हम प्रायः सोचते है विचार या मुद्दे पर चर्चा करते हुए विवाद अक्सर व्यक्तिगत क्यों हो जाता है। किन्तु हम भूल जाते है कि जिसे हम लेखन का स्वाभिमान कहते है वह व्यक्तिगत अहंकार ही होता है। इसी कारण स्वाभिमान की ओट में छिपा व्यक्तिगत अहंकार पहचान लिया जाता है और उस पर होती चर्चा स्वतः व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप का रूप ग्रहण कर लेती है। अभिमानी व्यक्ति निरर्थक और उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अनावश्यक परिश्रम से भी अन्तत: कलह व झगड़ा ही उत्पन्न करता हैं। प्रायः ब्लॉगर/लेखक भी अपने लेखकीय स्वाभीमान की ओट में अहंकार का सेवन और पोषण ही करते है।
बल का दम्भ बुरा है, धन का दम्भ बहुत बुरा किन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है।
हमारी व्यक्तिगत ‘मान’ महत्वाकांशाएँ विचार भिन्नता सहन नहीं कर पाती। विचार विरोध को हम अपना मानमर्दन समझते है। इसी से चर्चा अक्सर विवाद का रूप ले लेती है। इतना ही नहीं लेखन पर प्रतिक्रिया करते हुए टिप्पणीकार भी अपनी ‘मान’ महत्वाकांशा के अधीन होकर विचार विरोध की ओट में लेखक के मानखण्डन का ही प्रयास करते देखे जाते है। स्वाभिमान के नाम पर अपना सम्मान बचानें में अनुरक्त सज्जन चिंतन ही नहीं कर पाते कि जिस सम्मान के संरक्षण के लिए वे यह उहापोह कर रहे है उलट इन विवादों के कारण वही सम्मान नष्ट हो जाएगा। सम्मानजनक स्थिति को देखें तो हिंदी ब्लॉग जगत के विवादित मित्रों का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है।
जितना भी सम्मान सुरक्षा की ललक में हम उठापटक करेंगे सम्मान उतना ही छिटक कर हमसे दूर चला जाएगा।
मैं यह नहीं कह सकता कि मैं अहंकार से सर्वथा अलिप्त हूँ। यह दंभी दुर्गुण ही महाजिद्दी व हठी है। इसलिए सामान्यतया कम या ज्यादा सभी में पाया जाता है। इतना आसान भी नहीं कि संकल्प लेते ही जादू की तरह यह हमारे चरित्र से गायब हो जाय। किन्तु यह भी इतना ही सही है कि पुरूषार्थ से इस अहंकार का शनै शनै क्षय किया जा सकता है। निरन्तर जागृत अभ्यास आवश्यक है। अभिमान का शमन आपके सम्मान को अक्षय अजर बना सकता है।
निराभिमान गुण, सम्मानजनक चरित्र का एक ऐसा आधार स्तम्भ है जो सुदृढ़ तो होता ही है लम्बे काल तक साथ निभाता है।
हमारे अन्दर तो ये दुर्गुण बहुत ज्यादा है सुज्ञ जी| कई बार सोचा भी कि इससे छुट्टी पाई जाए लेकिन 'छूटता नहीं है ये काफिर खूं में रचा बसा'
जवाब देंहटाएंअजी, यही विनम्रता तो दुर्लभ है। मैं मूरख खल कामी ....
हटाएंसंजय जी, हठी अगर शक्कर देने से ही परास्त हो जाय तो क्यों विषप्रयोग करना :)
हटाएंचिंतन करें तो माया महीन पड़ती जाती है।
अलिप्त हुआ भी नहीं जा सकता है, मैं संलिप्त होने का प्रयास करता रहता हूँ।
जवाब देंहटाएंफिर क्यों न विनम्रता में संलिप्त रहा जाय :)
हटाएंजितना भी सम्मान सुरक्षा की ललक में हम उठापटक करेंगे सम्मान उतना ही छिटक कर हमसे दूर चला जाएगा।'
जवाब देंहटाएंउठापटक से परे है सम्मान
जी!! सारी उठापटक और उहापोह से निष्प्रभावी रहता है "सम्मान"
हटाएंसम्मान पाने का नशा होता है। सम्मान ख़ुद में एक नशा है। यह नशे में इतना गाफ़िल रहता हैकि जो इसके पीछे भागता है यह उससे दूर भागता है...और जो इससे दूर भागता है सम्मान उसके पीछे भागता है।
जवाब देंहटाएंविचारों को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बना लेना चाहिये। स्वस्थ्य विमर्ष ही समुद्र मंथन है।
सही कहा आपने, सम्मान अभिलाषा नशा है, लेखक अपने विचारों पर इतना मोहित और मदहोश हो जाता है कि स्वस्थ्य विमर्श करते करते कब व्यक्तिगत प्रतिष्ठा रूपी जुकाम से ग्रस्त हो जाता है उसे स्वयं पता नहीं चलता।
हटाएंसादर नमन ||
जवाब देंहटाएंसविनय नमन!!
