चिंतन के चट्कारे
- कर्तव्यनिष्ठ हुए बिना सफलता सम्भव ही नहीं।
- प्रतिभा अक्सर थोडे से साहस के अभाव में दबी रह जाती है।
- यदि मन स्वस्थ रहे तो सभी समस्याओं का समाधान अंतरस्फुरणा से हो जाता है।
- संसार में धन का,प्रभुता का,यौवन का और बल का घमंड़ करने वाले का अद्यःपतन निश्चित है।
- सच्चा सन्तोषी वह है जो सुख में अभिमान न करे, और दुःख में मानसिक वेदना अनुभव न करे।
- धन के अर्जन और विसर्जन दोनों में विवेक जरूरी है।
- असफलता के अनुभव बिना सफलता का आनंद नहीं उठाया जा सकता।
- संतोष वस्तुतः मन के घोड़ों पर मानसिक लगाम है।
- संतोष अभावों में भी दीनता व हीनता का बोध नहीं आनें देता।
- सन्तोष का सम्बंध भौतिक वस्तुओं से नहीं, मानसिक तृप्ति से है।
- स्वाभिमान से जीना है तो सन्तोष को मानस में स्थान देना ही होगा। वर्ना प्रलोभन आपके स्वाभिमान को टिकने नहीं देगा।
स्वाभिमान से जीना है तो सन्तोष को मानस में स्थान देना ही होगा। वर्ना प्रलोभन आपके स्वाभिमान को टिकने नहीं देगा।
जवाब देंहटाएंbahut prerak pankti.aabhar.
chintan chintan yogya hai...!!!
जवाब देंहटाएं@--कर्तव्यनिष्ठ हुए बिना सफलता सम्भव ही नहीं।
जवाब देंहटाएं@--यदि मन स्वस्थ रहे तो सभी समस्याओं का समाधान अंतरस्फुरणा से हो जाता है।
समस्या समय की जो हल कर चले-
जानिए जिंदगी वे सफल कर चले.
अगर दौर मुश्किल का आये भी तो
सदा धैर्य पथ पर संभल कर चले .
दशा राहु-मंगल-शनि की सदा-
आत्म पुरुषार्थ से वे विफल कर चले.
क्रूर तूफान की जब भवर में फंसे-
डोर 'रविकर' मिली तो निकल कर चले
जान जाये तो जाये हमें छोड़ कर
नज्मे-गुलशन खिला दिल-बदल कर चले.
यदि मन स्वस्थ रहे तो सभी समस्याओं का समाधान अंतरस्फुरणा से हो जाता है
जवाब देंहटाएंbilkul sahi bat .aabhar
bahut achchhi post.
जवाब देंहटाएंBAHOT...BAHOT...ACHHI SRINKHLA.......CHALU RAHE...
जवाब देंहटाएंPRANAM.
बहुत सच्ची बात और बहुत उपयोगी...
जवाब देंहटाएंएक-एक सूक्ति अत्यंत ही प्रेरक हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और प्रेरक पोस्ट..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विचार हैं..
जवाब देंहटाएंउपयोगी सूक्तियां
जवाब देंहटाएंइतनी बड़ी-बड़ी बात एक साथ पढ़ कर हजम कर पाना मुश्किल होता है.
जवाब देंहटाएंकथनों के लिये धन्यवाद। आज के लिये हमने निम्न कथन पकडा है:
जवाब देंहटाएंधन के अर्जन और विसर्जन दोनों में विवेक जरूरी है
आभार ..!!
जवाब देंहटाएंमन प्रसन्न हुआ पढ़ कर ...!!
सन्तोष का सम्बंध भौतिक वस्तुओं से नहीं, मानसिक तृप्ति से है।
जवाब देंहटाएंI liked it most.
A full of inspiration post.
सर जी ...उत्तम विचार....पढ़कर मन प्रसन्न हुआ. सुविचारित और अर्थपूर्ण लेख के लिए आपका आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी बाते कई आप ने धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसार्थक और प्रेरक सूक्तियां.
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन...
जवाब देंहटाएंजब आवे संतोष धन, सब धन धूरी (धूल) समान है ।
इस दोहे की प्रथम पंक्ति यदि आपकी जानकारी में आ रही हो तो कृपया अवश्य बतावें ।
मेरी पोस्ट पर आपके उत्तम शेर की प्रस्तुति के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद सहित...
@ सुशील बकलीवाल जी:
जवाब देंहटाएंगोधन, गजधन, बाजि धन, सब रतनन की खान,
जो पावे संतोष धन, सब धन धूरि समान।
सुज्ञ जी, कृपया पुष्टि करें:)
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चिंतन चटकारों के हम चटोरे हुये जा रहे हैं। सभी सूत्र एक से बढ़कर एक।
संजय जी,
जवाब देंहटाएंदोहा पूर्ती सही ही है।
ज्यों श्रेष्ठ स्वाद्युक्त भोज्य पदार्थ के बाद स्वाद के चटकारे में विशेष आनंद होता है, वैसे ही बौद्धिक प्राशन के बाद सारयुक्त चिंतन अधिक आनंद देने वाला होता है।
सार्थक चिंतन... सार्थक विचार ...
जवाब देंहटाएंआदरणीय सुज्ञ जी ,
जवाब देंहटाएंइतनी सारी जीवनोपयोगी बातें या आदर्श ज़िदगी के सूत्र पढ़कर मन आनंदित हो उठा | सब की सब लिख कर रख लेने वाली हैं , ताकि हम इन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयास कर सकें |
आपने बहुत अच्छे मुद्दे को अपनी रचना में पिरोया उठाया है। चरित्र संकट आज एक विकट चुनौती है। हमारी संग्रह करने की वृत्ति दूसरों के कष्टों को बढ़ाती है। मनोवृत्तियों को संयमित करने वाले कार्यक्रमों को जोड़ने की जरूरत है। नीचे अपरिग्रह और अस्तेय संबंधी कुछ सूत्र दे रहा हूँ।
जवाब देंहटाएं=================================
"चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि। अन्नं वा अणुजाणाइ एव्रं दुक्खाण मुच्चइ॥"
जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता।
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"सवत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खणपरिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं॥"
ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं।
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"जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं॥"
ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।' पहले केवल दो मासा सोने की जरूरत थी, बाद में वह बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई, फिर भी पूरी न पड़ी!
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"निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं। न हरति पन्न च दत्ते तदकृशचौर्य्यादुपारमणं।"
जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए पर-द्रव्यको नहीं हरता है, न दूसरों को देता है सो स्थूल चोरी से विरक्त होना अर्थात् अचौर्याणुव्रत है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
डॉ० डंडा लखनवी,
जवाब देंहटाएंसभी सूत्र, जीवन चरित्र के लिए शास्वत सूत्र है। आपने यहां प्रस्तुत कर अपूर्व लाभ प्रदान किया है।
प्रतिभा अक्सर थोडे से साहस के अभाव में दबी रह जाती है।
जवाब देंहटाएंसारे ही सूत्र मनन करने योग्य हैं पर ये सूक्ति खासकर मन को छू गयी....सच है प्रतिभा के साथ थोड़े से साहस की मिलावट होनी ही चाहिए
.
सार्थक चिन्तन से निकले जीवन सूत्र। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी ने इस पोस्ट में लाइफ के फंडों का स्टोक दिया है संभाल के रखने योग्य है
जवाब देंहटाएंइन सभी में बेहतरीन फंडों में से जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है
@प्रतिभा अक्सर थोडे से साहस के अभाव में दबी रह जाती है।