एक बार जब राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें एक मुनि घोर तपस्या में लीन दिखाई दिए। कायोत्सर्ग की अवस्था में सूर्य की ओर मुख करके वो पर्वत के सामान स्थिर अपने ध्यान में लीन थे। राजा श्रेणिक ने उनको वंदन किया तथा प्रभु महावीर की देशना सुनने चल दिये। वितराग वानी का श्रवण करने के पश्चात राजा श्रेणिक ने पुछा “भगवन ! आज आते समय रस्ते में एक महान तेजस्वी मुनि के दर्शन हुए, उन ध्यान में लीन मुनि की तपस्या कितनी महान होगी, हे भगवन, वे मुनि किस उत्तम गति को प्राप्त होंगे?”
महावीर बोले “यदि वे अभी, इसी क्षण मरण करें तो सातवीं नर्क में जाएँगे “
राजा श्रेणिक चकित होकर बोले “ इतने महान तपस्वी, इतनी उग्र साधना और सांतवी नर्क, ये कैसे संभव है भगवन ?” महावीर बोले “ यदि वह इस समय मृत्यु को प्राप्त करे तो वो छठी नर्क में जाएँगे” श्रेणिक बोले “ यह कैसे, एक क्षण में सातवीं से छठी नर्क ?” “हाँ राजन ! अभी उनके पाँचवी नर्क के कर्म बंधन हो रहे हें” श्रेणिक को बहुत आश्चर्य हुआ, वह कौतुहलवश पूछने लगा “ प्रभु ! अब ..” “अब उसके कर्म चौथी नर्क के योग्य हें” इस प्रकार श्रेणिक पूछता रहा और महावीर उत्तर देते रहे तथा कुछ ही क्षणों में वो तीसरी, दूसरी तथा पहली नर्क को पार कर ऊपर की ओर तीव्र गति से बढ़ने लगे। महावीर बोले “श्रेणिक! अब वह साधक देवभूमि तक पंहुच गया है” एक ओर जहाँ साधक का अन्दर ही अन्दर आरोहण चालू था तो दूसरी तरफ श्रेणिक के प्रश्न तथा प्रभु के उत्तर। “श्रेणिक ! अब वह सौधर्म देवलोक से भी आगे निकल गया है तथा सर्वार्थ सिद्धि की तरफ बढ़ रहा है” प्रभु का वाक्य पूरा होते होते देव दुंदुभी बज उठी और देवी देवता पृथ्वी पे जहाँ वो साधक था वहां पुष्प वर्षा करने लगे। महावीर बोले “उस साधक को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है”
श्रेणिक ने पुछा "भगवन ! जो साधक कुछ क्षण पहले सातवीं नर्क ये योग्य था, उसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया? यह कैसा रहस्य है" तब महावीर बोले “ जब तुमने सबसे पहले ये प्रश्न पुछा तब वो साधक बाहर से भले ही साधना में लीन दिखाई दे रहा था पर अपने अंतर्मन में वह एक भयंकर युद्ध लड़ रहा था| वह साधक कोई और नहीं बल्कि राजा प्रसन्नचन्द्र थे जिन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सुपुर्द कर दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आज जब वह ध्यान में लीन थे तब उनके कानों में दो सैनिकों के शब्द पड़े, "देखो एक तरफ ये राजा अपने राज्य को अनुभवहीन पुत्र को देकर यहाँ ध्यान में लीन है और दूसरी तरफ पड़ोसी राजा ने नए राजा की अनुभवहीनता का फायदा उठा कर राज्य पर आक्रमण कर दिया है। उसकी सेना ने राज्य को चारों तरफ से घेर लिया है, सेनाएं आगे बढ़ रहीं हैं और कुछ ही समय में इस राजा प्रसन्नचन्द्र का पुत्र या तो भाग जाएगा या वहीँ समाप्त हो जाएगा।"