हटाएंकिन्तु कविराज की काव्यमय आशु प्रतिक्रिया से यह लेख वंचित क्यों है?
रविकर को तरसें सभी,यदि उनको पा जांय,
हटाएंकुंडलिया,दोहे सभी बिन बादल बरसांय !
बिन बादल बरसांय गर हो उपजाऊ भूमि।
हटाएंयहां सूखा रेगिस्तान और है दुनिया सूनी॥
एम् टेक एड्मिसन लई, अरुण निगम सह पूत |
हटाएंमेजबान मेरे बने, पाया स्नेह अकूत |
पाया स्नेह अकूत, बिदाई हुई आज है |
था पहला कर्तव्य, हुआ संपन्न काज है |
रविकर है निश्चिन्त, करेगा नियमित दर्शन |
सादर सुज्ञ प्रणाम, करूं टिप्पण का सृजन ||
दम्भी ज्ञानी हर सके, साधुवेश में नार |
हटाएंनीति नियम ना सुन सके, झटक लात दे मार |
झटक लात दे मार, चाहता लल्लो-चप्पो |
झूठी शान दिखाय, रखे नित हाई टम्पो |
जाने ना पुरुषार्थ, करे पर बात सयानी |
करे शमन अभिमान, नहीं ये दम्भी-ज्ञानी ||
सबसे ज़रूरी बात लिखने के लिए यही है कि खुले मन से ,बिना किसी दुराग्रह के ,यदि हम कुछ लिख रहे हैं तो समाज और देश के लिए तो अच्छा होगा ही,हमें भी सुकून देगा ! हम अपने अजेंडे पर ही कायम रहें और सार्थक व स्वस्थ लेखन करते रहें तो ही हमारा लिखना सही मायने में लिखना होगा.लिखने का मतलब केवल पन्ने और जगह भरने से व अपने बने रहने के लिए बिलकुल नहीं होना चाहिए. अगर लिखने वाले होकर भी इतनी-सी बात समझ में न आ पाए तो काहे के लेखक ?
जवाब देंहटाएं...और अगर लिखने में अहंकार आ गया तो वह समाज के लिए घातक है !
संतोष जी बहुत जरूरी!!अपनी विचारधारा पर स्वस्थ विमर्श ही हमारे लेखन को सार्थक बना परवान चढ़ा सकता है। लेखन का प्रथम सरोकार समाज हित है। वह न तो विद्वान है न सही मायने में साहित्यकार जिसका लेखन समाज में अराजकता और विद्वेष-आक्रोश फैलाए। दर्प-युक्त मानसिकता से लिखना वाकई समाज के लिए घातक है !
हटाएंठीक निष्पत्ति है आपकी !
हटाएंअहंकार के साथ जो कुछ भी किया जायेगा वो हर तरह से नकारात्मक ही सिद्ध होता है.... सार्थक लेख
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा मोनिका जी,
हटाएंअहंकार प्रेरित कितना भी सद्कार्य किया जाय परिणाम निष्फल ही होगा।
sateek bat kahi hai aapne .ahm sab kuchh leel jata hai .aabhar
जवाब देंहटाएंसही कहा शिखा जी, अहं हमारे सभी गुणो और व्यक्तित्व तक को लील जाता है।
हटाएंtrue - is swaabhimaan kee khaal me lipte ahankar se, shaayd hi koi bachaa ho :(
जवाब देंहटाएंaabhaar - aatmvivechan karti hoon ....
जी, बहरूपिया यह घमण्ड अपने इस छ्द्म रूप के कारण ही सबसे उँचे सिंहासन 'नाक' पर आरूढ़ होता है।
हटाएंसुन्दर आलेख, अनुकरणीय विचार। आभार!
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रतिक्रिया के लिए आभार अनुराग जी।
हटाएंबिल्कुल सही कहा है आपने ... हर बात में 'मैं' और 'अहम' में लिप्त होता मानव मन सब कुछ पाकर भी खो देता है ... इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंसटीक बात!! सदा जी, अहम् ग्रस्त होकर व्यक्ति सहज प्राप्त सम्मान को भी खो बैठता है।
हटाएंआभार आपका!!
