एक आदमी अपने सिर पर अपने खाने के लिए अनाज की गठरी ले कर जा रहा था। दूसरे आदमी के सिर पर उससे चार गुनी बड़ी गठरी थी। लेकिन पहला आदमी गठरी के बोझ से दबा जा रहा था, जबकि दूसरा मस्ती से गीत गाता जा रहा था।
पहले ने दूसरे से पूछा, "क्योंजी! क्या आपको बोझ नहीं लगता?"
दूसरे वाले ने कहा, "तुम्हारे सिर पर अपने खाने का बोझ है, मेरे सिर पर परिवार को खिलाकर खाने का। स्वार्थ के बोझ से स्नेह समर्पण का बोझ सदैव हल्का होता है।"
स्वार्थी मनुष्य अपनी तृष्णाओं और अपेक्षाओं के बोझ से बोझिल रहता है। जबकि परोपकारी अपनी चिंता त्याग कर संकल्प विकल्पों से मुक्त रहता है।
पहले ने दूसरे से पूछा, "क्योंजी! क्या आपको बोझ नहीं लगता?"
दूसरे वाले ने कहा, "तुम्हारे सिर पर अपने खाने का बोझ है, मेरे सिर पर परिवार को खिलाकर खाने का। स्वार्थ के बोझ से स्नेह समर्पण का बोझ सदैव हल्का होता है।"
स्वार्थी मनुष्य अपनी तृष्णाओं और अपेक्षाओं के बोझ से बोझिल रहता है। जबकि परोपकारी अपनी चिंता त्याग कर संकल्प विकल्पों से मुक्त रहता है।
सच में, यदि परोपकार का सोच लें तो, ईश्वर बहुत दे देता है, सम्हालने के लिये।
जवाब देंहटाएं....सही कहा!
जवाब देंहटाएंसुन्दर सन्देश! सचमुच स्वार्थ की कीमत बहुत भारी है।
जवाब देंहटाएंअंतर नजरिये का, वही असली अंतर है।
जवाब देंहटाएंकितनी बड़ी बात ... ये है जीवन की असली कला
जवाब देंहटाएंसटीक |
जवाब देंहटाएंआदरणीय ||
nice presentation
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही.....
जवाब देंहटाएंबोझ काम करने वाले की मानसिकता पर भी निर्भर होता है ....
जवाब देंहटाएंबढ़िया !
यह सही कहा ...
जवाब देंहटाएंमंदिर के निर्माण में पत्थर तोडते मजदूरों का वक्तव्य याद आ गया..
जवाब देंहटाएंपहला रोते हुए बोला - दिखाई नहीं देता पत्थर तोड़ रहा हूँ.
दूसरे ने कराहते हुए कहा - मजदूरी कर रहा हूँ.
तीसरा गाते हुए कहने लगा - भगवान का मंदिर बना रहा हूँ.
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पीड़ा में आनंद की अनुभूति प्रदान करता है निस्वार्थ कर्म!! प्रेरक कथा सुज्ञ जी!
जीवन की एक और कला और निस्वार्थ कर्म की सच्ची शिक्षा.
जवाब देंहटाएंसीख देती प्रस्तुति...सुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंस्वार्थ के बोझ से स्नेह समर्पण का बोझ सदैव हल्का होता है .....सारगर्भित पंक्ति
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