2 मार्च 2011

आहार आवास और आवरण की उच्छ्रंखलता



मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ है, आहार आवास और आवरण (वस्त्र)। इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही मानव प्रकृति का दोहन करता है। लेकिन जब तक वह इनका अपनी जरूरतों तक सीमित उपभोग, संयमपूर्वक करता है तब तक प्रकृति उसकी सहयोगी बनी रहती है। लेकिन जब वह अपनी आवश्यकताओं का अतिक्रमण करने लगता है, उपयोग कम और व्यर्थ अधिक करने लगता है, तृष्णाधीन होकर संग्रह के माध्यम से वस्तुओं को अनावश्यक सडन-गलन में झोंक देता है। संयम और अनुशासन को भूल, अनियंत्रित और स्वछंद भोग-उपभोग करता है। मानव की स्वयं की प्रकृति, विकृति में रूपांतरित हो जाती है, तब प्रकृति अपना सहयोग गुण तज देती है और मानव का अपना असंयम ही उसके अस्तित्व शत्रु साबित होता है।

मनुष्य सर्वाधिक हिंसा और प्रकृति का विनाश अपनी आहार जरूरतों के लिये करता है। किन्तु अपने आहार-चुनाव में ही उसे सर्वाधिक संयम और अनुशासन की आवश्यकता होती है।

दुखद पहलू यह है कि कथित प्रगतिशील, इन तीनों (आहार आवास और आवरणमें स्वतंत्रता-स्वच्छंदता के पक्षधर होते है, और स्वांत संयम के घोर विरोधी। वे असंयमित भोग उपभोग को बल देते है। वे मानवीय तृष्णा की अगन ज्वाला को निरन्तर प्रदीप्त रखने का दुष्प्रचार करते है। भोगी संस्कृति के प्रसारक न केवल प्रकृति-द्रोही बल्कि मानवता विरोधी भी हैं।

23 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक सोच...अगर हम प्राकृतिक साधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन करेंगे तो इसका परिणाम भविष्य के लिए बहुत अनिष्टकारी होगा..

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  2. मैं तो हर रोज़ प्रकृति का दोहन देख रहा हूँ और इअमें भागीदार भी बनता जा रहा हूँ.. मेरी नौकरी की माँग है यह.. लेकिन यह दोहन भोजन, वस्त्र एवम् आवास के लिये नहीं, बल्कि पैसे बनाने के लिये हो रहा है... दोषी हूँ प्रकृति का..लेकिन विवश भी!!

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  3. सलिल जी,

    पैसा आखिर तो माध्यम ही है, आहार,आवास और आवरण प्राप्त करने का। इन वस्तुओ के अलावा आदमी कहाँ पैसा इन्वेस्ट करेगा?

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  4. अपने आहार-चुनाव में ही उसे संयम और अनुशासन की आवश्यकता है।
    आपसे बिल्कुल सहमत हूं।

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  5. एकदम सही कहा है आपने सुज्ञ जी.
    आपसे पूरी तरह सहमत.

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  6. @सुज्ञ जी
    हमेशा की तरह सुन्दर और प्रभावी लेख
    मुझे भी ऐसा सारगर्भित लिखना सिखाइए :))

    सीधी सी बात पहले भी कही है और अब भी कहता हूँ .. अगर किसी को संयम , संस्कार , परंपरा जैसे शब्द चुभते हैं तो वो एक सेंटर पॉइंट चुन ले........ जो है "स्वास्थ्य"

    मतलब कपडे मौसम के अनुसार हो, फैशन के अनुसार नहीं
    आहार भी मानव शरीर के अनुसार (मतलब शाकाहार ही श्रेष्ठ है )
    http://michaelbluejay.com/veg/natural.html

    मतलब हर बात के पीछे लोजिक सही होना चाहिए लेकिन लोग तो जब समझेंगे तभी समझेंगे :)

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  7. भारत में तो बढ़ती जनसंख्या ने हाहाकार मचा दिया है..

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  8. अच्छा लगता है आपको पढना हर बार ही , बहुत ही प्रभावशाली लिखा है आपने , शुक्रिया

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  9. प्राकृतिक साधनों कि भविष्य में क्या आवश्यकता होगी , हम स्वार्थियों और अविवेकी लोगों को सोंचने कि क्या जरूरत है भाई जी ! शुभकामनायें आपको !

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  10. महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें.

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  11. आपसे पूरी तरह सहमत....आपकी हर पोस्ट सार्थक सोच की राह सुझाती है.... आभार

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  12. क्‍या इस तरह समझें - 'उपयोग करें, दोहन नहीं'

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  13. अपनी जरूरतों को एक सीमा में हम बांधते ही नहीं बल्कि हमें तो अधिक से अधिक पाने और साधनों का दोहन करने की लालसा होती है, ये सब मूलतः प्रकृति विरोधी ही है । एक विचारणीय प्रश्न ! धन्यवाद ...

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  14. क्‍या इस तरह समझें - 'उपयोग करें, दोहन नहीं'

    aise samjhao to koi bat bane......

    pranam.

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  15. बहुत ही सार्थक आलेख है.
    शायद मनुष्य इस मामले में जानवरों से भी गया गुजरा है.
    सलाम.

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  16. सार्थक आलेख। आपने सही लिखा है। आजकल तो लोग क्या-2 कर रहे हैं बस पूछो ही मत। जो चीज़ भी मिलती है उसी का दुरुपयोग शुरू कर देते हैं। अपने ज्ञान का भी तो लोग उपयोग की जगह दुरुपयोग करते हैं।

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  17. कुत्सित मानसिकता का ही परिचायक है प्रकृति का दोहन .काश !आप जैसे संत के सात्विक विचारों पर सभी ध्यान दे पावें तो कल्याण हो सभी का .प्रभु से प्रार्थना है की ब्लॉग जगत में भी ऐसे संत समाज का विकास हो कि समस्त समाज की सोच ही सकारात्मक हो जाये.

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  18. bahut hi badiya,teeno hi aadmi ki jarurte hai

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  19. @क्‍या इस तरह समझें - 'उपयोग करें, दोहन नहीं'

    बिलकुल, राहुल जी!!

    बस एक शब्द जोडते हुए… 'संयमित उपयोग करें, दोहन नहीं'

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  20. अपसे शत प्रतिशत सहमत। सार्थक चिन्तन। शुभकामनायें।

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