कस्बे में दो पडौसी थे, सोचविहारी और जडसुधारी, दोनो के घर एक दिवार से जुडे हुए,दोनो के घर के आगे बडा सा दालान। दोनो के बीच सम्वाद प्राय: काम आवश्यक संक्षिप्त सा होता था। बाकी बातें वे मन ही मन में सोच लिया करते थे।जाडे के दिन थे, आज रात उनकी अलाव तापने की इच्छा थी, दोनो ने लकडहारे से जलावन लकडी मंगा रखी थी।
देर शाम ठंडी के बढते ही दोनों ने अपने अपने यहाँ अलाव जलाने की तैयारियाँ शुरू की। सोचविहारी लकडीयां चुननें लगे, लकडियां चुनने में सोचविहारी को ज्यादा समय लगाते देख जडसुधारी ने पुछा- इतना समय क्यों लगा रहे है। सोचविहारी नें कहा- लकडियां गीली भी है और सूखी भी, मैं सूखी ढूंढ रहा हूँ। जडसुधारी बोले-गीली हो या सूखी जलाना ही तो है, सूखी के साथ गीली भी जल जायेगी। सोचविहारी नें संक्षिप्त में समझाने का प्रयास किया- सूखी जरा आराम से जल जाती है।
जडसुधारी नें तो अपने यहां, आनन फ़ानन में एक-मुस्त लकडियां लाई और नीचे सूखी घास का गुच्छा रखकर चिनगारी देते सोचने लगा- कैसे कैसे रूढ होते है, गीली लकडी में जान थोडे ही है जो छांटने बैठा है, सोचना क्या जब जलाने बैठे तो क्या गीली और क्या सूखी?लकडी बस लकडी ही तो है।
उधर सोचविहारी सूखी लकडी को चेताते सोचने लगा- अब इसे सारे कारण कम शब्दों में कैसे समझाउं गीली और सूखी साथ जलेगी तो ताप भी सही न देगी, भले कटी लकडी निर्जीव हो पर उसपर कीट आदि के आश्रय की सम्भावना है, मात्र थोडे परिश्रम के आलष्य में क्यों उन्हें जलाएं। और गीली जलेगी कम और धुंआ अधिक देगी। कैसे समझाएं, और समझाने गये तो समझ नाम से ही बिदक जायेगा। वह स्वयं को थोडे ही कम समझदार समझता है?
दोनो के अलाव चेत चुके थे। सोचविहारी मध्यम उज्ज्वल अग्नी में आराम से अलाव तापने लगे, उधर जडसुधारी जी अग्नी में फूंके मार मार कर हांफ़ रहे थे, जरा सी आग लग रही थी पर बेतहासा धुंआ उठ रहा था। तापना तो दूर धुंए में बैठना दूभर था।
जडसुधारी के अलाव का धुंआ, आनन्द से ताप रहे सोचविहारी के घर तक पहूंच रहा था और उन्हें भी परेशान विचलित किये दे रहा था। सोचविहारी चिल्लाए- मै न कहता था सूखी जलाओ…
जडसुधारी को लगा कि यह सोचविहारी हावी होने का प्रयास कर रहे है। वे भी गुर्राए- समझते नहीं, सदियों की जमी ठंड है,गर्म होने में समय लगता है। सब्र और श्रम होना चाहिए। सब कुछ चुट्कियों में नहीं हो जाता। आग होगी तो धुंआ भी होगा। देखना देर सबेर अलाव अवश्य जलेगा। कहकर जडसुधारी, धुंए और सोचविहारी के प्रश्नों से दूर रज़ाई में जा दुबके।
प्रतीक:
- सोचविहारी: परंपरा संस्कृति और विकास सुधार को सोच समझकर संतुलित कर चलने वाला व्यक्तित्व।
- जडसुधारी: रूढि विकृति और संस्कृति को एक भाव नष्ट कर प्रगतिशील बनने वाला व्यक्तित्व।
- अलाव: सभ्यता,विकास।
- गीली लकडी: सुसंस्कृति, आस्थाएं।
- सूखी लकडी: रूढियां, अंधविश्वास।
- धुंआ : अपसंस्कृति का अंधकार
प्रेरक और सुंदर रूपक.