इतना सुनते ही प्रसन्नचन्द्र का मन विचलित हो गया, वो वैराग्य के मार्ग से भटक कर राग द्वेष के रास्ते पे चला पड़ा। वह मन ही मन पड़ोसी राज्य की सेना के साथ युद्ध लड़ने चला गया और उसकी सेना से भयंकर युद्ध करने लग। जब तुमने मुझसे उसकी गति के बारे में पुछा तब वह तीव्र क्रोध में भर कर महाहिंसा में अनुरक्त था। नहाया हुआ महाकाल की तरह भयंकर युद्ध कर रहा था, वो अपने वीतराग के मार्ग से पूरी तरह हट चुका था| इसीलिए वो उस समय सातवीं नर्क के योग्य था। उसके मन के युद्ध में एक समय ऐसा आया जब उसके सारे शस्त्र समाप्त हो गए परन्तु एक शत्रु अभी भी सामने बचा था, तो राजा ने अपने मुकुट से ही उस पर वार करने का निश्चय किया। मुकुट लेने के लिए जैसे ही हाथ अपने सर पर ले गया, वहां मुकुट नहीं बल्कि संयम युक्त मुण्डित सर था। वीतराग चरित्र के लिए लुन्चित सर था, हाथ स्पर्श करते ही उसके मन की धारा ने पलटा खाया। वह सोचने लगा कौनसा पुत्र, कैसा राज्य और कौन शत्रु ? मैंने तो समस्त सांसारिकता का त्याग करके, अहिंसा-धर्म अंगीकार किया है। मैं कैसा कायर जरा से संयोग से विचलित हो संयम मार्ग से भटकने लगा। वे दुष्चिन्तन के पश्चाताप से भर उठे। आत्मग्लानी के ताप से विचारों के बुरे कर्म को जलाने लगे। अब बाहर के शत्रु से युद्ध करने के स्थान पर वे अपने अन्दर के शत्रु से युद्ध करने लगे। जैसे जैसे वे अपने अन्दर का कलुष धो रहे थे, वैसे वैसे उनके अन्तरमन का तम नष्ट होता जा रहा था। वे नर्क से स्वर्ग और अंततः साधना की परम सिद्धि के द्वार तक पंहुच गए।"
यह सुन कर श्रेणिक मन में सोचने लगे “मन कितना विचित्र है ! संकल्प कितने बलवान होते हें! विचार जब अधोमुखी हों तो सातवीं नर्क तक ले जाते हैं और जब उर्ध्वमुखी हों तो मुक्ति का द्वार खोल देते है।
राजा श्रेणिक चकित होकर बोले “ इतने महान तपस्वी, इतनी उग्र साधना और सांतवी नर्क, ये कैसे संभव है भगवन ?” महावीर बोले “ यदि वह इस समय मृत्यु को प्राप्त करे तो वो छठी नर्क में जाएँगे” श्रेणिक बोले “ यह कैसे, एक क्षण में सातवीं से छठी नर्क ?” “हाँ राजन ! अभी उनके पाँचवी नर्क के कर्म बंधन हो रहे हें” श्रेणिक को बहुत आश्चर्य हुआ, वह कौतुहलवश पूछने लगा “ प्रभु ! अब ..” “अब उसके कर्म चौथी नर्क के योग्य हें” इस प्रकार श्रेणिक पूछता रहा और महावीर उत्तर देते रहे तथा कुछ ही क्षणों में वो तीसरी, दूसरी तथा पहली नर्क को पार कर ऊपर की ओर तीव्र गति से बढ़ने लगे। महावीर बोले “श्रेणिक! अब वह साधक देवभूमि तक पंहुच गया है” एक ओर जहाँ साधक का अन्दर ही अन्दर आरोहण चालू था तो दूसरी तरफ श्रेणिक के प्रश्न तथा प्रभु के उत्तर। “श्रेणिक ! अब वह सौधर्म देवलोक से भी आगे निकल गया है तथा सर्वार्थ सिद्धि की तरफ बढ़ रहा है” प्रभु का वाक्य पूरा होते होते देव दुंदुभी बज उठी और देवी देवता पृथ्वी पे जहाँ वो साधक था वहां पुष्प वर्षा करने लगे। महावीर बोले “उस साधक को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया है”