समसामयिक चर्चा.... बहुत जरूरी था ब्लॉग जगत में कटुता फैलाने वालों को दर्पण दिखाना...
जवाब देंहटाएंमुझे पिछले वर्ष के 'अन्ना आन्दोलन' की याद हो आयी...
जिसमें 'भ्रष्टाचार' से त्रस्त भी शामिल थे और 'भ्रष्ट' भी ...
सभी एक स्वर में बोंल रहे थे .... 'तू भी अन्ना, मैं भी अन्ना'.
दूसरी बात,
होली पर जैसे अपने सारे गिले-शिकवे भुलाकर लोग परस्पर गले मिलते हैं....
आपकी ये पोस्ट 'होली-मंगल मिलन सामारोह' बन गयी है.
आगंतुकों की संक्षिप्त टिप्पणियों से प्रतीत हो रहा है कि लोग मन ही मन सब जानते हैं और शायद शर्मिन्दा भी हैं.
आपका ये प्रेरक सन्देश इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि सन्देश प्रेरक को खींच लाया है.
@बहुत जरूरी था ब्लॉग जगत में कटुता फैलाने वालों को दर्पण दिखाना...
हटाएंदर्पण दिखाने का उपक्रम करते हुए मुझे प्रथम अपना ही चहरा दिखा :)
तभी मैने महसुस किया कि हमाम में सभी……… :)
मैने सभी के साथ खड़े होकर दर्पण देखा :(
मुझे साक्षात्कार हुआ कि अहंकार का अंकुर कैसा होता है!! मैने साझा करना उचित समझा। आपका भी स्वागत है,आप भी सक्षात्कार कर लें :)
दर्पण दिखाने का उपक्रम करते हुए मुझे प्रथम अपना ही चेहरा दिखा :)
हटाएं@ दर्पण दिखाने वाले दर्पण के पीछे होते हैं.... वे कैसे अपना चेहरा देख सकते हैं? :(
और दर्पण पारदर्शी नहीं होते जो अपने दोनों तरफ खड़े 'दर्पकों' को अपना-अपना चेहरा दिखा पायें. :)
मैने सभी के साथ खड़े होकर दर्पण देखा :(
@ पहले दिखाया और बाद में देखा या फिर दर्पण लगाकर सबके साथ मिलकर देखा?
आपका भी स्वागत है,आप भी सक्षात्कार कर लें :)
@ आत्म-साक्षात्कार विनम्रता की इस प्रतियोगिता में भाग नहीं लूँगा... मैं तो अलग से दर्पण देखूँगा.... अभी मुझमे 'दर्प' शेष है.
हमाम में सभी ...... :)
@ एक कोपीनधारी को आपने शायद नहीं देखा? .... :)
@ दर्पण दिखाने वाले दर्पण के पीछे होते हैं.... वे कैसे अपना चेहरा देख सकते हैं? :(
हटाएंदर्पण दिखाने को उद्धत व्यक्ति को बहुत से व्यवहार करने होते है, दर्पण की सत्यता का परिक्षण भी करना होता है।
@ पहले दिखाया और बाद में देखा या फिर दर्पण लगाकर सबके साथ मिलकर देखा?
पहले देखा परखा, फ़िर दिखाया और आत्मविश्वास के लिए मिलकर भी देखा। :)
@ आत्म-साक्षात्कार विनम्रता की इस प्रतियोगिता में भाग नहीं लूँगा... मैं तो अलग से दर्पण देखूँगा.... अभी मुझमे 'दर्प' शेष है.
दर्प शेष हों तभी दर्पण की आवश्यकता है, अशेष होने पर क्या जरूरत? साक्षात्कार प्रयोग में दर्पण से दर्प छूट जाता है और मन पर्ण सा हलका फूल हो जाता है। :)
उलझाव यदि इस तरह सुलझा दिये जायेंगे तो मैं हमेशा उलझावों के जतन करता रहूँगा. सुलझने में कितना सुख है!! अहहहा!!!
हटाएं'ताले' न लगाकर रखना श्रेष्ठ चिन्तक का आत्मविश्वास दर्शाता है....
'तर्क और प्रतितर्क' करने की कला आपसे सीखनी ही होगी.... इतने विनम्र तर्क ... स्वतः विनत कर देते हैं.
आपकी आध्यात्मिक साधना अत्यंत व्यवहारिक है.
कुतर्की और हठी बुद्धि वाले मैदान छोड़ने को विवश हो जाते हैं.