जवाब देंहटाएंसुन्दर सोच का परिचायक ।
जवाब देंहटाएंकैसे समझाएं, और समझाने गये तो समझ नाम से ही बिदक जायेगा। वह स्वयं को थोडे ही कम समझदार समझता है ?
जवाब देंहटाएं:-))
वाकई जड्सुधारी को कोई नहीं समझा सकता ...शुभकामनायें आपको !
वैसे आपने कई प्रतीक बताए हैं लेकिन इसमें जल्दबाजी और अनुभवी के दर्शन होते हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर बोधकथा. मुझे जो बात सबसे ज्यादा तंग करती है वो ये है की सोचविहारी और जड़सुधारी दोनों को साथ साथ रहना है. जड़सुधारी तो धुंए को अपरिहार्य मान मजे में रजाई में दुबके रहेंगे पर सोच विहारी अपने तमाम अनुभव और अच्छे कर्मों के बावजूद इस अनावश्यक कष्ट की वजह से और भी ज्यादा तड़पते रहेंगे.
जवाब देंहटाएंनोट : मेरे उपरोक्त विचार आपके लेख को पढ़ कर ही उत्पन्न हुए हैं जिन्हें मैं "तेरा तुझको अर्पण" वाली तर्ज पर यहाँ टिपण्णी रूप में दर्ज कर रहा हूँ. इस टिपण्णी के पीछे कोई अन्य छिपा हुआ मंतव्य नहीं है. आप इसे उधार में दी गयी टिपण्णी समझ कर प्रतिउत्तर में मेरे ब्लॉग पर टिपण्णी करने के लिए बाध्य नहीं हैं.
सुन्दर प्रेरक रचना..
जवाब देंहटाएंप्रेरक बातें कही है आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बिम्बों को लेकर रची एक प्रेरणादायी कथा ..... सार्थक
जवाब देंहटाएंअद्भुद अद्भुद अद्भुद !!!!!!
जवाब देंहटाएंलेकिन तभी जब तक कोई इसका गलत अर्थ ना निकाले :))
इस कथा ने दिल की एक बात कह ही दी , मेरे साथ हमेशा ये समस्या होती है
@ सारे कारण कम शब्दों में कैसे समझाउं
:))
एक कहानी मैं भी सुनाऊंगा .. सब ध्यान से पढना ....ठीक है ना ! :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर और प्रेरक बोधकथा.
जवाब देंहटाएंमुझे पात्र परिचय याद नहीं बहुत पहले पढी थी , अंदाजे से लिख रहा हूँ ...... मूल भाव पर ध्यान दीजियेगा
जवाब देंहटाएं~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कोई विद्वान थे | वे रोज पूजा करते थे , मुश्किल से पांच दस मिनट के लिए करते होंगे , लेकिन एक दम तल्लीन हो कर
उनके कोई मित्र थे जो इश्वर में यकीन नहीं रखते थे | वो रोज ये बात देखते |
एक दिन मित्र बोले "आप रोज पूजा करते हैं , कभी आपने सोचा है की क्या होगा अगर इश्वर का अस्तित्व ही ना हुआ ? , आपका कितना समय व्यर्थ चला जायेगा !"
[विद्वान सत्संगी थे , अपनी बात कहने की कला जानते थे]
विद्वान ने मुस्कुराते हुए लम्बी सांस ली और फिर बोले "अगर इश्वर ना हुए तो मेरे तो दिन के १० १५ मिनट ही व्यर्थ होंगे और अगर इश्वर हुआ तो आपका तो पूरा जीवन ही व्यर्थ हो जायेगा! है ना ! "
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
स्पष्टीकरण : यहाँ जीवन व्यर्थ होने से आशय अँधेरे में पूरा जीवन काट देने से है , मतलब जीवन में किसी भी रस (यहाँ भक्ति रस ) की कमीं क्यों हो ? ऐसा होने पर वो अधूरा रह जायेगा ना ! और अधूरा जीवन व्यर्थ कहा जा सकता है ! ये स्पष्टीकरण इसलिए क्योंकि अक्सर इन्ही बातों का गलत मतलब निकाल लिया जाता है
अच्छी लगी रचना ।
जवाब देंहटाएंलौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप
अब देखिएगा विद्वान के तो दोनों हाथों में लड्डू हैं (मतलब दो तरफ़ा फायदा है)
जवाब देंहटाएंइश्वर ना हुआ तो भी स्वास्थ्य लाभ
इश्वर हुआ तो स्वास्थ्य लाभ + भक्ति रस
http://stason.org/TULARC/health/alternative-medicine/Prayer-Health-Benefits.html
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक प्रस्तुति .विचारणीय आलेख.आभार.....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया बोध कथा.