श्रेणिक ने पुछा "भगवन ! जो साधक कुछ क्षण पहले सातवीं नर्क ये योग्य था, उसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया? यह कैसा रहस्य है" तब महावीर बोले “ जब तुमने सबसे पहले ये प्रश्न पुछा तब वो साधक बाहर से भले ही साधना में लीन दिखाई दे रहा था पर अपने अंतर्मन में वह एक भयंकर युद्ध लड़ रहा था| वह साधक कोई और नहीं बल्कि राजा प्रसन्नचन्द्र थे जिन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सुपुर्द कर दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आज जब वह ध्यान में लीन थे तब उनके कानों में दो सैनिकों के शब्द पड़े, "देखो एक तरफ ये राजा अपने राज्य को अनुभवहीन पुत्र को देकर यहाँ ध्यान में लीन है और दूसरी तरफ पड़ोसी राजा ने नए राजा की अनुभवहीनता का फायदा उठा कर राज्य पर आक्रमण कर दिया है। उसकी सेना ने राज्य को चारों तरफ से घेर लिया है, सेनाएं आगे बढ़ रहीं हैं और कुछ ही समय में इस राजा प्रसन्नचन्द्र का पुत्र या तो भाग जाएगा या वहीँ समाप्त हो जाएगा।"
इतना सुनते ही प्रसन्नचन्द्र का मन विचलित हो गया, वो वैराग्य के मार्ग से भटक कर राग द्वेष के रास्ते पे चला पड़ा। वह मन ही मन पड़ोसी राज्य की सेना के साथ युद्ध लड़ने चला गया और उसकी सेना से भयंकर युद्ध करने लग। जब तुमने मुझसे उसकी गति के बारे में पुछा तब वह तीव्र क्रोध में भर कर महाहिंसा में अनुरक्त था। नहाया हुआ महाकाल की तरह भयंकर युद्ध कर रहा था, वो अपने वीतराग के मार्ग से पूरी तरह हट चुका था| इसीलिए वो उस समय सातवीं नर्क के योग्य था। उसके मन के युद्ध में एक समय ऐसा आया जब उसके सारे शस्त्र समाप्त हो गए परन्तु एक शत्रु अभी भी सामने बचा था, तो राजा ने अपने मुकुट से ही उस पर वार करने का निश्चय किया। मुकुट लेने के लिए जैसे ही हाथ अपने सर पर ले गया, वहां मुकुट नहीं बल्कि संयम युक्त मुण्डित सर था। वीतराग चरित्र के लिए लुन्चित सर था, हाथ स्पर्श करते ही उसके मन की धारा ने पलटा खाया। वह सोचने लगा कौनसा पुत्र, कैसा राज्य और कौन शत्रु ? मैंने तो समस्त सांसारिकता का त्याग करके, अहिंसा-धर्म अंगीकार किया है। मैं कैसा कायर जरा से संयोग से विचलित हो संयम मार्ग से भटकने लगा। वे दुष्चिन्तन के पश्चाताप से भर उठे। आत्मग्लानी के ताप से विचारों के बुरे कर्म को जलाने लगे। अब बाहर के शत्रु से युद्ध करने के स्थान पर वे अपने अन्दर के शत्रु से युद्ध करने लगे। जैसे जैसे वे अपने अन्दर का कलुष धो रहे थे, वैसे वैसे उनके अन्तरमन का तम नष्ट होता जा रहा था। वे नर्क से स्वर्ग और अंततः साधना की परम सिद्धि के द्वार तक पंहुच गए।"
यह सुन कर श्रेणिक मन में सोचने लगे “मन कितना विचित्र है ! संकल्प कितने बलवान होते हें! विचार जब अधोमुखी हों तो सातवीं नर्क तक ले जाते हैं और जब उर्ध्वमुखी हों तो मुक्ति का द्वार खोल देते है।
विचार जब अधोमुखी हों तो सातवीं नर्क तक ले जाते हैं और जब उर्ध्वमुखी हों तो मुक्ति का द्वार खोल देते है।
जवाब देंहटाएंआभार, अजय जी!!
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