गुरु वही प्रिय होता है जो भटके हुओं को मार्गदर्शन कराता हुआ स्वयं भी उनके साथ रहता है.
प्रतुल जी,
हटाएंइस पोस्ट का यही निहितार्थ है। हम अपनी आत्मा को द्वेष-भावों से क्यों गुरू(भारी)करें, विनम्रता से गुरूता जब स्वयं चली आती हो!!
शास्त्री जी बहुत बहुत आभार आपका!!
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट देखकर ख़ुशी हुई.
जवाब देंहटाएंब्लॉगर्स ने भी इसका संज्ञान लिया.
ऐसा लिखना ज़रूरी है
...ताकि बचा रहे ब्लॉग परिवार Blog Parivar
@DR. ANWER JAMAL, गुण अभिवर्धन को तत्पर ब्लॉगर्स तो सदैव संज्ञान लेते ही है।
हटाएंबल का दम्भ बुरा है, धन का दम्भ बहुत बुरा किन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
सुशील जी, सूक्ष्म प्रेक्षण के लिए आभार
हटाएं@जितना भी सम्मान सुरक्षा की ललक में हम उठापटक करेंगे सम्मान उतना ही छिटक कर हमसे दूर चला जाएगा।
जवाब देंहटाएंएक दम सही कहा सुज्ञ जी .. एक शिक्षाप्रद लेख !
आभार गौरव जी,
हटाएंदयनीयता से आकांक्षा अक्सर पूर्ण नहीं होती।
किन्तु यह भी इतना ही सही है कि पुरूषार्थ से इस अहंकार का शनै शनै क्षय किया जा सकता है। निरन्तर जागृत अभ्यास आवश्यक है। अभिमान का शमन आपके सम्मान को अक्षय अजर बना सकता है।
जवाब देंहटाएंसौ बात की एक यही बात है . सम्मान पर जोर जबरदस्ती नहीं चलती , वह आपके व्यवहार को देखकर स्वतः उपजता है !
थोडा बहुत दंभ अभिमान हम सबमे होता है , यदि हम उस पर नियंत्रण ना रख सके तो स्वाभिमान अभिमान में बदलते देर नहीं लगती!
वाणी जी, सार है यह "नियंत्रण ना रख सके तो स्वाभिमान अभिमान में बदलते देर नहीं लगती!"
हटाएंवाणीजी...ठीक कहे हैं !
हटाएंकितना सूक्ष्म विवेचन है ... अक्षरशः सत्य
जवाब देंहटाएंरश्मि प्रभा जी, समर्थन प्रोत्साहन के लिए आभार,
हटाएंइंडिया दर्पन, प्रोत्साहन के लिए आभार
जवाब देंहटाएंसम्मान और अपमान की कभी चिंता नहीं की। अपनी धुन में चलता रहा हूं- हमेशा नई पहल के लिए तैयार!
जवाब देंहटाएंअच्छी बात है कुमार जी, और इसी के साथ साथ हमारे वचनो से कोई आहत न हो सजग रहना पडता है। आभार!!
हटाएंधन्यवाद इस चिंतन निर्झरिणी का अवगाहन करने/ करवाने के लिए .
जवाब देंहटाएंवस्तुतः हम सभी अपने अपने दिमागी कुँए के मेंडक है, जितना हमने अर्जित किया है उसी को पूर्ण मानकर दूसरों के ऊपर थोपने का प्रयास करते है, जो दूसरे को स्वीकार्य ना होने पर हमारा अहम् चोटिल होता है .
लेखकीय स्वाभिमानता वस्तुतः कोई चीज है नहीं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो जानता, मानता, बोलता और लिखता है वह उसका स्वयं का मौलिक कुछ है ही नहीं वह तो परंपरा से प्राप्त हुआ है. जितना पड़ेगा गुनेगा उतना ही चिंतन करेगा और विचारों को प्रस्तुत करेगा पर फिर भी उसका चिंतन उसका नहीं है, और जो हमारा नहीं है उसे अपना मानकर और उसे ही श्रेष्ठ मानकर चलना स्वाभिमान नहीं कोरा अहंकार-पूर्त वितंडतावाद है .
अपने मत का दुराग्रह तो परस्पर वैमनस्य को ही बढावा देगा, इसलिए चिंतन को सर्वोन्मुखी बनाते हुए सदा अपने आपको आध्यधित रखने का उपक्रम करना चाहिये, चाहे कितनी भिन्नता क्यों ना हो परस्पर मान्यताओं में . शालीनता का त्याग तो कदापि स्वीकार्य नहीं है .