जवाब देंहटाएंचलो अलाव तो जलता रहा.
सलाम.
बहुत अच्छी बोध कथा
जवाब देंहटाएंआभार
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंjai ho...
जवाब देंहटाएंpranam.
सुज्ञ के नहले पर ग्लोबल गौरव का दहला -मन गए भाई आप लोगों की जुगलबंदी को!
जवाब देंहटाएंप्रेरक कथा
जवाब देंहटाएंपोस्ट बहुत पसन्द आयी
प्रणाम स्वीकार करें
ग्लोबल अग्रवाल जी की कथा भी बहुत सुन्दर है।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
प्रेरक सुन्दर लघु कथा। आभार।
जवाब देंहटाएंप्रतीकों ने बहुत कुछ कह दिया..
जवाब देंहटाएंराजेश जी,
जवाब देंहटाएंआभार!!
वंदनाजी,
सराहना प्रेरणावर्धक है।
सतीश जी,
उत्तम सुधार में भी ईगो से जडता आती है। आपने सही कहा!!
अजित जी,
जडता से सुधार लागु करना उतावलापन, और हित अहित सोच-समझ कर आगे बढना अनुभवीपन है।
दीपक पाण्डेय जी,
जवाब देंहटाएंअपसंस्कृति का धुंआ (सांस्कृतिक प्रदूषण)फिर मात्र फैलाने वाले को ही परेशान नहीं करता समरूप से सभी को प्रभावित करता है। रज़ाई में दुबकने (पलायन) से भी जड्सुधारी प्रदुषण मुक्त न रह पाएंगे।
कैलाश जी,
जवाब देंहटाएंमनोजकुमार जी,
दृष्टांत की सराहना के लिये आभार!!
डॉ मोनिका जी,
धन्यवाद इस प्रोत्साहक शब्दों के लिये!! निर्विवाद बिंब है न!!
@लेकिन तभी जब तक कोई इसका गलत अर्थ ना निकाले :))
जवाब देंहटाएंग्लोबल जी,
>>सार्थक प्रतीकों नें गलत अर्थ की सम्भावनाएँ कम कर दी है।
इस कथा ने दिल की एक बात कह ही दी , मेरे साथ हमेशा ये समस्या होती है
@ सारे कारण कम शब्दों में कैसे समझाउं
>> कथित प्रगतिवादीयों को विकसितवाद ईगो के कारण यह बात कभी समझ नहीं आती कि पुरातनपंथ में भी विशिष्ठ विचक्षण विचार हो सकता है।
ग्लोबल जी,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रस्तुत कथा प्रभावशाली है।
सोमेश जी,
जवाब देंहटाएंमिथिलेश जी,
राज भाटिया जी,
शिखा कौशिक जी,
इस रूपक के सार्थक अनुशीलन के लिये आभार!!
@ चलो अलाव तो जलता रहा.
जवाब देंहटाएंsagebob जी,
अलाव का जलता रहना आवश्यक्ता है और अनवरत रहना स्वभाव!!
किन्तु धुएं (संस्कृतिक प्रदुषण)की समस्या साथ साथ है।
दीपक सैनी जी,
सदा जी,
सञ्जय झा जी,
सराहना के लिये आभार॥
@ सुज्ञ के नहले पर ग्लोबल गौरव का दहला -मन गए भाई आप लोगों की जुगलबंदी को!
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी,
उत्तम विचार तो सदैव नहले पर दहला ही साबित होते है। संस्कृति के समदर्दी का हमदर्दी से जुगलबंद होना सामान्य है।
अन्तर सोहिल जी,
जवाब देंहटाएंआपका आभार मित्र!!
निर्मला कपिला जी,
सराहना का अशेष आभार!!
भारतीय नागरिक जी,
प्रसंग-प्रतीक आपको प्रभावित कर गये, लेखन सफल मानता हूँ!