
उस इश्वर को आप की पूजा की कम और अछे कर्मो की जायदा जरुरत hai
बहुत ही बढ़िया लेख
जब जब किसी को उसकी चाहत में विघ्न होता दिखाई देता है,तो उसे क्रोध आना स्वाभाविक है. दुर्बोध दासा भी कोई अपवाद नहीं हैं.चाहे ईश्वर को मानने से, चाहे किसी नियम या नुस्खे की वजह से,उनकी दुकानदारी तो चोपट हो ही रही है न. जब चाहत प्रबल होती है तो कोई ज्ञान ध्यान आदि समझ नहीं आता है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
आपको समृद्धि दे तो ईश्वर है और ना दे सके तो नहीं है। सब कुछ देने पर ही है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे
जवाब देंहटाएंईश्वर पर सिलसिलेवार अच्छी पोस्टें लगा रहे हैं आप.
जवाब देंहटाएंसुंदर बात कही आपने। धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंआज पहली बार आपके ब्लॉग में शिरकत की है.पहली ही पोस्ट में की गई अपेक्षा को उत्तरित करने लिहाज से आपकी कुछ पुरानी पोस्ट पर विहंगम दृष्टिपात करना पड़ा.मुझे लगा कि आप सिद्धांतों पर अन्धविश्वास न करके व्यावहारिक संभावनाओं पर अधिक विश्वास करते हैं.ऐसा होना भी चाहिए.करो वही जो संभव हो.सुनो वही जो संभव हो.बोलो वही जो संभव हो.सकारात्मक सोच और यथार्थवादिता आपके व्यक्तित्व का कद बढाती है.
जवाब देंहटाएंआज पहली बार आपके ब्लॉग में शिरकत की है.पहली ही पोस्ट में की गई अपेक्षा को उत्तरित करने लिहाज से आपकी कुछ पुरानी पोस्ट पर विहंगम दृष्टिपात करना पड़ा.मुझे लगा कि आप सिद्धांतों पर अन्धविश्वास न करके व्यावहारिक संभावनाओं पर अधिक विश्वास करते हैं.ऐसा होना भी चाहिए.करो वही जो संभव हो.सुनो वही जो संभव हो.बोलो वही जो संभव हो.सकारात्मक सोच और यथार्थवादिता आपके व्यक्तित्व का कद बढाती है.
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