अमित जी बहुत ही यथार्थ कहा………
हटाएं"व्यक्ति जो जानता, मानता, बोलता और लिखता है वह उसका स्वयं का मौलिक कुछ है ही नहीं वह तो परंपरा से प्राप्त हुआ है."
वस्तुतः ज्ञान श्रुति स्मृति परम्परा अन्य के अवदान से अनुभवजन्य ज्ञान होता है। जिसमें हमारा मौलिक कुछ भी नहीं। कृपा प्रदत्त ज्ञान पर हमारा दम्भ कुछ "चाय से किटली अधिक गर्म" जैसा होगा।
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति । मेरी कामना है कि आप अहर्निश सृजनरत रहें । मेरे नए पोस्ट अमीर खुसरो पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रेम जी आभार!!
हटाएंसम्मान पाने का अपना एक नशा होता है। मनुष्य सम्मान पाने के नशे में इसके पीछे भागता है यह उससे दूर भागता है...और जो इससे दूर भागता है सम्मान उसके पीछे भागता है।
जवाब देंहटाएंविचारों को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिये। स्वस्थ्य विचार विमर्ष ही समुद्र मंथन है।,....
पोस्ट पर आने के लिये आभार,
आपका समर्थक बन गया हूँ आपभी बने तो मुझे तो मुझे खुशी होगी,.....
RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
अभिमानी व्यक्ति निरर्थक और उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अनावश्यक परिश्रम से भी अन्तत: कलह व झगड़ा ही उत्पन्न करता हैं।
हटाएंबहुत सार्थक आलेख लिखा है ...!सीख दे रहा है |
आभार ..!
धीरेंद्र जी आभार!! सही कहा स्वस्थ विमर्श ही मंथन परिमार्जन के योग्य है।
हटाएंअनुपमा जी,
हटाएंबहुत बहुत आभार!!
बल का दम्भ बुरा है, धन का दम्भ बहुत बुरा किन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है।
जवाब देंहटाएं.....बहुत सार्थक और सारगर्भित आलेख...आभार
कैलाश जी, प्रोत्साहन के लिए आभार
हटाएंसीमा जी, आपका आभार
जवाब देंहटाएंसदाचारों की महक, प्रसरे बिन प्रपंच।
जवाब देंहटाएंरविकर स्नेह से सजी,यह पोस्ट चर्चामंच॥
aapki lekhan drishti nayab hai...bhale aap khud ko is lekhan ka karta na kahen...kintu is drishti ke karta to aap hi hai
जवाब देंहटाएंअंकुर जी, आभार आपका!!
हटाएंकिन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है....
जवाब देंहटाएंसच है लेख पढ़कर आनंद आ गया भाई जी !
बेहद अफ़सोस है कि इतनी बेहतरीन रचना तक पंहुचने में इतना समय लगा ! लगता है अपना इलाज़ करना पड़ेगा ....
:(
आभार भाई जी,
हटाएंप्रबुद्धजन जरा फुर्सत से गहन अवलोकन करते है।:)
यही आत्म लोचन भी है मार्ग दर्शक भी आम औ ख़ास के लिए .फिर ब्लोगर चिठ्ठाकार ही होता है आम औ ख़ास ब्लोगिया नहीं.अच्छी पोस्ट सामयिक संदर्भो से रु -बा -रु .
जवाब देंहटाएंआभार, वीरूभाई!!
हटाएंविचारों को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिये।
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट "कबीर" पर आपका स्वागत है । धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसहमत हूं सर जी!
जवाब देंहटाएंबल का दम्भ बुरा है, धन का दम्भ बहुत बुरा किन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है।
जवाब देंहटाएंबड़ा कलेवर और निहितार्थ हैं इस पोस्ट के सर्वजन हिताय ब्लोगर सुखाय .
निरन्तर जागृत अभ्यास आवश्यक है। अभिमान का शमन आपके सम्मान को अक्षय अजर बना सकता है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
अभिमान के शमन के लिए स्वयं को यथार्थ रूप से जानना जरूरी है.
श्रीमद्भगवद्गीता में इसे 'अध्यात्म नित्या' कहा गया है.
स्वीकृतिः-
जवाब देंहटाएंमैं यह नहीं कह सकती कि मैं अहंकार से सर्वथा अलिप्त हूँ।
हाँ, हूँ मैं
पर पता नही किसने बनाया
लगता है मुझे मेरी कार्य क्षमता नें यह कार्य किया है
पर ये मात्र ऑफिस तक ही सीमित है
bahut achhe.......
जवाब देंहटाएंpranam.
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